स्मृतियों के चलचित्र में एक सफरनामा

स्मृतियों के चलचित्र में एक सफरनामा

 

कई दशकों से या कहूँ कि आधी शती के करीब हुआ होगा, जब से मैं धर्मशाला देखना चाहती थी, कर्नाटक में तिब्बती आवास देखना चाहती थी। इसका कारण यह था कि हम लोग जब युवा उम्र के थे, तभी भारत-चीन की लड़ाई चली थी, वह भी इसलिए कि भारत ने तिब्बतियों को स्वतंत्र (स्वाधीन) देश के नागरिकों का दर्जा देने के उद्देश्य से तिब्बत को मुक्त देश कहकर घोषित कर दिया था, जिससे भारत-चीन के बीच भाई-भाई का वास्ता उलटकर दोनों दुश्मन देशों की श्रेणी में आ गए। चीन ने तिब्बत को अपने वश में ले लिया, भारत-चीन के बीच युद्ध छिड़ गया। जिन लोगों ने चीन की अधीनता स्वीकार कर ली, वे लोग वहीं रह गए, जो हठधर्मी, अपनी संस्कृति-धर्म और देश की रक्षा करना चाहते थे, उन्होंने विद्रोह की आवाज उठाई, उनको देश से भागकर भारत में निराश्रित होकर आना पड़ा।

भारत भी अपनी स्वाधीनता के आरंभिक काल से गुजर रहा था। इतिहास काल से भारत की संस्कृति भी इस प्रकार की रही है कि हर दुःखी को वह आश्रय देता आ रहा है। पुराण प्रसिद्ध दधीचि, राजा शिबि का आदर्श हम लोगों के आगे है, तो सरकार ने निराश्रितों को अपने यहाँ आश्रय दे दिया। हिमाचल में तिब्बतियों की धर्मशाला बन गई। दलाई लामा तिब्बती धर्मगुरु का पड़ाव वहाँ बन गया। निराश्रित तिब्बती इतनी बड़ी संख्या में थे कि उन सबको धर्मशाला में जगह नहीं दी जा सकती थी। उनको इस कारण देश के अन्य भागों में भी जगह देना जरूरी हो गया। नेहरूजी उन दिनों हमारे प्रधानमंत्री थे। उनका आदेश था कि देश के अन्य भागों में भी आवास देना जरूरी है। मुझे जहाँ तक स्मरण है, तिब्बतियों को आवास देने में हमारे देश का कोई भी राज्य हिचकिचाया नहीं, मना नहीं किया। इस तरह उन्हें कर्नाटक में पिरियापट्टण नामक स्थान के करीब कहीं ठहरा दिया गया।

‘ठहराना’ शब्द की अव्य-छाया में स्थायी आवास की भावना नहीं है, मैं जानती हूँ। मगर यह ‘ठहराने’ वाली बात इसलिए कही जा रही है कि उस समय दुःखी और असुरक्षित तिब्बती यहाँ कुछ समय के लिए ही रहने का उद्देश्य लेकर पहुँचे थे। उनकी दिली इच्छा अपने देश जल्द-से-जल्द लौट जाने की थी। उनको लगता था कि जल्दी ही उनको उनका अपना देश सुरक्षित स्थिति में वापस मिल जाएगा।

यह भाग्य की बातें हैं। तिब्बत न पहले की तरह मुक्त हो सका और न तिब्बती अपने देश लौट सके। इन पचास वर्षों में पता नहीं कितनी बार मैसूर-बेंगलूर शहरों में तिब्बतियों को अपने देश को वापस पाने का नारा लगाते, जुलूस निकालते मैंने देखा होगा। उनकी आवाज नारा बनकर ही रह गई है। हुणसूर जिले में एक स्थान बैलकुप्पा है, जहाँ तिब्बती रहते थे, इसकी हमें जानकारी थी, मगर वह जगह वास्तव में कहाँ थी, कैसी थी, वह लोग कैसे रहते होंगे, आदि किसी बात की हम लोगों को जानकारी नहीं थी। मगर यह सच है, इनसान का लगाव हमेशा अपने मूलस्थान और वहाँ की अपनी जीवन-शैली से जुड़ी हुआ होता है; वास्तव में व्यक्ति वहाँ पर अपने आप को सुरक्षित भी महसूस करता है।

यह अलग बात है कि मनुष्य ही नहीं, जीव मात्र घुमक्कड़ स्वभाव का हुआ करता है। हवा बदलना चाहता है, उसे और स्थानों को देखकर वहाँ की जीवन-शैली से परिचित होने की ख्वाहिश रहती है। उस स्थान पर स्थायी तौर पर रहने के कई और कारण होते हैं।

