मानव जीवन से बढ़कर क्या?

हर आम चुनाव में राजनीतिक दल एक घोषणा-पत्र जारी करते हैं। इस घोषणा-पत्र को अलग-अलग नाम दिए जाते हैं, जिसमें एक राजनीतिक दल यह घोषित करता है कि यदि उसकी सरकार बनी तो वह क्या-क्या कार्य करेगी, कैसी-कैसी योजनाएँ लाएगी, कैसे विविध समस्याओं का समाधान करेगी आदि-आदि। इन घोषणा-पत्रों में आमतौर पर हर क्षेत्र के संबंध में कुछ-न-कुछ दावे या वादे अवश्य किए जाते हैं। स्वाभाविक है कि ये घोषणा-पत्र बहुत आकर्षक प्रतिज्ञाएँ करते हैं कि इन पर चर्चा हो तथा मतदाता घोषणा-पत्र में किए गए वादों से प्रभावित होकर उस दल विशेष के पक्ष में मतदान करें। इन घोषणा-पत्रों में जितनी प्रतिज्ञाएँ होती हैं, आश्वासन दिए जाते हैं, सब्जबाग दिखाए जाते हैं, सरकार बनने के बाद उनका कितना क्रियान्वयन हो पाता है, वह एक अलग चर्चा का विषय है। इतना अवश्य है कि कुछ ऐसी चुनौतियाँ, ऐसी समस्याएँ हैं, ऐसे गंभीर प्रश्न हैं, जिन पर राजनीतिक दलों का ध्यान बहुत कम जाता है या वे प्राथमिकता की परिधि में नहीं आ पाते। ऐसा ही एक अत्यंत गंभीर विषय है—‘मानव जीवन की रक्षा।’ तुलसीदासजी की चौपाई का स्मरण संत या कथावाचक बार-बार करते हैं ‘बड़े भाग मानुष तन पावा,’ ताकि कथा सुनने वाले अच्छे मनुष्य बनें। यह भी कहा जाता है कि चौरासी लाख योनियों के बाद मनुष्य जन्म मिलता है। सड़कों पर ‘मानव जीवन अनमोल है’ के बड़े-बड़े साइनबोर्ड भी आपने देखे होंगे; किंतु इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि मात्र सड़क दुर्घटनाओं में सन् २०२२ में एक लाख नब्बे हजार से अधिक लोग मारे गए। इनमें बच्चे, बूढ़े, युवा—सभी थे। घायल होने के बाद अपाहिज होने वालों की संख्या मृतकों की संख्या से कम भयावह नहीं होती।

पिछले दिनों हरियाणा में स्कूल बस के पलटने से कई बच्चे काल-कवलित हो गए। लोगों ने दु:ख व्यक्त कर दिया, कविताएँ सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दीं, लेकिन उन परिवारों की व्यथा पर विचार करिए, जिनके आँगन जरा सी लापरवाही से सूने हो गए। इन सड़क दुर्घटनाओं में देश की जानी-मानी हस्तियाँ भी जान गँवा चुकी हैं। प्रतिवर्ष जितने लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं, उतने पाँच युद्धों में भी नहीं मारे गए। एक लाख नब्बे हजार की संख्या पर गहराई से विचार करें तो छोटे-छोटे देशों, जैसे नौरू की आबादी लगभग १३ हजार है, या सैन मरीनो की २४ हजार है, तो कुछ देशों की कुल जनसंख्या के बराबर लोग तो भारत में एक वर्ष में सड़कों पर ही दम तोड़ देते हैं। यह भी दु:खद है कि बरसों पहले आकाशवाणी के राष्ट्रीय कार्यक्रम में प्रसारित एक डॉक्यूमेंट्री के अतिरिक्त इस विषय पर कभी मीडिया का ध्यान नहीं गया, कुछ अपवाद हों तो हों। सर्वाधिक दु:खद पहलू यह है कि इन सड़क दुर्घटनाओं को समुचित व्यवस्थाओं से रोका जा सकता है, कम किया जा सकता है। एक उदाहरण से समझें तो मेट्रो रेल में जो व्यवस्था है, उसके कारण बिना टिकट यात्रा करना संभव नहीं है। हम प्रति​वर्ष ‘यातायात सप्ताह’ मनाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं, जबकि सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतें रोकने के लिए एक व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता होगी। इन व्यवस्थाओं में ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने से लेकर सड़कों की संरचना, पुलों की संरचना, यातायात नियंत्रण, नशे में गाड़ी चलाना या तेज रफ्तार में गाड़ी चलाने पर नियंत्रण से लेकर अनेकानेक उपाय करने होंगे। भारत की राजधानी में ‘रेड लाइन’ नाम की बस सेवा के कारण ही पाँच सौ से अधिक लोग मारे गए; कारण थे—बसों की बनावट (चढ़ने-उतरने की सीढ़ियाँ) से लेकर अधिक मुनाफे के लिए बसों की आपसी होड़ आदि। गत वर्ष कितने लोग रेलवे फाटकों के न होने से मारे गए। मुंबई की लोकल ट्रेनों में बाहर लटककर यात्रा करने वाले कितने ही यात्री काल के गाल में समा गए। यहाँ उल्लेखनीय है कि एक यूरोपीय देश ने सन् २००० तक सड़क दुर्घटनाओं को लगभग शून्य के स्तर पर लाने का संकल्प लिया तथा हर स्तर पर आवश्यक सुधार किए, नई व्यवस्थाएँ लागू कीं और सन् २००० तक अपने लक्ष्य को प्राप्त भी कर लिया। अब वहाँ सड़क दुर्घटनाएँ अपवाद हो गई हैं। भारत में भी सरकारें संकल्प करके हर स्तर पर आवश्यक सुधार करें एवं नई व्यवस्थाएँ लागू करें तो निश्चय ही अनमोल जीवन बचाए जा सकेंगे। साथ ही इन सड़क दुर्घटनाओं के कारण देश को हजारों करोड़ रुपयों की जो क्षति होती है, वह भी बचेगी तथा विकास कार्यों में लगेगी।

