लोकसंस्कृति में तीर्थयात्रा की परंपरा

सुपरिचित लेखिका। ‘निमाड़ का सांस्कृतिक लोक’ और ‘मोहि ब्रज बिरसत नाहीं’ पुस्तक एवं अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक और शोध-पत्रिकाओं में लेख एवं संस्मरण प्रकाशित। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से लोक-संस्कृति, कविताओं, बालकथाओं का प्रसारण। म.प्र. लेखक संघ, म.प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति एवं हिंदी भवन सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।

अयोध्या धाम में रामलला के दर्शनों और उनकी एक झलक पाने के लिए लोक का सागर उमड़ रहा है। राम का हर रूप, हर अवस्था लोक को अपनत्व का बोध कराता है, लोक ने अपने संस्कारों में अपनी परंपराओं में राम को प्रतिक्षण अपने निकट पाया है। लोक अपने ग्राम देवता को पूजता है, चावड़ी-चौपाल और पंचवटी की चौकी के देवता के प्रति भी उसकी आस्था है, अपने घर के पूजास्थान में भी देवी-देवताओं को पूजता है। लोक भाव है कि उसकी श्वास-प्रश्वास में सियाराम हैं और कंकर-कंकर में रामेश्वरम्। अपने चहुँओर उसे ईश्वर का बोध होता है। ईश्वर के प्रति यह अटूट विश्वास लोक को उसके ग्राम की सीमाओं तक बाँधता नहीं है, अपितु अनजान मार्गों पर बाधाओं को पार करते हुए तीर्थयात्रा पर जाने के लिए प्रेरित करता है। लोकसंस्कृति ने अपार श्रद्धा से भरी हुई तीर्थयात्रा की परंपरा सहस्रों वर्षों में पुष्ट की है।

ईश्वर उपासना और ईश्वर-प्राप्ति के कई साधन हैं। देवस्थान दर्शन और पवित्र नदियों-सरोवरों में स्नान अर्थात् तीर्थयात्रा को ईश्वर-प्राप्ति का एक प्रमुख मार्ग बताया गया है। तीर्थ स्थानों में सामूहिक रूप से वंदना, स्तवन, पूजा-आराधना की जाती है। देवी-देवताओं से सभी के मंगल की प्रार्थना की जाती है। लोक में इस बात का श्रद्धापूर्वक पालन किया जाता है कि व्यक्ति जब अपने कर्तव्यों और पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो जाता है, तब वह तीर्थयात्रा का नियोजन करता है। या फिर कोई युवा अपने परिवार के वृद्ध सदस्य को तीर्थ करवाने ले जाता है। लोक परंपरानुसार तीर्थयात्रा में प्रमुख हैं चार धाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, सप्त पुरी, शक्तिपीठ पवित्र सरोवर-नदी, पर्वत, प्रचीन मंदिर, आश्रम आदि।

मध्य प्रदेश के दक्षिण-पश्चिम हिस्से में निमाड़ लोक सांस्कृतिक क्षेत्र है। निमाड़ में तीर्थयात्रा से संबंधित पुष्ट लोक-परंपरा रही है। तीर्थयात्रा के लोकगीत की इस परंपरा को समृद्ध करते हैं। ऐसा नहीं होता है कि शासकीय सेवानिवृत्ति और पारिवारिक जिम्मेदारियों के पूरा होने के बाद कोई व्यक्ति निजी तौर पर प्लान बनाए और तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। आम बोलचाल के शब्दों में कहें तो ‘ऐसे ही कोई उठा और छूटा’ जैसे तीर्थयात्रा नहीं करता। तीर्थयात्रा पर निकलने की तैयारी पूरे विधि-विधान से होती है। 

निमाड़ क्षेत्र का लोक चारों धामों की यात्रा में सबसे पहले जगन्नाथ धाम की यात्रा करता है। इस धाम से तीर्थयात्रा प्रारंभ करने का एक प्रमुख कारण यह माना जाता है कि शुभारंभ पूरब दिशा से हो। इस धाम के बाद पश्चिम दिशा में द्वारकाधीश धाम के दर्शन करते हैं। इसके पश्चात् उत्तर में पर्वतराज हिमालय के आँचल में स्थित बदरीनाथ विशाल, केदारनाथजी, गंगोत्तरी-यमुनोत्तरी के दर्शन करते हैं। इस धाम की यात्रा, मार्ग की कठिनाइयों के कारण सर्वाधिक दुष्कर है। तीर्थयात्री गंगोत्तरी से जल भरकर लाते हैं। इस जल को दक्षिण के धाम रामेश्वरम् में शिवजी का अर्पित करते हैं। निमाड़ के तीर्थयात्री वापस लौटकर ओंकार महाराज (ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वरजी) को भी जल अर्पित करते हैं और नर्मदा मैया में डुबकी लगाते हैं। इन्हीं के मार्ग में सप्तपुरियों के भी दर्शन कर लिए जाते हैं।

कई दशकों पहले आवागमन के साधनों की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, तब लोग कठिनाइयों को पार करते हुए तीर्थयात्रा पूरी करते थे। इसलिए तीर्थयात्रा पर जाना दुष्कर था। ऐसे में कई लोग मिलकर जाते थे, जैसे किसी एक गाँव या आसपास के कुछ गाँवों के पंद्रह-बीस लोग मिलकर जाते थे। इस समूह को निमाड़ में ‘पोहो’ शब्द से संबोधित करते थे।

वर्तमान में तो लोग आवागमन के साधनों की सुविधा के अनुसार यात्रा का नियोजन करते हैं। इसके लिए मुहूर्त निकालने और उसके पालन करने जैसी प्रथा मुश्किल से ही दीखती है। लेकिन कुछ दशकों पहले तक मुहूर्त निकालकर तीर्थयात्रा प्रारंभ होती थी, तब आखा तीज का मुहूर्त पोहो के अनुकूल रहता था।

