घर-घर बसती भगवती

कमोबेश बीस बरस गुजर गए। वह मेरे घर आ-जा रही थी। भगवती की छवि अच्छी रही है। मतलब कि दो बच्चे थे उसके—एक विदेश में तथा दूसरा स्थानीय बाजार में बरतनों की शॉप पर; जिस पर प्रायः बच्चों का बखान करने में भगवती कतई नहीं थकती-चूकती थी।

मगर आजकल भगवती मेरे घर बिना सूचना के नदारद है, अतः मेरा चिंतित रहना-होना स्वाभाविक था। यहाँ एक खास बात और है कि भगवती मोबाइल नहीं रखती थी, वरना मैं कदापि उससे वार्त्ता कर अपनी जिज्ञासा को विराम कभी का दे देता...। उसकी अनुपस्थिति खलने लगी थी। घर गंदा-गंदा सा दिखने लगा था। उसकी कमी घर भर में हैरान किए जा रही थी और चौथे दिन मैं उसके घर धमक गया था।

“अरे, भगवती!” अचानक मुझे पाकर वह सिहर सी उठी। “तुम काम पर नहीं आ रही हो...! सब कुशल-मंगल तो है न।”

“हाँ, बाबूजी...!” स्वर में मायूसी झलकी, “अब मैं काम पर नहीं आऊँगी।”

“क्यों...आखिर क्यों?” मैं चौंका।

“मेरे लड़के की सगाई होते-होते रह गई, बाबूजी!”

“क्यों...? कैसे?”

“और उसकी वजह मैं हूँ, बाबूजी।”

“क्या कह रही हो, भगवती!”

“लड़की वालों ने मेरी जन्मकुंडली कहीं से ढूँढ़ निकाली थी, बाबूजी।”

“तुम बोलो तो...मैं तुम्हारी ईमानदारी-कर्तव्यनिष्ठा की पैरवी करने के लिए कहीं भी चलने को तैयार हूँ, भगवती!”

“बात दूसरी है, बाबूजी।”

“वह क्या है?”

“वह सब जगह कहते फिर रहे हैं कि लड़के की माँ घर-घर झाड़ू-पोंछा लगाती है।”

“इसमें कौन सा जुल्म-अपराध हो गया, भगवती?”

“और वह यह भी कह रहे कि झाड़ू-पोंछा उनकी शान-इज्जत से मेल नहीं खाता है।”

“पर उन लोगों से जाकर पूछो कि दुनिया में इनसान काम करना छोड़ देवे क्या?”

“बस-बस...बाबूजी! आगे से मैं नहीं आ पाऊँगी, मैं माफी चाहती हूँ, बाबूजी।”

“लेकिन...कल को शादी के पश्चात् अलग हो गया लड़का, तो-तो!”

“बाबूजी, माँ हूँ मैं...अगर ऐसा होगा तो मेरी सेहत पर क्या फरक पड़ना...!” और बोलते-बोलते वह हाँफ रही थी। आँखें आर्द्र थीं।

यक-ब-यक उसी समय मैं सोचने पर विवश था कि औलाद के वास्ते भगवती का तनिक ऐसा अंधफेथ या कि मोह आज कितना सार्थक-उचित है! और संजीदगी ओढ़े मैंने तत्काल महसूस किया, उसके निर्णायक कदम से औलाद का भविष्य जरूर सँवरेगा, परंतु भगवती का जीवन किसी अँधेरे मैं सिमटकर रह गया तो...! अनायास ही एक उदासी मुझ पर हावी हो चली थी। और निमिषमात्र में निढाल सा मैंने अपने घर जाने की सोची।

पंक्चर

अभी हाल ही में खरीदी नई बाइक की बुरी दशा से वह दुःखी था। उसे जुम्मा-जुम्मा दिन ही गुजारे थे। उस तल्ले में उसके अकेले का निवास था। वैसे भी बाइक को रोजाना ऊपर चढ़ाना संभव नहीं था, इसलिए उसे जीने के समीप ही रखनी पड़ती थी। असल में सारी गड़बड़ उसकी बाइक के साथ रात में ही हो रही थी। उसने इसका पता लगाने की बहुत बार कोशिश की, किंतु हर बार वह निराशा में फिसलकर चित्त हुआ था। उसकी आँखों में परेशानियों का सैलाब लहराता रहता था।

उस रात्रि को अप्रत्याशित ही उसकी नींद ‘सुर्र-सुर्र’ की आवाज से भाग गई। वह बेसब्री से उठ बैठा और एक साँस में वह फटाफट सीढ़ियाँ उतर गया। उसी समय रोशनी में भीगी उसकी नंगी पीठ को पहचान गया। वह नीचे के पोर्सन में रहनेवाली महिला ही थी। वह अभी गुस्से से भरा-भरा था और तत्परता से उसके नजदीक पहुँचकर उसकी कलाई को मजबूती से जकड़ लिया; लेकिन वह बिल्कुल निश्चिंत सी बिना झेंपे-झिझके उसकी नजरों के सामने हो ली।

“मेरी बाइक के पीछे आप हाथ धोकर क्यों पड़ी हैं?”

“...”

“आखिर, आप चाहती क्या हैं?”