भारत में भी जब हम यात्रा पर निकलते हैं, तब मार्ग में हमें कई बौद्ध ऐतिहासिक अवशेष और सांस्कृतिक अवशेष भी देखने में आते हैं। बौद्ध धर्म को हम उसके जीवंत स्वरूप में आज भी देख पाते हैं। साँची का स्तूप, बोध गया और बोधिवृक्ष आपको आज भी सुरक्षित रूप में देखने को मिल जाते हैं। बोध गया तो एक छोटा-सा विश्व है, जिसमें बर्मा, चीन, श्रीलंका आदि विभिन्न देशों के बौद्ध मंदिर, विहार और स्तूप देखने को मिल जाते हैं। सारनाथ का भी यही हाल है।

मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि संयोगवश उसे जहाँ भी रहना पड़े, वह उस स्थान को अपने मूल स्थान की स्मृतियों से सँजोकर रखना चाहता है। यह तिब्बतियों के साथ भी है। सांस्कृतिक जुड़ाव का एक उदाहरण ऐसा है कि हम कुछ वर्ष पूर्व कुछ बाहर के देशों में गए थे। वहाँ हर जगह हमने यही पाया कि हमारे लोग वहाँ सनातन धर्मसभा जैसी सभाओं की रचना कर वहाँ पर भारतीय संस्कृति को देखना और पाना चाहते हैं। मैंने सुना है कि मॉरीशस में एक छोटा जलकुंड है। भारतीय मूल के लोगों ने उस कुंड में गंगाजल को मिला दिया है। उसी को वे लोग गंगा मानते हैं। उस जल का सेवन कर, उस जल से नहाकर वे लोग गंगा स्नान का अनुभव करते हैं। उनके घरों के आँगन में तुलसी का पौधा मुखर होकर प्रकट होता है। वैसे देखा जाए तो तुलसी भारतीय नस्ल का पौधा है। मगर भारतीय जनता को वहाँ की मिट्टी से जोड़ने के साथ ही तुलसी का पौधा भी उन्हें एक भारत का ही एहसास देता है।

भाषा के साथ भी कुछ इसी तरह की बात हुआ करती है। भाषा का उद्गम स्थान ही समाज और संस्कृति है। इस कारण ‘निज भाषा उन्नति अहै’ की नीति अपनाकर लोग उस स्थान की भाषा से उसे जोड़ते हैं। मॉरीशस की क्रियोल का भी इसी तरह का इतिहास है। तिब्बती आज भारत में कई दशकों से रह रहे हैं। कुछ लोगों ने यहाँ की मुख्य धारा के साथ अपने को जोड़ने की भी कोशिश की है। यहाँ के निवासियों के साथ तिब्बती लड़कियों की शादियाँ हुई हैं। उनके बाल-बच्चे भी काफी बड़े हो गए हैं। फिर भी नब्बे-पंचानबे प्रतिशत तिब्बती अभी तिब्बती ही रहे हैं। ट्रेन-हवाई जहाज आदि में यात्रा करते समय आपको वे लोग भी यात्रा करते हुए मिलते हैं। उनमें से अधिकांश लोग ए.सी. की बोगियों में मिल जाते हैं। गैर-तिब्बतियों के साथ वे अब भी मिलकर ‘सहज’ रूप से वार्त्तालाप करते हुए कम ही मिलते हैं।

सिटी मार्केट उन दिनों हमारे घर के काफी नजदीक पड़ता था। राजमहल और उसके चारों तरफ स्थित मंदिर और वह समय स्तंभ कृष्णराज ओडेयर और चामराज ओडेयर की स्मरण मूर्तियोंवाला चौराहा हम सबके आकर्षण का केंद्र थे। हम लोग वहाँ सब घूम आते थे। एक दिन हठात् हमने देखा, मैसूर के रंगाचार्लु समुदाय भवन के बाहरी चौखट की गली पर एक-दूसरे से लगी बीस-तीस गुमटियाँ खड़ी हो गई हैं, उन गुमटियों में खड़ी ऊन की, हाथ के बुने पुलओवर-स्वेटर बिक रहे हैं। उसे बेचनेवाली ज्यादातर महिलाएँ थीं। तब तक हमने गाँव की गरीब तबके की महिलाओं को सब्जी-फल-चटाई आदि बेचते देखा था। वे कुंजड़ियाँ हुआ करती थीं। मगर दुकानों में पुरुषों को ही बैठते देखा था। शहर की महिलाओं को सिवाय चूड़ियों की दुकानों के और कहीं दुकान में बैठकर बेचते नहीं देखा था। इसलिए यह हमारे लिए एक नई घटना ही थी। और दूसरा यह भी कि इन महिलाओं का चेहरा, वेश-भूषा और भाषा हम लोगों की तुलना में एकदम भिन्न थीं। ये महिलाएँ न साड़ी पहनती थीं, न विदेशी महिलाओं की तरह घुटनों से ऊपर टिकनेवाला फ्रॉक पहनती थीं, ये एक अलग तरीके का गाउन, जो किमोनो के स्वरूप का हुआ करता था, मोटे कपड़े का था, वह पहनी रहती थीं। उनका यह गाउन हमारी वेश-भूषा से काफी भिन्न स्वरूप का होने के बावजूद शानदार था, आकर्षक था। उन महिलाओं को देखते ही मन में जरूर कुतूहल जाग्रत् हुआ था, मगर हमारी स्मृति तेज थी तो हम समझ गए थे, ये और कोई नहीं, तिब्बती महिलाएँ हैं। हमें जैसा मैंने अभी कहा, हमें उनका यह विशिष्ट गाउन आकर्षित कर रहा था। मैंने उनमें से एक अधेडू या हो सकता है, वह वृद्धा भी रही हो, उसके पास जाकर पूछा कि इसे क्या कहते हैं? कहाँ मिलता है?