सड़क दुर्घटनाओं के अलावा भी भारत में अकाल मौतों के अनेक कारण हैं। इनमें घातक बीमारियों में समुचित इलाज न मिल पाने से लेकर ऐसे-ऐसे कारण भी हैं, जिनके संबंध में एक देश और सभ्य समाज के नाते हमें लज्जित होना चाहिए। भारत की राजधानी में एक पिता अपने पुत्र को विद्यालय लेकर जा रहा है...अचानक एक आवारा पशु सड़क पर पिता के ऊपर आक्रमण कर देता है और वह वहीं दम तोड़ देता है। बेचारा बेटा प्रयास अवश्य करता है, किंतु जीवन भर के लिए इस त्रासदी की भयावह स्मृतियों के साथ जीने को अभिशप्त हो जाता है। दूसरे दृश्य में, एक नगर में नगरपालिका वाले या वन विभाग वाले एक बहुत ऊँचा पेड़ गिरा रहे हैं, पर आसपास के घरों को कोई चेतावनी नहीं दी गई; पेड़ गलत दिशा में गिर जाता है और घर के बाहर बेटे के स्कूल से लौटने की प्रतीक्षा कर रहे माता-पिता वहीं दम तोड़ देते हैं, घर भी क्षतिग्रस्त हो जाता है। इंटरनेट युग में ऐसी घटनाओं के वीडियो भारत का सम्मान नहीं बढ़ाते। ऐसी घटनाएँ अपवाद भी नहीं हैं; हर दिन ऐसी अनेक घटनाएँ घटती हैं, जिनमें प्रशासन की लापरवाही मुख्य कारण होती है। कितने सफाई कर्मचारियों ने सीवर की सफाई के समय जहरीली गैस से दम तोड़ दिया। कितने लोग मैनहोल का ढक्कन न होने से या खुला गड्ढा छोड़ देने से मारे जाते हैं। बिजली के टूटे तार से लेकर इतनी लापरवाहियाँ हैं कि गिना पाना कठिन है। इस तरह की लापरवाहियों के शिकार हुए परिवारों ने भले ही इसे ‘होनी को कौन टाल सकता है’ मान कर संतोष कर लिया हो, किंतु इस तरह की मौतें बहुत आसानी से रोकी जा सकती हैं।

