ज्योतिर्मयी

ज्योतिर्मयी

मार्च का महीना था। कालीपीठ पर ग्यारह दिवसीय शतचंडी यज्ञ चल रहा था। यज्ञ के निमित्त बड़े-बड़े तांत्रिक, संन्यासी एवं ज्योतिषी कालीपीठ पर विद्यमान थे। पीठाधीश्वर स्वामी अमृतपाद से दीक्षित अनेक शिष्य-शिष्याएँ यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आई थीं। पुरोहितगण, तांत्रिक, संन्यासी, ज्योतिषी, यजमान व पीठ से जुड़े अन्य साधक-साधिकाएँ दिन में शतचंडी का पाठ करते और रात्रि में जीवन के आध्यात्मिक अनुभवों की परस्पर चर्चा करते।

यज्ञ में शामिल होने पीठ का दीक्षित साधक नर्मदेश्वर भी गया था। उसकी वरिष्ठ गुरुबहन—चारुशीला, गुरुभाई—रामसमर्थ एवं ज्योतिर्विद्या के निष्णात अध्येता—साधक लिंगम स्वामी भी गए थे। वे ज्योतिषी के साथ-साथ हस्त-रेखा के मर्मज्ञ विद्वान् और कालीपीठ से ही दीक्षा-प्राप्त साधक थे।

यज्ञ में प्रतिदिन शताधिक श्रद्धालु सम्मिलित होते। जो लोग लिंगम स्वामी से पूर्व परिचित थे, अपनी जन्म-पत्रिका उनसे विचरवाते। कई अपना हाथ भी स्वामीजी के सामने पसार देते कि उनकी हस्त-रेखाएँ क्या कहती हैं!

“नर्मदेश्वर का हाथ देखकर बताइए, इसके हाथ की रेखाएँ क्या कहती हैं?” एक संध्या चारुशीला ने लिंगम स्वामी से कहा।

“इनका हाथ कल रात्रि में आराम से देखेंगे।” लिंगम स्वामी ने आश्वासन भरे स्वर में कहा।

नर्मदेश्वर उत्सुक तो था, किंतु उसने कोई विशेष उत्कंठा नहीं दिखाई।

अगली रात्रि स्वामीजी ने नर्मदेश्वर को अपने पास बुलाया और अपनी भौंहों से उसके हाथ की ओर इशारा किया। नर्मदेश्वर ने दोनों हाथ स्वामीजी के सम्मुख फैला दिए। स्वामीजी कभी दाहिनी और कभी बाईं हथेली की लकीरों को बागौर देखते।

“क्या मेरा कुछ आध्यात्मिक उत्थान होगा?” नर्मदेश्वर ने जिज्ञासा व्यक्त की।

स्वामीजी ने नर्मदेश्वर की हस्त-रेखाओं पर दृष्टि गड़ा दी। एक क्षण बाद वे बोले, “आपके ऊपर आपके गुरु की महती कृपा है।”

उनकी आँखों में दिव्य चमक थी। वे किन्हीं अलौकिक विचारों में खो गए।

“आज से तीन माह के अंदर आपको किसी उच्च-चेता मानवी का दर्शन प्राप्त हो सकता है, इस ओर आप सचेत रहें।” स्वामीजी ने आग्रह करते हुए दृढ़तापूर्वक कहा।

उनके नेत्रों की पुतलियाँ गोल और स्थिर थीं। इतना कहकर उन्होंने नर्मदेश्वर के हाथ छोड़ दिए और अन्य बातें करने लगे।

यज्ञ नित्यप्रति आगे बढ़ रहा था और पीठ पर श्रद्धालु-साधकों को नए-नए अनुभव होने लगे थे। पूर्णाहुति के दिन कालीपीठ पर सामूहिक हवन व विशाल भंडारे का आयोजन था। इसमें सहस्राधिक लोग सम्मिलित हुए।

यज्ञ का विश्राम हुए लगभग दो माह बीत चुके थे। मई के प्रथम सप्ताह में नर्मदेश्वर अपने मित्र चिरायु के साथ उत्तराखंड की यात्रा पर निकल पड़ा। वह पहले हरिद्वार गया और हर की पैड़ी में स्नान-संध्या कर रात्रि विश्राम भी वहीं किया।

दूसरे दिन दोनों उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी रास्तों से होकर प्रकृति के लुभावने दृश्यों का आनंद लेते हुए शाम ढले तक जानकी चट्टी-उत्तरकाशी पहुँच गए। उसी शाम वे वहाँ से खरसाली गाँव भी घूमने गए। यह नदी के उस पार ही था। खरसाली में यमुनाजी का एक छोटा सा मंदिर है, जहाँ शीतकाल में उनकी विग्रह-पूजा होती है। लोकमान्यता के अनुसार खरसाली यमुनाजी का मायका है।