तीर्थ यात्रा जाने के बहुत पहले ही यात्रा शुभारंभ की तिथि निश्चित हो जाती थी। गाँव के पटेल (मुखिया) इस यात्रा में सम्मिलित होने वाले यात्रियों के नाम लिख लेते थे। तीरथ यात्रियों के नाते-रिश्तेदार उनसे मिलने आते थे। यात्रा प्रारंभ होने वाले दिन तीरथ यात्री के रिश्तेदार उसे लोकगीत गाते हुए परात (काँसे की मोटे पेंदे वाली थाली) बजाते हुए मंदिर तक ले जाते थे। जिस भी तीर्थ को जाते थे, उनके अधिष्ठाता देवता का नाम लेकर गीत गाया जाता था। लोकगीतों में आस्था और देवता के प्रति भक्त का अपनापन झलकता है, जब देवता ही कागज पर चिट्ठी लिखकर भक्त को बुलावा भेजते हैं। देवता पूछते हैं कि दूसरे स्थानों के भक्त आ गए हैं, तू क्यों नहीं आया अभी तक—

बद्रीनाथऽ नऽ लिख्या कागज दई भेज्याऽ

तूऽ रे वीराऽ बेगो आवऽ

सगळो पोहो रे मान आई गयो

नईं आई म्हारी भोळई निमाड़ऽ

भोळई निमाड़ का मानवयी असो बोल्याऽ

तोरऽ रे जुवारऽ को म्हरा  धावणूऽ

मिरया कपासऽ मंऽ मनऽ बिलमायऽ

घूमाणऽ का नान्द्या रोकी रह्याजऽ

पाळणाऽ की ममताऽ रोकी रह्यीजऽ

पोहो ते जोवऽ वाटऽ कसा आँवाऽ देवऽ

तीरथऽ खऽ

भावार्थ : उत्तर के बदरीनाथ स्वामी ने कागज लिखकर संदेश भेजा है कि ‘हे भाई, तू दर्शन करने क्यों नहीं आया?’ सभी स्थानों से दल के दल तीरथ करने आ गए, भोली-भाली निमाड़ का मानस नहीं आया।’ इस संदेश पर निमाड़ के भाई कहते हैं कि ‘हमारे खेत में मिरी (मिर्ची), कपास फूल रही है, तुवर और जुवार को खेत से निकालना है। मिरी में मन बिलम रहा है। घुवाण में खड़े नंदीगण राह रोक रहे हैं। पालने में झूलते बालक की ममता रोक रही है, यही घर-परिवार से मोह नहीं छूट रहा है और पोहो रास्ता देख रहा है। इसी से विलंब हो रहा है।’

लोक अपने आत्मीय जन को मंदिर तक पहुँचाकर पुन: अपने घर आ जाते हैं। तीर्थ जाने वाले लोग रात को भूमि पर या चटाई पर सोते हैं और भोर होते ही तैयार हो जाते हैं। इस दिन लोग मंदिर पहुँचकर यात्रियों को गाँव से विदाई देते हैं। तीर्थयात्रा में कैसे कष्ट हो सकते हैं, इसकी जानकारी एक रात में ही मंदिर में भूमि पर सोने से मिल जाती है। जो लोग दृढ़ निश्चयी नहीं होते या आराम पसंद हैं, वे अपने गाँव से निकलकर ओंकार महाराज के दर्शन करके तुरंत वापस गाँव लौट आते हैं। गाँव से विदा लेने के बाद तीर्थयात्रियों को तीर्थवासी शब्द से संबोधित किया जाता है।

घर वालों को तीर्थयात्रियों की याद आती है तो उनके घर की महिलाएँ तीरथ गीत गाकर अपने मन को समझा लेती हैं—

सोन्ना रूप्पाऽ की बाई थारी भायरीऽ

या भायरीऽ काईऽ कव्हायऽ?

हमाराऽ दादाजी मांयऽ तीरथऽ गयाऽ

या भायरी मारगऽ झड़ायऽ

हीरा मोती की बाई थारी छाबड़ीऽ

चा छाबड़ी काईऽ कव्हायऽ?

हमारा पिताजी माताऽ तीरथऽ गयाऽ

या छाबड़ी फूलड़ाऽ धरायाऽ

भावार्थ : हे बहन, सोने-चाँदी की यह झाड़ू किस काम की है? तब बहन कहती है कि मेरे आजा दाजी और आजी माँय तीरथ यात्रा को गए हैं। मैं इस झाड़ू से मार्ग झाड़ूँगी, ताकि उन्हें भी कंटक विहीन मार्ग मिले। हे बहन! हीरे-मोती से गठी यह छाबड़ी किस काम की है? बहन कहती हैं कि मेरे माता-पिता तीरथ गए हैं, इस छाबड़ी को भरकर फूल लाकर मार्ग में डालूँगी, ताकि उनके मार्ग फूल जैसे कोमल हों जाएँ।

तीरथवासियों को घर से निकले बहुत दिन हो गए हैं। परिवारजन अनुमान लगाते हैं कि जब आम का पौधा लगाकर गए थे, अब उस वृक्ष में कैरियाँ लग रही हैं, गाय के बछड़ा-बछिया होने के बाद गए थे, अब गोवंश इतना बढ़ गया है कि गोठान में नहीं समा रहा है आदि। बिंबों के माध्यम से कालगणना के एक अद्भुत गीत के अंश—

तीरथऽ वासीऽ तिरवेणी असनानऽ तोऽ

           अँवऽ घरऽ आओ तीरथऽ वासीऽ

नानो सो अम्बोऽ खेतऽ मेढ़ड गाड़ी गयाऽ

तेऽ कीऽ ते कैरी लटालूमऽ तोऽ

           अँवऽ घरऽ आओ तीरथऽ वासीऽ

नानो सो चम्पो अँगणऽ लगई गयाऽ

तेऽ की ते डाळऽ गई गुजरातऽ तो

          अँवऽ तोऽ घरऽ आओ तीरथऽ वासीऽ

भावार्थ : हे तीरथवासियो! अब तक तो आपने पवित्र त्रिवेणी में स्नान कर लिया होगा। देव दर्शन भी कर लिए होंगे। अब आप घर लौट आइए। आपने खेत की मेंड़ पर आम का जो छोटा सा रोपा लगाया था, वो अब वृक्ष हो गया है और उसमें लटालूम कैरियाँ लगने लगी हैं। हे तीरथवासी! आप जल्दी घर वापस आ जाओ। हे तीरथवासी! आपने घर के आँगन में जो चंपा का पौधा लगाया था, वह इतना बड़ा हो गया है कि उसकी डालियाँ गुजरात तक पहुँच गई हैं। हे तीरथवासी! आप जल्दी घर वापस आ जाओ। आपने गोठान में जो छोटी-सी बछिया छोड़ी थीं, उसके जाये (बछड़े, बैल, गाय) इतने बड़े हो गए हैं कि गोठान और बक्खर में नहीं समा रहे हैं। हे तीरथवासी! आप जल्दी घर वापस आ जाओ।