अनमोल जीवन की रक्षा के संदर्भ में एक और दु:खद पहलू आत्महत्याओं का है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, वर्ष २०२२ में एक लाख इकहत्तर हजार लोगों ने आत्महत्या की—फिर वही ५-६ छोटे देेशों की कुल जनसंख्या से अधिक। इन आत्महत्याओं का सबसे दु:खद पहलू है आर्थिक तंगी के कारण पूरे परिवार द्वारा सामूहिक आत्महत्या। उन माँ-बाप की विवशता सोचिए, जो अपने हाथों से अपने ही बच्चों को विष पिलाते हैं, फिर स्वयं आत्महत्या करते हैं। कितना हृदयविदारक है यह! साथ ही किसी छात्र या छात्रा का कम अंकों के कारण या बेरोजगार युवक का आत्महत्या करना कितना पीड़ादायक है! भयावह प्रतिद्वंद्विता के कारण कोटा नगर से लगभग हर माह मिलती आत्महत्याओं की खबरें दिल दहला देती हैं। आत्महत्या स्वयं में ही ईश्वर के सौंपे मानवजीवन रूपी वरदान का अपमान है। आत्महत्याओं के संदर्भ में भारत में पहले से बनी-बनाई सारी धारणाएँ ध्वस्त हो चुकी हैं। अब हर उम्र के, हर आर्थिक स्तर के लोग आत्महत्याएँ कर रहे हैं। आत्महत्याओं के कुछ कारण तो ऐसे हैं, जो भारत के अलावा दुनिया के किसी देश में नहीं हो सकते। उदाहरण के लिए, जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज का अपने माता-पिता का इकलौता बेटा अच्छी अंग्रेजी न आने के कारण आत्महत्या कर लेता है। इसी प्रकार इंदौर की एक छात्रा अंग्रेजी का परचा बिगड़ जाने के कारण कम नंबरों की आशंका के चलते आत्महत्या कर लेती है।  परंतु परीक्षाफल आने पर अंक आते हैं बयासी। क्या फ्रांस के किसी छात्र ने आत्महत्या की कि उसे जर्मन भाषा अच्छी नहीं आती?

आत्महत्याओं के संदर्भ में एक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि पंचानबे प्रतिशत आत्महत्याओं को रोका जा सकता है, यदि वह ‘क्षण’ जब व्यक्ति अपनी जान लेने पर उतारू हो, टाला जा सके। सिर्फ सौ में से पाँच ही ऐसे केस संभव हैं, जिनमें बचना कठिन हो।

विशेषज्ञों की यह मान्यता पूरी तरह सही है, जो मात्र इन दो उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगी—एक बच्चा अपने खाने-पीने की विचित्र आदतों के कारण आए दिन डाँट खाता था तथा पीटा भी जाता था। वह काँच के टुकड़े खा लेता, आलपिन या कील खाता...या इसी तरह की अन्य चीजें...। मारपीट के बावजूद उसकी आदतें नहीं सुधरीं तथा किशोरावस्था आने पर एक दिन मारपीट से तंग आकर उसने आत्महत्या का इरादा कर लिया और रेल की पटरी पर जाकर लेट गया।

गाड़ी आने में देर थी, सो कुछ देर बाद उसका ध्यान पटरी पर लगे नट-बोल्ट पर गया और वह उन्हें खाने के इरादे से खोलने का प्रयास करने लगा। गनीमत है कि परिवार वाले उसे खोजते हुए वहाँ पहुँच गए और वह सकुशल घर लौट आया। मारपीट का सिलसिला थम गया। आगे चलकर यही किशोर जगह-जगह आलपिन खाने, ट‌्यूबलाइट खाने आदि का प्रदर्शन करने लगा और भारत के विभिन्न नगरों के अलावा कई देशों में गया और एक बहुत बड़ी शख्सियत बन गया। इसी प्रकार गाँव का एक व्यक्ति बेहद निराशा के पलों में रेलगाड़ी की पटरियों पर आत्महत्या के इरादे से जाकर लेट गया। दूर कहीं से रेडियो से गाना बज रहा था—

गाड़ी का नाम, मत कर बदनाम

पटरी पे रख के सर को

हिम्मत न हार, कर इंतजार

आ लौट जाएँ घर को...

वो रात जा रही है

वो सुबह आ रही है।

वह व्यक्ति पटरी से उठ गया, कुछ देर में रेलगाड़ी सामने से गुजरकर चली गई। वह घर लौट आया और आगे चलकर सफल किसान बना। यहीं सवाल उठता है कि क्या कृषि-प्रधान देश में आजादी के बाद लाखों किसानों की आत्महत्याएँ रोकी नहीं जा सकतीं? सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तथा अन्य व्यवस्थाओं से तथा समुचित सरकारी हस्तक्षेप से आत्महत्याओं की विशाल संख्या को काफी कम किया जा सकता है। यदि हर प्रकार से होने वाली अकाल मौतों को जोड़ा जाए तो यह आँकड़ा बेहद दर्दनाक बन जाता है। क्या यह प्रश्न अनुचित है कि नदियों, पेड़ों, मूर्तियों को पूजने वाले भारत में मानवजीवन के प्रति इतनी उपेक्षा का भाव क्यों? क्या राजनीतिक दल तथा सरकारें अकाल मौतों की रोकथाम को प्राथमिकता देंगी? यदि मानवजीवन अनमोल है तो फिर उसकी अकारण होने वाली क्षति रोकी जानी चाहिए।

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

हमारे संकलन