 सुबह लगभग सात किलोमीटर की खड़ी-कठिन चढ़ाई चढ़कर यमुनोत्तरी स्थित यमुना-मंदिर में दर्शन के बाद दोनों ने ‘वानर पूँछ’ ग्लेशियर देखा। यह पवित्र स्थान यमुनाजी का उद्गम-स्थल है।

यमुनोत्तरी से लौटकर दोनों उत्तरकाशी के लिए प्रस्थान कर गए। प्रातः गंगनानी, हर्षिल, मुखबा और भैरवघाटी होते हुए दोनों गंगोत्तरी पहुँचे। गंगाजी गोमुख से निकलकर गंगोत्तरी आती हैं। गंगा के बर्फीले पवित्र जल से आचमन-स्नान के पश्चात् दोनों ने गंगा-दर्शन किया और रात्रि आठ बजे तक उत्तरकाशी वापस आ गए।

गंगनानी उत्तरकाशी से चौवालीस किलोमीटर दूर गंगोत्तरी-मार्ग पर स्थित एक छोटा सा कस्बा है। पौराणिक मान्यतानुसार भगवान् शिव ने बहुत वर्षों तक यहाँ तपस्या की थी। लोगों का यह भी मानना है कि गंगनानी में ऋषि वेद व्यास के पिता महर्षि पराशर ने तप करके उन्नत लोक प्राप्त किया था। गंगनानी में पराशरजी का एक प्राचीन मंदिर भी है। गंगोत्तरी से लौटते हुए नर्मदेश्वर ने पराशर-मंदिर में दर्शन भी किए। यह सुखद है कि उसका गोत्र भी पराशर ही था।

गंगनानी से लगभग बत्तीस किलोमीटर गंगोत्तरी-मार्ग पर ही भोज वृक्षों, देवदार के सघन वनों तथा पहाड़ी झरनों से आच्छादित हर्षिल गाँव भागीरथी नदी के तट पर बसा है। हर्षिल अत्यंत रमणीक हिल-स्टेशन है। यह सेब उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है। माना जाता है कि हर्षिल की खोज ब्रिटिश सेना के भगोड़े सिपाही पैट्रिक विल्सन ने की थी। यहाँ सैनिक-छावनी भी है।

हर्षिल से प्रायः तीन किलोमीटर की दूरी पर मुखबा गाँव है। मुखबा-स्थित गंगाजी के मंदिर में उनकी शीतकालीन पूजा होती है। लोकमान्यता के अनुसार मुखबा गंगाजी का मायका है। गंगोत्तरी से छह किलोमीटर पहले ही भैरवघाटी है, जहाँ भैरवनाथ का प्राचीन मंदिर है। यह भागीरथी और जाह्न‍वी के संगम पर स्थित है। प्रसिद्ध जर्मन पर्वतारोही हेनरिक हैरियर भैरवघाटी से जाह्न‍वी के किनारे-किनारे चलता हुआ तिब्बत गया था और पवित्र दलाई लामा का शिक्षक बन बैठा।

अगले दिवस भोर में ही दोनों उत्तरकाशी से केदारनाथ-दर्शन हेतु निकल पडे़ और देर शाम गौरीकुंड पहुँच गए। यहाँ से सुबह गौरीकुंड में स्नान करके उन्हें बाबा केदारनाथ के दर्शन हेतु लगभग चौदह किलोमीटर की दुर्गम चढ़ाई चढ़कर केदारघाटी पहुँचना था। सुबह नर्मदेश्वर और चिरायु घोड़े से केदारघाटी के लिए निकल पड़े। लगभग पाँच घंटे की श्रम-साध्य चढ़ाई के बाद केदारघाटी पहँुचकर उन्होंने बाबा केदारनाथ के दिव्य दर्शन किए।

अगली सुबह ऊखीमठ होते हुए दोनों जोशीमठ के लिए प्रस्थित हुए। शाम को जोशीमठ पहुँचकर ज्योतिर्मठ में शंकराचार्यजी का आशीर्वाद प्राप्त किया और तोटकाचार्य गुफा में दुर्लभ स्फटिक शिवलिंग का दर्शन प्राप्त कर तृप्त हुए।

सर्दियों में भगवान् केदारनाथ की उत्सव-डोली को केदारनाथ मंदिर से ऊखीमठ लाया जाता है। केदारनाथ की शीतकालीन पूजा और भगवान् ओंकारेश्वर की वर्ष भर चलने वाली पूजा, ऊखीमठ मंदिर में ही संपन्न होती है।

