लेह-लद्दाख : बौद्ध संस्कृति का सुरम्य देस

लेह-लद्दाख : बौद्ध संस्कृति का सुरम्य देस

सुपरिचित लेखिका। हिंदी में स्नातक ऑनर्स, एम.ए., एम.फिल., पी-एच.डी., यूजीसी-नेट, बी.एड., एम.एड.। संप्रति शिक्षिका, परिषदीय विद्यालय, उत्तर प्रदेश राज्य सरकार। विभिन्न शोध आलेख, १० से अधिक पुस्तक समीक्षाएँ प्रकाशित और अनेक साहित्य सम्मेलनों में प्रतिभाग।

पर्यटन हमारे शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक माना गया है। यात्राएँ जीवन के अनुभवों के विस्तार के साथ मानव के बौद्धिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। स्वयं जीवन भी एक यात्रा है। प्राचीन समय से ही कवि और मनीषी यात्राओं को महत्त्व देते रहे हैं। पंचतंत्र में अभिव्यक्त है—‘पर्यटन् पृथिवीं सर्वां, गुणान्वेषणतत्परः’ अर्थात् जो गुणों की खोज में अग्रसर हैं, वे संपूर्ण पृथ्वी का भ्रमण करते हैं। अधिकांश लोग इस दृष्टिकोण से देश-विदेश के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण के लिए जाते हैं। समूचा भारतवर्ष पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण, रोमांचक, ऐतिहासिक और मनोहारी स्थलों से भरा हुआ है, परंतु कुछ स्थल ऐसे हैं, जो भौगोलिक स्थिति और मौसम की विषमताओं के कारण साल के कुछ ही महीने यात्रा व पर्यटन हेतु खुले रहते हैं, उन्हीं में से एक है ‘लेह-लद्दाख’, जो कि बौद्ध संस्कृति के विकास के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
स्कूल की छुियों में बच्चों का उत्साह घूमने जाने के लिए विवश कर ही देता है। अतः हमने परिवार के साथ इस अनोखे पर्वतीय क्षेत्र को देखने के लिए जून की छुियों में घूमने का कार्यक्रम बनाया। भारत के सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित शहरों में शुमार लेह-लद्दाख की यात्रा का कार्यक्रम पूर्व निर्धारित नहीं था, मात्र १०-१५ दिन पहले बने यात्रा के कार्यक्रम को लेकर मन में अपार उत्साह एवं अनेक जिज्ञासाएँ थीं। लेह पहुँचने के लिए २-३ विकल्प हैं, जैसे कि दिल्ली से सीधा लेह वायुयान द्वारा या जम्मूतवी तक रेल से, फिर जम्मू से लेह वाया श्रीनगर बस द्वारा या फिर हिमाचल राज्य सड़क परिवहन निगम की सीधी बस सेवा दिल्ली से लेह वाया मनाली/केलांग (मई से जुलाई तक) उपलब्ध होती है।
१४ जून, २०१६ को यात्रा आरंभ करते हुए हम वायुमार्ग से लेह शहर के हवाई अड्डे पहुँचे, जो कि मुख्य नगर से ४ किमी. दूर श्रीनगर रोड पर है। घाटी में स्थित छोटे से सुंदर हवाई अड्डे पर उतरते ही कई प्रकार की स्वास्थ्य जागरूकता संबंधी घोषणाएँ की जा रही थीं, यथा—“आप अत्यधिक ऊँचाई पर हैं, अतः कम-से-कम २४ से ३६ घंटे पूर्ण रूप से आराम करें, तत्पश्चात् ही पर्यटन स्थलों का भ्रमण करें। हवाई अड्डे से टैक्सी द्वारा हम अपने पूर्व तय ठहराव स्थल बीआरओ गेस्ट हाउस पहुँच गए, वहाँ भी हमें पूर्ण आराम की सलाह दी गई। वजह पूछने पर बताया गया कि यहाँ की हवा में ऑक्सीजन की मात्रा काफी कम है, अतः यहाँ आने वाले पर्यटकों को सिरदर्द, चक्कर आना, साँस फूलना जैसे लक्षण दिखाई देना आम है। अतः हमने उस दिन आराम करना उचित समझा।