“बस यही चाहती थी कि आपसे बात हो।” उसने तृष्णा बुझाते हुए कहा।

उसकी आँखों की दहकती सुर्खी से एक दफे उसकी कँपकँपी छूट गई। तभी उसने जीने की तरफ वापस मुड़ने के लिए दो-एक डग भरे ही थे कि हवा का एक झोंका जोर से आया। एक क्षण को उसने गरदन घुमाते-घुमाते उसे अपनी निगाहों से भाँपा और उसने सीढ़ियों पर चढ़ने का अपना इरादा स्थगित कर दिया।

रैंप का दायरा

घर के दो प्रवेश-द्वार थे। दोनों भाई अपने-अपने हाल में बड़े मजे में थे; लेकिन अमूमन उनकी आपसी धड़कनें इन दिनों घटने-बढ़ने लगी थीं, जिसका समाधान-निदान एक कठिन डगर सा लग रहा था। दरअसल दो रैंप का होना वक्त की जरूरत समझी गई और एक रोज इसी मसले पर दोनों भाई गेट के समीप किंचित् उलझे-उलझे से दिखने लगे।

“...मैं तो चाहूँगा कि आप भी अपना अलग रैंप बनवा लीजिए भैया, जिससे आए दिन की कलह-कड़वाहट घरों में बंद हो।” आजिजी स्वर में छुटियल ने खलल-दखल पैदा की।

“अलग से मैं कैसे बनवाऊँ रैंप? और मेरा यहाँ तुमसे कुछ भी छिपा-छुपा नहीं है, बल्कि मेरा जीवन खुली किताब की तरह है तुम्हारे सामने!” अपनी लाचारगी को बड़ियल ने तुरंत परोसा।

“सच कहूँ, आपके वाहनों-गाड़ियों की रेत-मिट्टी-गंदगी को रोज की रोज कौन बुहारे या साफ करे!”

“जैसे तुम्हारे वाहनों की मिट्टी फर्श से साफ होती है, वैसे ही मेरी भी हो जाएगी। आखिर, मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ, सगा!”

“हाँ-हाँ...भैया! मैं नकार थोड़े ही रहा हूँ आपकी इस बात को, किंतु, ऐसा कब तक चलेगा? ऐसे में तो आपको अब मेरे रैंप का विकल्प ढूँढ़ना ही पड़ेगा।”

“मैं कहाँ से ढूँढ़ू विकल्प, छोटे!”

“भैया, आपको छह महीने के भीतर ही अपने पार्टीशन-हिस्से में रैंप का निर्माण करवाना होगा...और हाँ, छह महीने बाद मैं भी आपके वाहनों को मेरे रैंप से अंदर आने की कतई इजाजत नहीं दूँगा।” बोलते-बोलते एकाएक वातावरण में कसैलापन भर आया और तभी छुटियल उस जगह से किनारा करते हुए पलटा।

“छह महीने तो क्या, आने वाले कई वर्षों तक भी वह खुद का रैंप तैयार नहीं करवा सकता!” और एकांत में वह एक चिंतन-मनन के वशीभूत सिहर गया।

आहिस्ते-आहिस्ते खालीपन

पड़ोसी गैस सिलेंडर ले गया था, क्योंकि उसे आवश्यकता थी। एक दिन आकर बोला, “हमने गैस बुकिंग करवा रखी है, एक-दो रोज में वह सिलेंडर वापिस कर देंगे। आपकी बड़ी कृपा-मेहरबानी होगी, भाई साहब!” उसके गिड़गिड़ाने के अंदाज पर मैं पसीजा था।

आज एक सप्ताह बीत चुका था कि उसकी तरफ से गैस सिलेंडर का कोई अता-पता नहीं, इसीलिए काफी खिन्न सा था मैं, और उसके घर पर जाने का यही सबब रहा। चलते-चलते कदम उसके घर पर थम गए मेरे और एक मिनट में ही वह सामने आ गया।

“अरे...! मैं आपकी बाट जोहता ही रहा कित्ते दिनों से!” पड़ोसी को मैंने कड़क लहजे में उलाहना देने की कोशिश की।

“चलो, मैं नहीं आया तो क्या, आप चले आए, क्या फर्क पड़ता है।” उसने बात को हलके में लिया।

“आपको जरा शरम भी है! आज दुनिया इसी में मस्त है कि जब काम पड़े तो आदमी कुछ और हो, और फिर काम निकल जाए तो उसका चेहरा और तरह का रूप धारण कर ले, है न, कितनी मजे की बात है, समझे!” मैंने पुरजोर एतराज जताया।

“काहे को इत्ता गुस्सा होते हो, यह लो, आपका सिलेंडर!” संक्षेप में कहकर वह फौरन अंदर चला गया।

देखते-ही-देखते अनमना सा मैं अपनी मोटरसाइकिल पर सिलेंडर का बोझा लिये-लिये घर लौट आया, तत्पश्चात् मैं झल्लाया, “आदमी की औकात क्या मतलब तलक ही रह गई है!” मगर मुझे सबसे बुरा यही लगा कि गैस सिलेंडर उसने मुझे खाली सौंपा था, जबकि तत्काल मुझे गैस की सख्त जरूरत थी! मैं हाँफ सा गया, उसके द्वारा सिलेंडर की कीमत-राशि देने मात्र से मेरी समस्या ज्यों-की-त्यों रही, आखिर, कब मेरी गैस बुक होगी और कब वह मेरे घर दस्तक देगी!

और देर तक मैं चिंतित सा इसी मुद्दे पर माथा-पच्ची करता रहा कि फुर्र से मैं बेमन से बड़बड़ाया, ‘अपने नाजुक वक्त-हालात में मुझे अब खुद के परिवार के साथ किसी होटल में खाने का लुत्फ-आनंद लूटना चाहिए।’

और यकायक मुझे अनुभव हुआ कि यहाँ सरेआम अभी-अभी मुझे किसी ने लूट लिया है।

साकेत नगर,

ब्यावर-३०५९०१ (राज.)

दूरभाष : ९४१३६८५८२०

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