घर-परिवार के लोगों को जितनी याद अपने तीरथवासी परिवारजनों की आती है, उतनी ही याद तीरथवासी भी अपने परिवार की करते हैं। ये भाव जब मातु गंगा के दर्शन होते हैं, तब और भी आवेग से फूट पड़ते हैं। गंगा में उन्हें सतत प्रवाहिनी ममता की छबि दीखती है—

ओ देवी गंगा वयऽ हो सुरंगाऽ

तो थारी झब्बरऽ म्हारो निरमळऽ अंगऽ

गंगा का लह्यर चढ़ाओ रे कापऽ

तो आई मिलऽ नऽ म्हारो समरथऽ बापऽ

गंगा की लह्यर ढाको रे साड़ीऽ

तो आई मिलऽ नऽ म्हारी मयाळू माड़ी

भावार्थ : हे देवी गंगा! तुम बड़ी सुहावनी बह रही हो। तुम्हारी झब्बर लहर-लहर के स्पर्श से मेरा अंग तो निर्मल हो गया है और मेरा मन आह्ल‍ादित हो उठा है। हे माता! तुम्हारे दर्शन से मेरा मन मेरे परिवार में पहुँच गया है। हे देवी गंगा! मैं आपकी लहर-लहर को कपड़ा चढ़ाऊँगी, तुम मुझे अपने पिता से मिलवा दो। हे देवी गंगा! तुम बड़ी निर्मल होकर बह रही हो, तुम्हारी लहर-लहर को मैं साड़ी ओढ़ाऊँगी। हे ममतामयी! तुम प्रसन्न हो माँ और मुझे मेरी माँ से मिलवा दो।

तीर्थस्थल भक्ति और आराधना के पुरातन जाग्रत् स्थल हैं। इन स्थलों पर अनंत काल से देव आराधना, जप-तप साधना, भजन-कीर्तन किए जाते रहे हैं। इन स्थानों पर देवाकर्षण की भावमय तरंगें तरंगित होती हैं। इन स्थानों से व्यक्ति भक्ति की धारा में बह जाता है। कई व्यक्ति ऐसे होते थे कि वे मानते थे कि अब संसार के माया-मोह में पुन: नहीं लौटते, और वे अपने मन को ईश्वर में लीन कर तीर्थों में ही रुक जाते थे। किंतु जब तीरथवासियों की कोई सूचना नहीं मिलती थे तो उनके परिवारजनों को चिंता होती थी। महिलाओं के करुण स्वर फूट पड़ते थे—

तू काँ रे लोभाण्यो म्हार तीरथऽ वासीऽ

          तीरथऽ करी नऽ बेगो आवऽ

काई रे वीरा तूऽ पुरी मऽ लोभाण्यो

जगन्नाथ स्वामी को भातऽ तुखऽ भायोऽ

कि तू समुंदर की लह्यर मऽ बिलमाण्यो

        तीरथऽ करी नऽ बेगो आवऽ

काई रे वीरा तू रामेश्वर मंऽ लोभाण्या

शंकर की पिण्डीट मंऽ रमाण्यो

कि रे इक्कीस वावड़ी मंऽ बिलमाण्योऽ

        तीरथऽ करी नऽ बेगो आवऽ

भावार्थ : हे मेरे तीरथवासी वीरा (भाई)! तू किस और लोभ में आ गया। तुझे तीर्थ में किसने रमा लिया? तू तीर्थ कर जल्दी से घर लौट आ। हे वीरा, क्या तुझे जगन्नाथपुरी बहुत भा गई या जगन्नाथजी का प्रसाद अधिक स्वादिष्ट लगा या समुद्र की लहरों में रम गया? हे वीरा! क्या तू रामेश्वरम् धाम में रम गया है? क्या तुझे शिवजी की पिंडी ने लुभा लिया है या इक्कीस कुओं के स्नान ने तेरा मन रमा लिया? हे वीरा! तू तीर्थ कर घर जल्दी से लौटकर आ जा।

आज जब लोग अपने-पराए, देश-विदेश के पल-पल के समाचार रखते हैं, तब उस काल में कोई व्यक्ति घर से बहुत दूर अनजान स्थानों से होते हुए तीर्थयात्रा पर गया और उसके लौटकर आने की कोई निश्चित कालावधि नहीं रहती थी, तो सूचना संप्रेषण का माध्यम आत्मिक बल ही हुआ करता था। तब तीर्थयात्रियों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती थी, इस समय में निमाड़ में प्रचलित तीरथ गीतों को बिछोह के करुण गीतों की उपमा दें तो अत्युक्ति नहीं होगी। कल्पना कीजिए, जिस परिवार का एक युवा सदस्य, जो घर की धुरी है, तीर्थयात्रा पर जाता है, तब उस घर की स्थिति कैसी होती है। मार्मिक भावों से भरे तीरथ गीतों को सुनते ही आँखें नम हो जाती हैं। मन तड़प उठता है जब स्मृतियों का ज्वार उफन पड़ता है। परिवारजन अपनी विवशता दरशाते हैं कि हमने न तो बाहर की दुनिया में कदम रखा, हमारे लिए तो घर की दहलीज पर्वत जैसी और आँगन दूसरे मुल्क जैसा है—