१५ जून को हमने बौद्ध संस्कृति के प्रतीक ‘हेमिस मठ’ (Hemis monastery) तथा ‘थिकसे मठ’ (Thiksay monastery ) का भ्रमण किया और भगवान् बुद्ध एवं बौद्ध धर्म के बारे में कई अनसुनी जानकारी प्राप्त की। ये दोनों मठ लेह-मनाली मार्ग पर लेह से क्रमश: ५५ एवं ३० किलोमीटर दूर स्थित हैं। यहाँ जाने के लिए निजी वाहन और टैक्सियों का प्रयोग किया जाता है। द्रुक्पा वंश से संबंधित हेमिस मठ की स्थापना ११वीं सदी में स्टैगसंग रास्पा नवांग ग्यात्सो द्वारा की गई थी और बाद में १७वीं सदी में राजा सेंगगे नामग्याल ने इसका पुनर्निर्माण कराया। इसमें भगवान् बुद्ध की ताँबे की धातु से बनी प्रतिमा स्थापित है। यह मठ तिब्बती स्थापत्य शैली में बना धार्मिक विद्यालय है, जिसको धर्म की शिक्षा देने के उद्देश्य से बनाया गया था। इसमें एक पुस्तकालय भी है, जहाँ तिब्बती पुस्तकों का संग्रह है, साथ ही एक संग्रहालय है, जो पर्यटकों के आकर्षण को बढ़ाता है। यह तिब्बती मठों में सबसे धनी मठों में से एक है। समुद्र तल से लगभग ११८०० फीट की ऊँचाई पर स्थित थिकसे मठ का निर्माण १५वीं शताब्दी के मध्य प्लाडन सांगो ने करवाया था। मठ में मैत्रेय बुद्ध की काँसे की बहुत बड़ी मूर्ति है। यहाँ होने वाला थिकसे महोत्सव पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र होता है। इस मठ में एक बड़ा सा स्तंभ है, जिसमें भगवान् बुद्ध द्वारा दिए गए उपदेश व संदेश अंकित हैं। इसी मार्ग पर लेह शहर के नजदीक पर्यटन स्थल शे पैलेश (Shey palace) भी स्थित है।
अगले दिन १६ जून को हमारी योजना श्रीनगर मार्ग पर स्थित दो-तीन दर्शनीय स्थलों के भ्रमण की थी। पहले हम दूरस्थ, दो नदियों सिंधु (Indus) एवं जांस्कर (Zanskar) के संगम स्थल पर गए, यहाँ दोनों नदियों के संगम का बड़ा ही विहंगम दृश्य दिखाई देता है। संगम स्थल पर सैलानी राफ्टिंग का भी आनंद ले सकते हैं। यहाँ पर काफी समय बिताने के बाद हम लौटने लगे और उन स्थलों पर रुके, जिनको वापसी में देखने का प्लान था। पहले हम ‘चुंबकीय पहाड़ी’ (मैग्नेटिक हिल) पर रुके और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध चुंबकीय बल के कारण वाहनों को गतिशील होते देखा, जो कि अपने आप में आश्चर्यजनक लगा। इसके बाद हम ३०० वर्ष पुराने गुरु नानक देव के साधना स्थल ‘गुरुद्वारा पत्थर साहिब’ पहुँचे। नाम के अनुरूप इस गुरुद्वारे में रखे पत्थर में एक मानव आकार की छाप स्पष्ट नजर आती है, जिसके पीछे यह कथा है कि ‘वर्षों पूर्व एक राक्षस ने गुरु नानक देव की साधना भंग करने के लिए ऊँची पहाड़ी की चोटी से एक बड़ा पत्थर गिराया। वह पत्थर गुरु नानक देव के ऊपर गिरा, लेकिन उस पत्थर से नानक साहिब को कोई क्षति नहीं पहुँची, बल्कि पत्थर में स्वतः ही एक मानव आकृति जैसा गड्ढा बन गया, जिससे गुरु नानक देव सुरक्षित रहे।’ मैंने सपरिवार गुरुद्वारे में माथा टेक अरदास की और लंगर प्रसाद ग्रहण किया।
फिर हम अगले पर्यटन स्थल ‘हॉल ऑफ फेम’ तथा ‘सैनिक एडवेंचर पार्क’ पहुँचे। ‘हॉल ऑफ फेम’ भारतीय सैनिकों की याद में बनाया गया बड़ा ही खूबसूरत संग्रहालय है, जो कारगिल मार्ग पर लेह शहर से लगभग ४ किलोमीटर दूर स्थित है। इसमें अलग-अलग समय पर हुए कई युद्धों में भारत की विजय और वीरों की शौर्यगाथा को दरशाया गया है। संग्रहालय में ‘चाइना बॉर्डर’, ‘पाक बॉर्डर’, ‘जोजिला युद्ध’, ‘कारगिल युद्ध’ एवं अन्य लड़ाइयों में हमारे परमवीर सैनिकों के हौसले एवं