दूब और गेहूँ का मामा

दूब और गेहूँ का मामा

सुपरिचित कवि-लेखक। ‘छुईमुई सी सुबह’, ‘वफा के फूल मुसकराते हैं’, ‘भोर का तारा न जाने कब उगेगा’, ‘दरबान ऊँघते खड़े रहे’, ‘सुरीले रंग’, ‘सूख रहा पौधा सुराज का’ (छह गीत-संग्रह)। कौवा पुराण (कुंडली-संग्रह)। स्थानीय सम्मान प्राप्त। शतकाधिक पत्रिकाओं में गीत, कविता, कहानी, व्यंग्य प्रकाशित। संप्रति भारतीय स्टेट बैंक में प्रबंधक पद से सेवा-निवृत्त।

वोट का दम
बारह जने भैंस के जिम्मे 
वही कमाने वाली है बस 
और सभी के सभी निकम्मे 
बिरादरी के जोड़-तोड़ में 
अटक गया सारा विकास है 
बारह वोटों का ये कुनबा 
मुखियाजी का बहुत खास है 
बिरादरी का संख्या बल ही 
निर्णायक है नए नियम में 
जिसकी जितनी आबादी है 
उसका उतना ज्यादा हक है 
जो पहले का होशियार था 
आज वही सबसे बुड़बक है 
फिर भी सबकुछ ठीकठाक है 
जिए जा रहे सभी भरम में 
खतम हो गई नेतागीरी 
रोना-धोना काम बचा है 
हुए पुरनिया बाबू साहब 
पुरखों का बस नाम बचा है 
धीरे-धीरे छोड़ रहे हैं 
कलई अपनी सभी मुलम्मे 
सोच रहे थे देश काल की 
वो सारे ही बहुत दुःखी हैं 
जो आबादी बढ़ा रहे थे
नए दौर में सूर्यमुखी हैं 
चार वोट क्या कर पाएगा 
बारह वोट बड़ा है दम में।
      
कंपोस्ट 
कंपोस्ट सफाई साथ-साथ 
कस लिया कमर पंचायत ने 
खप जाएगी सब घास-पात 
स्वच्छता नया अभियान बने 
नारा जन-जन को भाया है 
मुखियाजी ने मनरेगा से 
गड्ढा विशाल खुदवाया है 
गोबर की फेंका-फेंकी से 
मिल जाएगी सब को निजात 
तय हुआ भरी पंचायत में 
बस कमियाँ नहीं निकालेगा 
हर कोई पशुओं का गोबर 
अब गड्ढे में ही डालेगा 
कर गईं असर मन की बातें 
है सौ बातों की एक बात 
अवसर है लाभ उठाने का 
मुद्दा इतना गरमाया है 
मन-ही-मन खुश हैं मुखियाजी 
क्या मौका हाथ में आया है 
उस्तरा लिये निकला हजाम 
तुम डाल-डाल हम पात-पात 
इकलौती भैंस के गोबर से 
कुछ-न-कुछ तो मिल जाता है 
चिंतित है मड़ई बेचारी 
पर मुखिया भाग्यविधाता है 
मुँह चिढ़ा रही है लाचारी 
फिर हिस्से में मिल गई रात।

झींगुर 
खा गए झींगुर पता चलने न पाया 
मखमली था कोट पुरखों की निशानी 
जतन से रखा हुआ था तह लगाकर 
ट्रंक था मजबूत लोहे से बना था 
झूलते ताले पे था विश्वास सबको 
हर किसी का झाँकना छूना मना था 
अब नई पीढ़ी को ये लगने लगा है 
व्यर्थ हैं नुस्खे पुराने खानदानी 
उग रहा था रोज सूरज बिना नागा 
हवा भी बेखौफ अंदर आ रही थी 
मगर हर बदलाव से निश्चिंत होकर 
झींगुरों की फौज मखमल खा रही थी 
धूप दिखलाने की बातें चल रही हैं 
फैसला ताकत करेगी आसमानी 
उड़ रहे हैं पंख फैलाकर मजे से 
किसी के भी मन में कोई डर नहीं है 
है उन्हें विश्वास अपनी खासियत पर 
रोक पाए कहीं ऐसा घर नहीं है 
बहुत देखे जागरण इनसानियत के 
फुस्स हो जाती है फिर सारी कहानी। 
  
खर-पतवार 
फूल रहा है काँस 
खेती की तकदीर में लिखी 
तरह-तरह की घास 
साँप घास फुफकार रही है 
पत्ते तने हुए हैं 
दूब और गेहूँ का मामा 
अब भी बने हुए हैं 
छेक रहा है धूप खेत की 
कुनबा लेकर बाँस 
हिरनखुरी लहलहा रही है 
जड़ें बहुत हैं गहरी 
फसलों का हक छीन रही है 
छोटी घास सुनहरी 
मोथे के चलते दूभर है 
लेना गहरी साँस 
व्यर्थ हुए सारे परिष्करण 
भले नहीं आसार 
सारा पानी खाद खेत का 
पीते खर-पतवार 
तोड़ रहे दम धीरे-धीरे 
आशा औ विश्वास।

बी २३/४२ ए.के., बसंत कटरा 
(गांधी चौक)
खोजवा, दुर्गाकुंड, वाराणसी-२२१००१
दूरभाष : ९८३९८८८७४३

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