ढेळ तो परवत भई, नऽ अँगणों भयो परदेशऽ

म्हारा वीराऽ रेऽ तीरथऽ करीऽ नऽ बेगो आवऽ

कचेरी बसन्त थारा पिताजी झूरऽ

हिण्डोळाऽ झूलन्ती थारी माँयऽ म्हारा वीराऽ रेऽ

तीरथऽ करीऽ नऽ बेगो आवऽ

फृतळ्या खेलन्ताऽ थारा बाळऽ गोपाल झूरऽ

राँधणी मंऽ झूरऽ थारीऽ नारऽ म्हारा वीराऽ रेऽ

भावार्थ :  हे हमारे भाई! हमारे पुत्र, हमारे लिए तो घर की ढेल पर्वत जैसी ऊँची कठिन है और आँगन ऐसा है, मानो परदेश हो। हे हमारे सगे! तू तीरथ करके घर जल्दी लौट आ। कचहरी (घर का मुख्य बैठक कक्ष, जिसमें अतिथि आते हैं) में बैठने वाले तेरे पिताजी तेरी याद में भीतर ही भीतर घुल रहे हैं। ऐसी ही स्थिति झूले पर झूलने वाली तेरी माता की हो रही है। तू जल्दी से तीर्थ कर घर लौट आ। खेल-खिलौनों से खेलने वाले तेरे बाल-गोपाल भीतर ही भीतर तेरी याद में रंज रहे हैं। तेरी पत्नी चूल्हा-चौका (रसोई) करते-करते तेरी प्रतीक्षा में घुट रही है।

यादों की कितनी विचित्र पीर है। मन कुलबुला उठता है, याद कैसी सताती जाती है, लोकगीतों में आए इन शब्दों का कोई पर्याय नहीं है। वह गहन पीर तो केवल भावाभिव्यक्ति है। जो संवेदनशील है, वह उस दु:ख को परानुभूत कर लेता है।

तीर्थस्थानों के आनंद और उनके कृपापूर्ण वातावरण में आस्थावान तीरथवासी ऐसा रम जाता है कि उसे किसी बात की चिंता नहीं रहती। वह सांसारिक घटनाओं से बाहर निकल आता है। जब तक मन उस तीर्थ में लगा, तब तक वहीं ठहर जाते हैं। तीरथवासी के संदेश कभी-कभी उनके गाँव तक पहुँच जाते थे। जैसे किसी आस-पास के गाँव के तीर्थ यात्री लौट रहे हैं तो वे उस रुके हुए यात्री के कुशल-मंगल का समाचार उसके गाँव-घर तक पहुँचा देते थे।

तीर्थया˜ææ संपन्न करके गाँव में आगमन

निमाड़ के लोक की प्रबल आस्था है कि कितने ही तीरथ कर लो, किंतु रेवा मैया में स्नान करने के बाद ओंकार महाराज को जल नहीं चढ़ाया, तो तीरथ यात्रा पूर्ण नहीं मानी जाएगी। गाँव के, कुटुंब के लोग उन्हें ओंकारेश्वर में लेने आते हैं। भोर होते ही पूरा गाँव ढोल और परात की थाप पर गाते हुए तीरथवासियों को लेने जाते हैं। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीत का उदार भाव देखिए कि गाँव के सभी वर्ग के लोगों को ससम्मान बुलाया गया है।—

बद्रीनाथ देव नऽ हुकुमा करीऽ रजाभरी

चारई धामऽ का देवऽ नंऽ नऽ रजाभरी

तूऽ रे तीरथऽवासी बेगो घर जावऽ

धोया धड़ऽ आया रे तीरथऽ वासीऽ

           हुई रहीऽ जय जयऽ कारऽ

तूऽरे बजाज्या भाई बेगो आओऽ

लई आऽ रे मसरू का थानऽ

पोहाऽ खऽ चूँदड़ऽ ओढ़ाओ

           हुई रही जय जयऽ कारऽ

भावार्थ : चारों धामों की यात्रा कर चुके तीरथवासियों से चारों धाम के देवताओं ने कहा, हे तीरथवासी भाइयो! हम प्रसन्न हैं, तुम्हारी भक्ति से। हम तुम्हें अपने घर लौट जाने की अनुमति देते हैं। गाँव की सीमा पर तीरथवासी पहुँच गए हैं। हे बजाज भाई! तू मसरू के कपड़ों के थान और काप लेकर आ जा। हम सभी तीरथवासियों को नए वस्त्र भेंट ओढ़ाएँगे।

प्रात:काल सब लोग तीरथयात्रियों को बधाकर, उनको कुंकुम-अक्षत लगाकर आरती उतारते हैं और बधावा गीत गाते हुए घर लाते हैं। उनके घर की ओर के मार्ग में लोग तीरथयात्रियों के चरण धुलाते हैं, चरणों पर कुंकुम-हल्दी लगाते हैं। उन पर पुष्पवर्षा भी करते हैं। कुछ लोग तीरथयात्रियों पर छत्र लगाकर उनको अपने घर भी ले जाते हैं। उनके स्वयं के घर पहुँचने पर तो हर्ष का अलग ही वातावरण हो जाता है।

शुभागमन के इस अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में तीरथ और तीरथयात्रियों की महिमा और उनकी अंगकांति का वर्णन मिलता है—

झारीऽ मंऽ को गंगा जळऽ झळकऽ रह्योऽ

जळऽ झळकऽ रह्यो रे हिवड़ो हरकऽ रह्योऽ

थारी साँवळई मूरतऽ मुरझाये रेऽ

भावार्थ : तीरथवासी तीर्थयात्रा संपन्न करके गाँव लौट आए हैं। उनके हाथ में गंगाजल से भरी झारी है। इस झारी से जल छलक रहा है। हे तीरथवासी! देवदर्शन करने से तेरे शरीर में देवत्व का वास हो गया है। तेरा शरीर कांतिवान हो गया है। 

तीरथवासियों के घरों और अड़ोस-पड़ोस में कई महीनों तक आनंद का वातावरण रहता है। उन दिनों सूचना-संप्रेषण के साधन विरल थे। जैसे-जैसे लोगों को पता चलता था कि तीरथवासी लौट आए हैं तो उनसे मिलने आते रहते थे। तीरथवासियों के घर लौटने पर ऐसा वातावरण रहता था, जैसे उनका पुनर्जन्म हो गया हो। नाते-रिश्तेदार मिलने आते हैं और उनको वस्त्र भेंट करते हैं।