नर्मदेश्वर चिरायु के साथ जोशीमठ से भगवान् बदरीविशाल के दर्शन हेतु बदरिकाश्रम चला गया। बदरीनाथ मंदिर के कपाट खुले अभी तीन दिन ही बीते थे, फिर भी मंदिर में साधु-संन्यासियों व श्रद्धालु दर्शनार्थियों की अच्छी-खासी भीड़ थी। दर्शनोपरांत मंदिर के द्वार पर बाईं ओर बनी सीढ़ियों से दोनों नीचे उतरने लगे। चिरायु नर्मदेश्वर के आगे चल रहा था। वह सीढ़ियों से उतरकर मंदिर के मुख्य द्वार के सामने बह रही अलकनंदा की ओर बढ़ चला। नर्मदेश्वर सीढ़ियों से उतरकर कुछ ही कदम आगे बढ़ा था कि जाने क्यों, वह मुड़कर मंदिर की ओर देखने लगा। जैसे किसी ने बलात् उसकी दृष्टि का आकर्षण कर लिया हो। अचानक उसकी दृष्टि मंदिर के नीचे लंबित सीढ़ी के पास गई। वहाँ एक युवा संन्यासिनी खड़ी थी। वह बाईस-तेईस की रही होगी। उसने अपने शरीर पर गैरिक वस्त्र धारण कर रखा था और अपनी बड़ी जटाओं को लपेटकर सिर पर जूड़ा बना लिया था। संन्यासिनी का रंग साँवला और बदन कसा हुआ था। लंबाई छह फीट रही होगी। वह एक ही स्थान पर मूर्तिवत् अविचल खड़ी थी। उसके मुखमंडल पर एक दिव्य मोहक मुसकान की आभा विकीर्ण हो रही थी। नर्मदेश्वर को लगा, जैसे वह उसे ही एकटक निहार रही हो। शील-संकोचवश वह उधर से अपनी आँखें फेर लेता। तो भी मन बार-बार संन्यासिनी की ओर खिंच जाता। जब भी वह उसकी ओर देखता, संन्यासिनी की दृष्टि नर्मदेश्वर की आँखों से मिल जाती। यह क्रम पाँच-छह मिनट तक चलता रहा।

“नर्मदेश्वर, तुम यहाँ खड़े होकर क्या कर रहे हो? मैं कब से तुमको ढूँढ़ रहा हूँ!” अचानक चिरायु का स्वर सुनकर नर्मदेश्वर चौंक सा गया।

“तुम चलो, मैं आ रहा हूँ।” उसने चिरायु से अन्यमनस्क भाव से कहा।

चिरायु ने नर्मदेश्वर का हाथ पकड़ा और उसे लगभग खींचते हुए अलकनंदा की ओर लेता चला। वहाँ चिरायु ने अनेक तसवीरें लीं। नर्मदेश्वर बेमन चिरायु के साथ फोटो खिंचवा रहा था, क्योंकि उसका मन तो संन्यासिनी में लगा हुआ था। वह मन-ही-मन सोच रहा था कि फोटो खिंच जाने के बाद वह संन्यासिनी से मिलेगा और दक्षिणा-सहित उसका चरण-छूकर आशीर्वाद प्राप्त करेगा।

कुछ क्षणों के उपरांत नर्मदेश्वर ने जाकर देखा तो संन्यासिनी वहाँ नहीं दिखी। उसने उसे चारों तरफ ढूँढ़ा, वह नहीं दिखी। मंदिर-परिसर में उपस्थित साधु-संतों और पुजारियों से उसने उसके बारे में पूछताछ की। सभी ने अनभिज्ञता प्रकट की। फिर भी नर्मदेश्वर ने उसे बहुत देर तक तलाशा, पर निराशा ही हाथ लगी। वह संन्यासिनी के दिव्य मुखमंडल और मंत्रमुग्ध कर देने वाली मुसकान को भुला नहीं पा रहा था।

अपर दिवस बदरीनाथ के आस-पास घूमता हुआ नर्मदेश्वर माणा गाँव चला गया। माणा गाँव भारत-चीन सीमा का सीमावर्ती गाँव है, जहाँ से वह भीम पुल देखने गया। कहा जाता है, स्वर्गारोहण के लिए जाते समय भीम ने एक विशालकाय शिला-खंड उठाकर नदी के तट पर रखकर पुल का निर्माण कर दिया था। इसे ही ‘भीम पुल’ कहा जाता है और उस शिला को ‘भीम शिला’ कहा जाता है। भीम पुल से अलकनंदा को पार करके पांडव स्वर्ग-मार्ग पर अग्रसर हुए थे।