युद्ध-कौशलों की याद ताजा होती है। एडवेंचर पार्क में सैनिकों के मार्गदर्शन में विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों में आगे बढ़ने, कूदने, रेंगकर चलने आदि के कई एडवेंचर्स का सैलानी, विशेष रूप से युवा और बच्चे आनंद लेते हैं। शाम होने में कुछ समय शेष था तो हम अब लेह शहर में स्थित ‘शांति स्तूप’ की ओर चल दिए। लेह शहर के सर्वोच्च स्थान पर २५ अगस्त, १९८५ को १४वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो के द्वारा इसकी नींव रखी गई थी। कुछ वर्षों पूर्व निर्मित यह भव्य स्तूप बौद्ध धर्म का सुंदर प्रतीक है। यहाँ से लेह शहर तथा लेह से दूरस्थ विभिन्न दर्रों (passes) को दूरबीन की मदद से देखा जा सकता है।
यात्रा के चौथे दिन १७ जून को हमने अधिक दूरस्थ पर्यटन स्थलों को घूमने की योजना बनाई और प्रातः ७:०० बजे ही निकल पड़े। हमारा पहला पड़ाव ‘चांगला पास’ था। बोलेरो गाड़ी में हिलते डुलते हम ४ घंटे बाद ‘चांगला पास’ पहुँचे, यहाँ सर्द हवाएँ चल रही थीं व तापमान शून्य से भी कम था। सड़क के दोनों ओर फैली बर्फ की मोटी चादर के बीच सभी सैलानी नैसर्गिक सौंदर्य का आनंद ले रहे थे। ‘चांगला पास’ समुद्र तल से १७६८८ फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ हवा में ऑक्सीजन की बेहद कमी है, इसलिए सैलानियों को २० से ३० मिनट ही रुकने की सलाह दी जाती है। हम भी यहाँ कुछ मिनट रुके, तसवीरें खीचीं और आगे चल पड़े। रास्ते में आने वाले मनोहारी दृश्यों का आनंद लेते हुए, पर्वतीय जानवरों याक, भेड़ आदि की तसवीरें लेते हुए आगे बढ़ रहे थे कि तभी कुछ आगे हमें बहुत बड़े मरुस्थल का अद्भुत नजारा हुआ। तत्पश्चात् हमने एक नया जंतु ‘पर्वतीय चूहा’ (Marmot) देखा।
मटमैले रंग का खरगोश जैसे आकार वाला यह चूहा इनसानों से दूर ही रहता है, किंतु खाने की चीजें करीब आकर ग्रहण कर लेता है। लगभग ६ घंटे की यात्रा के बाद हम बहु प्रतीक्षित विश्व प्रसिद्ध पर्यटन लक्ष्य ‘पेंगोंग झील’ (Pangong lake) पहुँचे।
लेह से ३१० किलोमीटर दूर पेंगोंग त्सो नाम से देश-विदेश में प्रसिद्ध विशाल झील मानव जाति के लिए प्रकृति का नायाब तोहफा है। यह प्रसिद्ध झील १३४ किलोमीटर लंबे क्षेत्र में फैली है, इसका ४० प्रतिशत भाग (लगभग ४५ किलोमीटर) भारत में और बाकी चीन के अधिकार क्षेत्र में है। नैसर्गिक रूप से सुंदर झीलों में शुमार इस झील के चारों ओर अलग-अलग रंगों के पहाड़ हैं, जिनका पानी में दिखाई पड़ने वाला प्रतिबिंब झील की सुंदरता में चार चाँद लगाता है। यहाँ की मिट्टी में पाए जाने वाले विभिन्न खनिज तत्त्वों के कारण झील के पानी का रंग सामान्य पानी के रंग से अलग है। यहाँ का निर्मल जल कई रंगों में नजर आता है, जैसा कि हमने थ्री ईडिएट फिल्म में देखा था। खारे पानी की यह झील शीत में जम जाती है। झील के किनारे सैलानियों के रात्रि विश्राम अस्थायी तंबुओं के अलावा पास में बसे एक छोटे से गाँव में भी ठहरने की व्यवस्था हो सकती है। अद्वितीय सुंदर और मनोरम स्थल से मन तो नहीं भरा था, परंतु हमें लौटना था, सो कुछ घंटे बिताने के बाद हमने वापसी का रुख किया। प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेते हुए, रुकते-चलते हम अद्भुत झील की यादों के साथ रात्रि ८:०० बजे के करीब गेस्ट हाउस पहुँचे।