नित्य रात्रि, तीरथवासी जब यात्रा पर रहते हैं, तब उनके घर तीरथ के गीत गाए जाते हैं। अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदारी आदि गाँव की कई महिलाएँ गीत गाने के लिए आती हैं। सभी मिलकर ये पारंपरिक लोकगीत गाते हैं। गीत गाने के लिए आने वालियों को प्रसाद में जुवार की धानी या सेंगळई (मूँगफली) उनके आँचल में दी जाती है।

गंगा-पूजन

निमाड़ में गंगा-पूजन का भी बड़ा माहात्म्य है। बदरीनाथ स्वामी जाने वाले तीर्थयात्री गंगोत्तरी और यमुनोत्तरी के दर्शन भी करते हैं। गंगोत्तरी से गंगाजल लाते हैं। जिसमें से जल से भरी एक झारी तो रामेश्वरम् धाम में चढ़ाते हैं, जबकि कुछ अन्य झारियाँ वे अपने-अपने गाँव लाते हैं। अपने गाँव, फिर परगाँव के लोगों को और संबंधियों को बाँटने योग्य बड़ी मात्रा में जल लाना तो संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में एक विधान है गंगा पूजन का। गंगाजल की झारी से जल को गाँव के कुएँ या सरोवर में डालकर, घड़ों में भर दिया जाता है। सुहासिन अपने सिरों पर इन घड़ों को रखकर जलस्रोत से घर तक लाती हैं। सभी लोग पंक्तियों में बैठ जाते हैं, फिर सभी को कुंकुम लगाकर दक्षिणा देकर घड़ों में से जल को निकाल कर सभी लोगों में वितरित किया जाता है। सभी बड़ी श्रद्धा से अपने हाथों में जल लेकर पी लेते हैं।

तीर्थयात्रा देश की अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखती है। देश की सामाजिक-सांस्कृतिक-आध्यात्मिक संरचना को सुदृढ़ करती है। यह भारतवासियों को एक सूत्र में बाँधने का मूल मंत्र है। तीर्थयात्रा की परंपराओं को देश के हर क्षेत्र की लोकसंस्कृति प्रभावित करती है और इन तीर्थयात्राओं से बहुत कुछ ग्राह्य‍ करके ये लोक संस्कृतियाँ समृद्धतर होती जाती हैं। लोकसंस्कृति की आत्मा लोकगीतों, लोककथाओं, लोक-कलाओं और प्रथाओं में बसती है। यही कारण है कि सहस्रों वर्षों से अगाध श्रद्धा से ओतप्रोत तीर्थयात्रा की परंपरा का पोषण लोकसंस्कृति करती आ रही है।

 

बँगला नं.-१९, एच.पी. नगर ईस्ट,
वासी नाका, माहौल रोड,
चेंबूर, मुंबई-४०००७४ (महा.)

दूरभाष ः ९८१९५४९९८४

 

 

लोक-साहित्य

भोजपुरी लोकगीतों में मानवीय संवेदना

l ऋता शुक्ल

âéÂýçâh ·¤Íæ·¤æÚUÐ Ò¥L¢¤ÏÌèÓ, Ò΢àæÓ, Ò¥ç‚ïÙÂßüÓ, Òâ×æÏæÙUÓ, ÒÕæ¡Ïæð Ù Ùæß §â ÆUæ¡ßÓ, Òàæðá»æÍæÓ, Ò·¤çÙcïÆUæ ©¡U»Üè ·¤æ ÂæÂÓ, Òç·¤ÌÙð ÁÙ× ßñÎðãUèÓ, Ò·¤æâæð´ ·¤ãUæð´ ×ñ´ ÎÚUçÎØæÓ ÌÍæ Ò×æÙéâ ÌÙÓ ·ë¤çÌØæ¡ ¿ç¿üÌÐ Ò·ý¤æñ´¿ßÏ ÌÍæ ¥‹Ø ·¤ãUæçÙØæ¡Ó ·ë¤çÌ ÖæÚUÌèØ ™ææÙÂèÆU mæÚUæ ÂéÚUS·ë¤ÌÐ §â·ð¤ ¥Üæßæ Üæð·¤Öêcæ‡æ â×æÙ ¥æçÎ çßçàæcïÅU ÂéÚUS·¤æÚUæð´ âð â×æçÙÌÐ

जपुरी लोक-साहित्य उस क्षीरसागर की तरह है, जिसकी रसमयता कभी कम नहीं हो सकती। स्मरण करें हमारी उन पुरखिनों का, मातृसत्तात्मक समाज में श्रेष्ठ पद प्राप्त करने वाली उन ऋषिकाओं का, जो अपनी शिशु-परंपरा का संरक्षण-संवर्धन करती हुई, लोकगीतों का अमृतरस घोलती पूरे परिवेश को मंगलमय करती होंगी।

लोकपरंपरा के उन्मेष की गाथाएँ रचने वाली सहज मानवीय भावना उस गंगोत्तरी की तरह है, जिसे सुमधुर गीतधर्मिता के साथ अपनी कंठध्वनि में सहेजती न जाने कितनी मातामहियों, पितामहियों ने अपने दिव्य मनोलोक से इस धरती पर उतारा होगा।

लोकमंगल विद्यायिनी इस लोकगीत गंगा में मनुष्य के हर्ष-विषाद, जीवनोत्सव के अलभ्य अनुभवों की इंद्रधनुषी आभा का विस्तार है। मानवजीवन में रसधर्मिता के संस्कार भरने वाले भोजपुरी लोकगीतों में सृष्टि के वे समग्र उपादान संरक्षित हैं, जिन्हें जिजीविषा की प्राणशिरा के रूप में स्वीकार किया गया है।

भारतीय लोक-संस्कृति के सभी अंगों को भोजपुरी लोकगीतों की अनहदता में बड़ी विशदता के साथ सहेजा गया है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, दार्शनिक, प्राकृतिक, देशप्रेम और सौंदर्यानुभूति से भरे ये गीत चेतना में नई उमंगों की उद्भावना करने वाले हैं।