नर्मदेश्वर भीम पुल से अलकनंदा के उस पार गया और जिज्ञासा-वश स्वर्गारोहण-पथ पर भी कुछ दूर तक चला। मार्ग बर्फ से आच्छादित था। चारों तरफ बर्फ की चादर बिछी थी। आगे कुछ दूरी पर पड़ी शिला पर वह ज्योतिर्मयी संन्यासिनी ध्यान मुुद्रा में स्थिर दीपशिखा-सी बैठी दिखी। नर्मदेश्वर की उत्सुकता बढ़ चली। धीरे-धीरे वह उसकी तरफ बढ़ने लगा। उसे लगा कि वह उस तक पहुँच नहीं सकेगा।

“आप कौन हैं?” नर्मदेश्वर ने ऊँची आवाज में पूछा।

नर्मदेश्वर के जोर से पुकारने पर उसकी आँखें खुल गईं। नर्मदेश्वर की ओर देखती हुई वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।

नर्मदेश्वर ने फिर आवाज दी, “मैं आपके पाँव-छूकर आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता हूँ।”

संन्यासिनी वहीं खड़ी हो गई और दाहिना हाथ उठाकर आशीर्वाद देती हुई कुछ बोली, जिसे नर्मदेश्वर समझ नहीं सका। संन्यासिनी ने नर्मदेश्वर को वहीं से लौट जाने का संकेत किया। नर्मदेश्वर ने घुटने टेककर उसे प्रणाम किया और आधे मन से वापस लौट आया।

नर्मदेश्वर बार-बार सोचता रहा कि आखिर वह थी कौन!

उत्तराखंड की अपनी यात्रा पूर्ण कर नर्मदेश्वर घर वापस आ गया। महीनों बाद उसने अपने वरिष्ठ गुरुभाई रामसमर्थ को फोन किया और उत्तराखंड की अपनी यात्रा की चर्चा की। तभी यकायक उसे बदरीनाथ में घटी घटना याद आ गई और उसने उस ज्योतिर्मयी संन्यासिनी की चर्चा कर डाली। संन्यासिनी की बात सुनकर रामसमर्थ जोर से हँसने लगे। बोले, “तुमको दर्शन हो गया।”

“किसका दर्शन हो गया?” नर्मदेश्वर ने विस्मित होकर पूछा।

“जिसका होना था...‘महाविद्या’ का।” रामसमर्थ ने कहा।

नर्मदेश्वर प्रश्नाकुल होकर उनकी बातें सुनता रहा।

“लिंगम स्वामी की वाणी मिथ्या हो ही नहीं सकती। वे एक प्रकांड ज्योतिषी हैं और उनके ऊपर गुरुदेव की महती कृपा है। संन्यासिनी वही थी, जिसके बारे में शतचंडी यज्ञ के समय तुम्हारी हस्त-रेखाओं को देखकर उन्होंने बताया था। वह संन्यासिनी के रूप में साक्षात् देवी थी।” रामसमर्थ ने अपना पूर्ण विश्वास व्यक्त किया।

उनकी बातों को सुनकर नर्मदेश्वर को लिंगम स्वामी द्वारा कही बातों की स्मृति जाग गई, जिसे वह प्रायः भूल गया था। अगली सुबह उसने लिंगम स्वामी को फोन मिलाया और बदरीनाथ की घटना बताई। घटना के बारे मे जानकर लिंगम स्वामी बहुत प्रसन्न हुए और बोले, “आपकी समर्पित अविरल गुरुभक्ति और नित्य साधना के परिणामस्वरूप ही आपको उस पराशक्ति का साक्षात्कार हुआ। भक्ति-विश्वासपूर्ण साधना एवं गुरु के प्रति अटूट समर्पण से ही जीवन में ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं नर्मदेश्वर!”

यह सुनकर नर्मदेश्वर को अपने गुरु की नित्य कृपा का अहसास होनेे लगा और अतीत में कही उनकी बातें याद आने लगीं, ‘इबादत का वो शऊरो-दस्तूर है कि जिंदगी में बड़े-बड़े मामले और हादसे आएँगे, आप उनको रौंदते हुए चले जाएँगे, रास्ते हमवार होते चले जाएँगे और आप समझेंगे कि पता नहीं क्या करिश्मा हो गया, कैसे हो गया और कहाँ से हो गया!’ वह चिंतन करने लगा। कोई कैसे कह सकता है कि हाथ की रेखाएँ बोलती नहीं हैं और परमसत्ता प्रत्यक्ष और प्रकट नहीं होती है।

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