१८ जून को पूर्वाह्न‍ में बच्चों की पसंद, लेह शहर के नजदीक ‘ऊँट प्रजनन केंद्र (Camel Breeding Centre)’ और आस-पास की सैर पर जाने का प्लान था। हालाँकि वर्तमान में लेह-लद्दाख में ऊँटों का उपयोग कम ही रह गया है, ऐसे में ऊँटों की इस लुप्त होती प्रजाति को बचाने हेतु सरकार का यह केंद्र सराहनीय कार्य कर रहा है। इस संरक्षण केंद्र पर दो कूबड़ (double hump) वाले और बर्फीले वातावरण में भी स्वस्थ रहने वाले कई ऊँट दिखाई पड़े। विलुप्त होती प्रजाति के ऊँटों के लिए लद्दाख क्षेत्र में बनाए गए इस छोटे से केंद्र में लगभग २०-३० ऊँटों का पालन-पोषण किया जा रहा था।
बच्चों ने यहाँ ऊँट-सवारी का भी थोड़ा सा आनंद लिया, उसके बाद हम स्टोक गोंपा मठ पहुँचे। यहाँ महात्मा बुद्ध की विशालकाय मूर्ति दर्शनीय है, जो कि एक भव्य मंदिर के ऊपर बनी है। इसी के पास बौद्ध धर्म से संबंधित एक संग्रहालय है, जो कि बच्चों को अच्छा लगता है। फिर हम गेस्ट हाउस पहुँचे और लंच के बाद कुछ देर विश्राम किया। दोपहर बाद हम लेह नगर में स्थित स्टेटस गोंपा मठ व काली मंदिर देखने निकले। यह मठ व मंदिर एयरफोर्स कैंप के नजदीक है। ५०-६० सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद बौद्ध धर्म व हिंदू धर्म की साझा संस्कृति से बने इस अद्भुत मंदिर में माँ दुर्गा के कई रूपों के दर्शन होते हैं, जिसमें काली रूप प्रमुख है। संभवत: लेह शहर में हिंदू संस्कृति से संबंधित यह एकमात्र प्राचीन पूजा स्थल है। इस मंदिर में दर्शन-पूजन के पश्चात् हमें एक अद्भुत शांति की अनुभूति हुई। पहाड़ की चोटी पर स्थित इस मंदिर से, पास की घाटी के काफी अच्छे सुंदर नजारे दिखते हैं। मंदिर पर लोगों से बातचीत में पता चला कि नजदीक ही एक शिव मंदिर है, जिसके चारों ओर नैसर्गिक सुंदरता व नदी का अनुपम नजारा है। फिर हम शीघ्र ही शिव मंदिर की ओर निकल पड़े, मात्र ५-७ मिनट की वाहन यात्रा से हम मंदिर के पास पहुँच गए। वहाँ पहुँचते ही सूखे-पथरीले शहर का एक नया हरा-भरा रूप दिखाई दिया। यहाँ भरपूर हरियाली है, हरे-भरे पेड़-पौधे हैं, स्थानीय फसलें भी हैं। हरी-हरी घास से भरा मैदान और पत्थरों के बीच से कल-कल करती नदी के किनारे स्थित शिव मंदिर में आने वाले पर्यटक श्रद्धा भाव से पूजा-अर्चना करते हैं। मंदिर के आसपास के क्षेत्र में हवा में ताजगी लगी और ऑक्सीजन की कमी अनुभव नहीं हुई। मैंने बच्चों के संग नदी में घुसकर फोटो खिंचवाए, प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लिया। यहाँ और अधिक वक्त बिताने का मन था, पर शाम होने के कारण हमें जल्दी ही निकलना पड़ा और गेस्ट हाउस आ गए।
अगला दिन १९ जून, हमारा लेह से प्रस्थान का दिन था। अतः हमने सुबह ही सामान आदि की पैकिंग की और गेस्ट हाउस के मैस में पसंदीदा अल्पाहार व फल आदि का ब्रंच कर गेस्ट हाउस के स्टाफ को अलविदा कहा और श्रीनगर जाने के लिए लेह के सरकारी बस स्टैंड की राह पकड़ी। लेह से श्रीनगर जाने वाली दिन की एकमात्र बस दोपहर को छूटती है। दिन के लगभग २:०० बजे जम्मू कश्मीर राज्य सड़क परिवहन निगम (JKSRTC) की बस (२X२) द्वारा हमारी लेह-कारगिल-श्रीनगर यात्रा शुरू हो गई। पर्वतीय मार्ग से गुजरते हुए हमने पहाड़ों को कई रंग-रूपों में देखा। सड़क के दोनों ओर सुंदर