समाज के बिना मनुष्य का जीवन अपूर्ण है। भोजपुर के सामाजिक संस्कारों में लोकगीतों के मानवीय पक्ष का सौंदर्य अप्रतिम है। भारतीय सनातन संस्कृति में हमारे जीवन से जुड़े हुए प्रत्येक संदर्भ की विशेष उत्सवधर्मिता है। घर, परिवार में नव-संतति के जन्म का उछाह है। मायका, ससुराल—दोनों ही परिवारों के सदस्य और पूरा समाज उस आनंद पर्व में सम्मिलित है। नाई यह शुभ संदेश घर-घर पहुँचाता है। प्रिय पाहुन मानकर उसका यथोचित सत्कार किया जाता है। पंडित प्रवर नवजात की लग्नपत्रिका का शोध करते हैं। रँगरेज नई धोती और चुनरी लाता है। बढ़ई सुंदर पीढ़ा, पालना गढ़ता है। माली फूलों के हार गूँथकर लाता है। पूरा परिवेश आनंदमय हो उठता है।

सोहर के बोल बड़े सुहावन, मनभावन लगते हैं—

कहँवा से आवे रेशम धोतिया

त धोतिया सोहावन लागे जी।

ललना कहँवा से आवे चुनरिया,

चुनरिया मनभावन लागे जी।

पटहेरिया लावे रेशम धोतिया,

रँगरेज चुनरिया नु जी।

ए सासुजी, अम्मा मोरी भेजेली चुनरिया,

चुनरिया मनभावन लागे जी!

गाँव-जवार के सबलोग प्रमुदित भाव से बेटी के लिए सौगात सजाते हैं। गाँव की बेटी, सबकी बेटी—यह सात्त्विक भावना ही भारतीय संस्कृति की मूलाधार है।

राधा-कृष्ण, सीता-राम जैसी पावन अस्मिताएँ, वात्सल्य रस में पगी हुई कौशल्या, देवकी, यशोदा जैसी माताएँ और न जाने कितने ही दिव्य पुरुष-स्त्री अपनी समस्त मानवीय ऊर्जस्विता के साथ भोजपुरी लोकगीतों के उपजीव्य बने हैं। परस्पर अनुराग की मूल्यवत्ता, संबंधों की मधुरता सुख-दुःख में एक साथ रहने का करुणा भाव
भोजपुर जनपद की चेतना का अमृतत्व यही अकूत मानवीय संवेदना ही तो है।

भोजपुर जनपद का इतिहास श्रमशीलता की महत्ता से ओत-प्रोत है। अंग्रेजों के निष्ठुर शासन काल में आरा, छपरा, बलिया, बनारस आदि प्रमुख नगरों से श्रमशील युवकों की टोली को पानी के जहाज से भर-भरकर अज्ञात स्थानों पर मेहनत-मजदूरी के लिए भेजा गया था। हमारे उन पुरखों, पुरखिनों के साथ तुलसी का पौधा, रामचरितमानस की पोथी और कुछ सपनों की धरोहर थी। हाड़तोड़ परिश्रम और असीमित धैर्य के साथ उन्होंने सागर-तट के निर्जन क्षेत्रों को अपने रक्त से सींचकर उर्वर बनाया और अंग्रेजों का जुल्म सहते हुए भी अपनी जिजीविषा को कायम रखा।

मॉरीशस, गुयाना, ट्रिनिडाड, सूरीनाम, केन्या जैसे देशों में भोजपुरी लोकगीतों का बड़ा महत्त्व है। भोजपुरिया माटी की सोंधी सुगंध में रचे-बसे गीत इन भारतवंशियों के लिए सबसे बड़ी सांस्कृतिक धरोहर है। गंगा, यमुना, सरयू, सोन, गंडक जैसी नदियों, आरा, बनारस, मिर्जापुर, छपरा, बक्सर जैसे शहरों से जुड़ी स्मृतियाँ वहाँ के लोकमानस में संजीवनी शक्ति बनकर सुरक्षित हैं। अनंत ऊर्जा का अक्षय स्रोत सँजोने वाले सूर्योपासना व्रत के लिए विश्वप्रसिद्ध भोजपुर जनपद का वैदिक काल से भरपूर उल्लास के साथ मनाया जाने वाला एक ऐसा पवित्र पर्व है, जो तीन दिनों के निर्जल व्रत के साथ सांध्यकालीन सूर्य को अर्घ्य देने और प्रभातकालीन उगते हुए सूर्य की मनुहार करने में व्यतीत होता है। सूप, दउरा, फल, ठेकुआ, लहठी, सिंदूर, माटी के चूल्हे पर बनाए गए पकवान, देसी घी, कच्चे दूध, गंगाजल से सूर्यदेव का अभिषेक और आँचल पसारकर भुवन-भास्कर की परिक्रमा! जल में कटिप्रदेश तक निमग्न भोजपुर की तिरिया को अपनी सुध कहाँ! न जाने कहाँ से अपार शक्ति हर व्रती महिला के अंग-प्रत्यंग में विराजने लगती है। वनस्पति द्वारा प्रदत्त प्रत्येक नैसर्गिक उपहार की डाली सूर्य भगवान् के लिए। उनका ताप है तो जीवन है, उनकी सप्तरश्मियों की छुअन है तो सृष्टि के कण-कण में चेतनता है।

 

भोजपुरी छठगीतों की लयात्मकता, सुरम्यता और मोहकता में मानवीय करुणा की सहज दीप्ति है। एक पारंपरिक छठगीत है—

लाली खड़उँवा ए दीनानाथ पियर जनेव

कहँवा लगवल ए दीनानाथ अतनी अबेर

बीचे रहतिया ए सेवका अन्हरा भेंटाय

आँखि पलटवइत ए सेवका भइले अति देर

बीचे रहतिया ए सेवका कोढ़िया भेंटाय

काया पलटवइत ए सेवका भइले अति देर

बीचे रहतिया ए सेवका बाँझिनि भेंटाय

कोख पलटवइत ए सेवका भइले अति बेर...

लाल रंग की खड़ाऊँ और पीले रंग का यज्ञोपवीत पहनकर सूर्य भगवान् पूर्व दिशा में खड़े हैं। छठ व्रती महिला पूछती है—‘हे दीनानाथ, अर्घ्य देने का समय हो गया है, इतना विलंब क्यों?’

सूर्य भगवान् उत्तर देते हैं—‘बीच मार्ग में एक अंधा व्यक्ति मिला, उसकी प्रार्थना पर उसे आँखों की दीप्ति देनी थी। एक कुष्ठ रोगी मिला, उसकी चिरौरी पर उसे स्वस्थ काया देनी थी। एक निःसंतान महिला मिली, उसे संतान का वरदान देना था। इसी कारण से विलंब हुआ।’

अथर्ववेद में सूर्य की किरणों के स्पर्श से असाध्य रोगों के उपचार की सत्यता सिद्ध की गई है—ज्योगव दृशेम सूर्य्यम्!

सूर्य पूरे विश्व की भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का मूल स्रोत है। वे विसर्गमूलक जाग्रत् देवता हैं, जो त्याग सिखाते हैं। उनकी रश्मियाँ कोई भी भेदभाव नहीं जानतीं।

भोजपुरी लोकगीतों की राजनैतिक चेतना के सूत्र मानवीय संवेदनाओं से निर्मित हैं। फिरंगियों के क्रूर शासनकाल में राष्ट्रवैभव की उन्मुक्त अभिव्यक्ति देने वाले रघुवीर नारायण सिंह के बटोहिया गीत को भोजपुरी के राष्ट्रगीत का गौरव प्राप्त है। भारत की प्रकृति, संस्कृति, कला, साहित्य और शौर्य की सुंदर गाथा से भरी इस अनमोल रचना को लोक-चेतना का संपूर्ण समादर प्राप्त है—

सुंदर सुभूमि भइया, भारत के देसवा से

मोरे प्रान बसे हिम खोहरे बटोहियाऽ...!

लगभग इसी तर्ज पर लिखा गया प्रिंसिपल मनोरंजन प्रसाद सिंह का ‘फिरंगिया’ गीत अंग्रेजों के अत्याचार का भयावह दृश्य सामने रखता है—

सुंदर सुघर भूमि भारत के रहे रामा

आजु इहे भइल मसान रे फिरंगिया!

इस मार्मिक गीत में भारत देश के लिए स्वराज की गोहार लगाई गई है। अंग्रेज राज के समय देश की दुर्दशा का चित्र अनेक लोकगीतों में मिलता है—

आइल अँगरेज के जमनवाँ

गुजर कइसे होई सजनवा

भारतमाता खड़ी पुकारेली

जाग हो देस के ललनवा!

भारतीय लोकमानस की समष्टि चेतना को संपूर्ण उत्सवधर्मिता के साथ उजागर करने वाले लोकगीतों की मलय सुरभि सबके मन-प्राणों को अनुप्राणित करती है। इन लोकगीतों का समाज ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की अनुभूति से ओत-प्रोत है। संयुक्त परिवार की व्यवस्था में परस्पर सहयोग की भावना, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन के अतिरिक्त ननद-भावज, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी, पति-पत्नी और गाँव-समाज से जुड़े सभी संबंधों के सम्यक् निर्वाह की मानसिकता के दुर्लभ चित्र भोजपुरिया संस्कृति के वैशिष्ट्य को प्रस्तुत करते हैं। बेटी के विवाह का एक दृश्य देखें। गाँव में बसने वाले सभी लोगों का कन्या के विवाह में उत्साहपूर्ण सहयोग मिलता है—

तेलिन ले आवेली तेल

तमोलिनी पान-फूल हो

मालिन ले आवेली गजरा

धिया के पहिरावेली हो...

बढ़ई गढ़ेला पलंगिया

रँगरेज रँगे चुनरी हो

पंडित लावेले पोथिया

त धोबिन सोहाग देबे हो...!

तेली की पत्नी तेल लाकर देती है, तमोलिन पान-फूल लाती है, मालिन हार और गजरा ले आती है, तब कन्या का शृंगार होता है। बढ़ई पलंग गढ़ता है, रँगरेज लाल टहकार चुनरी रँगता है। पंडित पोथी लेकर आते हैं। धोबिन बेटी को सोहाग देती है।

बेटी की माँ और घर-परिवार की, गाँव-जवार की बड़ी-बूढ़ियाँ विदाई के समय आशीष देती हैं और साथ-ही-साथ उचित-अनुचित की सीख भी देती हैं कि अपनी कोमलता और सहिष्णुता से ससुराल में सबका मन जीत लेना। यदि कोई किसी बात का उलाहना भी दे तो हँसकर टाल देना—

सासु-ननद बेटी ओरहन दीहें,

ले लीह अँचरा पसारी जी!

परिवार यदि मनुष्य की पहली पाठशाला है तो माँ उस पाठशाला की प्रथम गुरु। शुभ्र संवेदना और अनुशासन की छुअन देकर वह अपनी संतान को सुदक्ष बनाती है। भोजपुरी लोकगीतों में वृद्ध माता-पिता के लिए अपार श्रद्धा और सेवाभाव देखा जा सकता है—

सभवा बइठन के ससुर माँगिले

मचिया बइठन के सासु ए छठि मइया...

छठ माता, सूर्यदेव से व्रती स्त्री माँगती है कि सभा में पाग बाँधकर बैठने वाले, परिवार का शुभचिंतन करने वाले मेरे श्वसुर को हमेशा स्वस्थ, दीर्घायु बनाए रखें। मचिया पर बैठी मेरी सासु माँ का अनुशासन भरा प्यार कभी मुझसे दूर नहीं हो!

वृद्धाश्रम की राह बताने वाली पुत्रवधुओं को सबक सिखाने वाले इस छठ लोकगीत की सार्थकता हर युग में रहेगी। घर का कोई भी आनंद-पर्व सास, ननद, जिठानी के बिना अधूरा रहता है—

सासु के भेजबो नउनिया

ननद के बारिनिया नु हो

गोतिनी के रउरे प्रभु जाईं

हम ही गोतिनी पाइंचि

सासु माँ को संदेशवाहिका ठकुराइन भेजकर बुलाना है, ननद के लिए बारिन जाएगी। गोतिनी को लाने के लिए विशेष आदरभाव के साथ पति स्वयं जाएँगे।

परस्पर सौम्यता और मधुरता ही भोजपुर की सांस्कृतिक विशिष्टता है। किसी भी मंगल कार्य के पूर्व मातृ-पितृ पक्ष के पूर्वजों के आह्व‍ान-पूजन की परंपरा है—

पूजेली बाबाजी के पाँव

सुदिनवा के जनमल हो

पूजेली आजी के पाँव

त पितर मनाइलें

मनुष्य की जीवन-यात्रा में आर्थिक पक्ष का बड़ा योगदान है। जन्म से लेकर मृत्यु तक भौतिकता के उपादानों की आवश्यकता सबको होती है। धन अर्जित करना भी एक लक्ष्य है।

गाँव-घर में धन का अभाव है। नववधू का कष्ट देखकर उसका पति उसे प्रबोध देता है—

हम जइबो पूरुब बनिजिया

दरब लेइ आइब

जनि रोव ए धनि, जनि रोव

कलप मिटावहु,

हम जइबो राजा के नोकरिया

त धन लेइ आइब...!