दृश्यों का आनंद लेते हुए, कई छोटे-बड़े शहरों व कस्बों से होते हुए हम देर शाम कारगिल शहर पहुँचे। यहाँ पहुँचते ही करगिल वॉर की यादें ताजा हो उठीं। १९९९ का करगिल युद्ध करीब-करीब दो महीने चला था। इस युद्ध में अपने शौर्य और पराक्रम से भारतीय सेना ने पाकिस्तानी फौजियों को खदेड़ दिया था और युद्ध जीतकर २६ जुलाई, १९९९ को दुर्गम चोटियों पर तिरंगा फहराया था। २६ जुलाई का दिन हर साल ‘करगिल विजय दिवस’ (Kargil Vijay Diwas) के रूप में मनाया जाता है। लेह के बाद लद्दाख का दूसरा बड़ा शहर कारगिल है। कारगिल के निकट ड्रास कस्बे में हमने रात्रि विश्राम किया। अगली भोर यात्रा पुनः आरंभ हुई और ५:०० बजे के करीब बड़े-बड़े सुंदर बर्फीले पहाड़ों के बीच ‘जोजीला-पास’ पर बस रुकी। यहाँ पर अंतरजनपदीय सीमा पर चेकिंग के कारण बस को कुछ देर रुकना था, क्योंकि हमारी बस में कुछ एक अंतरराष्ट्रीय पर्यटक भी सवार थे, जिनको अपने पासपोर्ट की जाँच व कुछ प्रविष्टि करवानी होती है। जोजीला पास के नजारे अद्भुत और खासे मनोरम थे, यहाँ के बर्फीले क्षेत्र के बाद आगे चलते-चलते कश्मीर के हरे-भरे पहाड़ दिखाई देने लगते हैं।
हरी-भरी वादियों से गुजरते हुए, लगभग ४२५ किमी. की यात्रा कर २० जून को प्रात: ९:०० बजे हम श्रीनगर/कश्मीर पहुँचे। बस से उतरकर हमने सीधे होटल का रुख किया, अल्प-विश्राम व लंच उपरांत हम श्रीनगर शहर में स्थित स्थानीय पर्यटन स्थलों की सैर पर निकले। यहाँ कई सुंदर बाग-बगीचे हैं, शालीमार, चश्मे शाही घूमते हुए हम श्रीनगर की शान ‘डल झील’ पहुँचे। डल झील में वोटिंग का लुत्फ भला कौन नहीं लेना चाहेगा। यहाँ आने वाला लगभग हर पर्यटक शिकारा (small boat) में बैठकर डल झील में नौका विहार करते हुए अलौकिक आनंद का अनुभव करता है, सो हमने भी एक शिकारा सरकारी दर पर बुक किया और एक-डेढ़ घंटे की सैर की। झील के किनारों पर स्थित विभिन्न view-points से गुजरते हुए, नाव में बनी फ्लोटिंग-शॉप से कुछ खरीददारी भी की, जो अपने आप में अनूठा अनुभव था। 
नौका विहार करते-करते शाम हो चली थी। फिर झील के किनारे-किनारे टहलते हुए हम समीप में स्थित जाने-माने शुद्ध शाकाहारी भोजनालय कृष्णा ढाबा पहुँचे, और स्वादिष्ट भोजन ग्रहण कर रात्रि विश्राम किया।
२१ जून यात्रा का आठवाँ और अंतिम दिन था। सुलभ आहार ग्रहण कर हम सरकारी बस स्टैंड की ओर रवाना हुए। वैसे तो ज्यादातर सैलानी एयरपोर्ट जाने के लिए टैक्सी का प्रयोग करते हैं, परंतु हमने JKSRTC की बस का उपयोग किया, जिसमें ३०-४० मिनट की यात्रा काफी अच्छी रही और किफायती भी। दोपहर की उड़ान में सवार हो हम एक यादगार यात्रा पूरी कर शाम तक घर आ पहुँचे।
यात्राएँ चाहे भ्रमण, धार्मिक या शैक्षिक उद्देश्य से की जाएँ, निश्चित ही हमारे जीवन में महत्त्व रखती हैं। यात्राओं से हमें ऐतिहासिक व भौगोलिक ज्ञान प्राप्त होता है, साथ ही विभिन्न संस्कृतियों, मानव सभ्यताओं से परिचय होता है और क्षेत्र या देश विशेष के लोगों के जीवन-यापन संबंधी जानकारी मिलती है। लेह-लद्दाख और कश्मीर के कुछ भाग की पर्यटन यात्रा मेरे लिए बहुत ज्ञानवर्धक, आनंदमयी, अनूठी और अविस्मणीय रही।

२२४ कमला नेहरू नगर, 
गाजियाबाद-२०१००२ (उ.प्र.)
दूरभाष ः ९८३७२६३५४५

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