तुम मत रोओ! मैं व्यापार करने के लिए पूरब जाऊँगा, राजा की चाकरी करूँगा और यथेष्ट धन लेकर गाँव लौटूँगा।

भोजपुर जनपद श्रमशीलता को अपना पुरुषार्थ मानता है। ईमानदारी से कमाया गया धन-वैभव उसे सुख-शांति दे सकता है। भोजपुर का पुरुष-समाज अपनी भुजाओं की अथाह शक्ति और बुद्धिबल में भरोसा रखता है। खेत, खलिहान हों या गाँव के बाहर आजीविका का कोई भी सम्मानजनक सुयोग मिले, भोजपुर के लोग अपनी श्रमशीलता सिद्ध करने में नहीं चूकते। एक लोकगीत में पत्नी चिंता व्यक्त करती है—

राजा हो रिमझिम बदरा बरिसे

नोकरी कइसे जइब हो...।

पति उत्तर देता है—

रानी हो, मुखे रुमलिया, हाथ छतरिया,

धीरे-धीरे चलि जइबो,

साहेब तलब कहिहें ना।

सब प्रकार का अन्न उपजाने में कुशल भोजपुर का कृषक समाज कठिन परिश्रम से देश की आर्थिक उन्नति में अपनी साझेदारी निभाता है। उसी किसान के घर बेटी ब्याहने का रिवाज था, जिसकी खलिहान अनाज से भरी हो, जिसके घर में दुधारू गौमाता हो। किसी भी जाति या वर्ग का मनुष्य हो, कृषि संपदा ही उसकी संपन्नता का प्रतीक मानी जाती है। परस्पर सुख-दुःख में यथासाध्य आर्थिक सहयोग करना भी भोजपुर की संस्कृति का अनिवार्य पक्ष है। भोजपुरी लोकगीतों में भूखे को अन्न, फटेहाल को वस्त्र देने के साथ-साथ रोजगार की वृद्धि हेतु उसकी आर्थिक मदद की बात भी कही गई है—

सात घर के चुल्हवा एके में जोरइहें जी

केहु चले पनरह कोस, केहु बीस कोसजी

साँझ बेरा एके छतवा होखेला जेवनार जी!

भले ही सात घर अलग-अलग हैं, लेकिन साँझ ढलते एक ही चूल्हे पर सबकी रसोई पकती है। कोई पंद्रह कोस तो कोई बीस कोस चलकर काम-काज पूरा करे। परिवार-समाज में सबकी साझेदारी बराबर की होती है।

भोजपुरी लोकगीतों का धार्मिक या आध्यात्मिक पक्ष मानवीय संवेदना की दृष्टि से अत्यंत सुदृढ़ है। गणपति, शिव-पार्वती, राम-सीता, कृष्ण-राधा जैसे आराध्य युग्मों से जुड़े मनोहारी गीतों में जीवन की सार्थकता के अंश सन्निहित हैं। भोजपुर के समाज में किसी भी शुभ कार्य का श्रीगणेश देवी मइया के गीत से होता है—

निमिया के डाढ़ मइया लावेली हिंडोलवा कि झूलि-झूलि ना,

मइया गावेली गितिया हो कि झूलि-झूलि ना...

नीम की डाल से लगे झूले में देवीमाँ, शीतला माँ झूला झूल रही हैं। प्यास लगने पर वे मालिन से पानी माँगती हैं। मालिन का नन्हा बालक उसकी गोद में है। मालिन से माता कहती है—

बालक को हिंडोले में सुला दो और मुझे पानी पिलाओ!

मालिन ऐसा ही करती है। जल ग्रहण करने के बाद मालिन की सेवा-भक्ति से प्रसन्न होकर देवी उसे सपरिवार फलने-फूलने का आशीष देती हैं, बालक की रक्षा का वचन देती हैं। शताब्दियों से लोक-कंठ में बसे इस गीत को आज भी हर भोजपुरिया घर में देवीमाँ के प्रति बड़े आदरभाव के साथ गाया जाता है। किसी भी शुभ कार्य का शुभारंभ इसी गीत से होता है। विषपायी शिव के अड़भंगी स्वरूप के बावजूद हर कन्या शिव जैसे पति की कामना करती हुई उनका पूजन करती है। महादेव को मनाना हो तो पकवान नहीं देना है, भाँग-धतूरे से ही वे प्रसन्न हो जाते हैं—

पेड़ा-जलेबी सिव के मन ही ना आवे

भाँग-धतूरा कहाँ पाइब हो,

सिव मानत नाहीं।

भोजपुर की माताएँ अपनी कन्याओं के लिए राम सरीखा वर चाहती हैं—

राम के माथे तिलक भले सोभेला

चंदन सोभेला लिलार भले हो

आवसु राम चउक चढ़ि बइठसु...।

राम के ललाट पर चंदन, दधि, अक्षत का तिलक शोभित है। पीतांबरधारी श्रीराम वर वेश में आसन पर बैठते हैं तो सबका हृदय मोह लेते हैं।

कुल मिलाकर भोजपुरी लोकगीतों का विस्तार उस दुग्ध-सागर की तरह है, जिसकी शुभ्र तरंगों में अवगाहन का सुख अनिर्वचनीय है। लोक-चित्त को मानवीय करुणा से सदैव आर्द्र रखने वाले भोजपुरी लोकगीतों में लोकमंगल का विराट् भाव सुरक्षित है।

‘·हानी’ टैगोर हिल रोड

मोराबादी, राँची-८३४००८

दूरभाष : ९४३११७४३१९

 

 

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