उस महिला को सहज स्वरूप से यहाँ की भाषा नहीं आती थी, मगर जरा-सी टूटी-फूटी हिंदी आती थी। उसी में उसने बताया कि यह उसकी पारंपरिक वेश-भूषा है। मैंने उसको बताया कि मैं भी उस तरह का एक गाउन खरीदना चाहती हूँ। अब उसका जवाब था कि वह जब अपनी जगह जाएगी, वह मुझे एक गाउन ला देगी।

आज तक मैं उसका वह जवाब नहीं भूल सकी। एक तो वह निराश्रित थी। उसका अभी एक ठिकाना ही नहीं था। मगर उसका अहं विश्वास इतना गहरा था कि वह समझती थी कि वह सिर्फ एक यात्री है, सुबह का निकला शाम को घर लौट आता ही है, उसी तरह यह उसका एक अस्थायी ठहराव है, बाद में वह जरूर लौट जाएगी, मगर हम लोग इसकी आंतरिक सच्चाई से परिचित हैं, आज तक वे लोग अपने देश नहीं लौट सके। हर जगह उन लोगों ने एक छोटा-सा तिब्बत यहीं जरूर बना लिया है। अपने देश लौटने के सपने मात्र उनकी छाती में स्थायी होकर विद्यमान हैं।

हमने देखा, बाकी महिलाओं के वस्त्र कुछ भिन्न थे। वे सभी व्यापार में जुटी थीं। मैं आज तक यह एक बात नहीं जानती कि वे वास्तव में व्यापार-व्यवसाय से जुड़ी हुई थीं, या मजबूरी में दुकान पर बैठना शुरू किया था।

उनको यह माल, यह चुभता कंबल-सा ऊन बुनने के लिए कहाँ से मिला होगा, यह भी नहीं जानती, मगर इतना अच्छी तरह याद है कि अमेरिका ने उनकी खूब मदद की थी।

मजबूरी में अनाथ बनना और निराश्रित होना कितना भयंकर होता है, यह उन महिलाओं के चेहरों पर झलकता था। वे गुमटीवाली दुकान पर बैठकर बेचते समय मोल-भाव में एक ढील देतीं, आप बारह रुपए में माँगते, बीस रुपएवाले भाव का माल वह बारह रुपए में दे देतीं, क्योंकि मन के किसी कोने में एक निराश्रिता का भाव, नए अपरिचित वातावरण में असुरक्षिता का भाव उनके इस व्यापार में झलकता था।

उनके वे स्वेटर उनके लिए इस्तेमाल किया गया कच्चा माल कंबल जैसा ही शरीर को चुभता था। उसमें श्रेष्ठता या महीन कहने लायक कोई चीज नहीं थी, लोग इसलिए खरीदते थे कि वह बहुत सस्ता मिल रहा था। दूसरा यह भी कारण था कि मैसूर के लोगों के लिए ये महिलाएँ परायी थीं, लगता था कि ये किसी दूसरे देश से आई हैं।

कुल मिलाकर इतना जरूर कहा जा सकता था इनकी मुसीबत के समय यह व्यापार उन्हें जिला रहा था। ये महिलाएँ और इनके पुरुष ये दोनों भी बहुत मेहनती थे। ये लोग स्वेटर की गड्डियाँ बोरियों में भरकर अपनी पीठ पर लादकर घूमते थे।

और बात भी थी कि हमने देखा था कि मेहनत पुरुष और महिला, उन दिनों तो हर सड़क पर बस और ट्रेन इनमें हर कहीं ये लोग गड्डियाँ उठाकर फिरते और बेचते थे। शहर के लोग भी इन लोगों से चीजें खरीदना पसंद करते थे।

आजकल मैसूर-बेंगलुरु जैसे शहरों में उस तरह गड्डियाँ उठाकर फिरनेवाले तिब्बती बहुत ही कम दिखाई देते हैं। अगर इनका बाजार नहीं है तो क्या व्यापार करते होंगे और इनका क्या व्यवसाय है, आदि के बारे में जान पाना मुश्किल है। इंदौर में मैंने देखा कि वहाँ पर जब मौसमी प्रदर्शनी लगती है, यानी सर्दी का मौसम चलता है, तो एक चौराहे पर एक गोलाकार जगह है, कलेक्टोरेट के पास। उस समय इन लोगों की बीस-तीस दुकानें खड़ी होती हैं।

आजकल उन दुकानों में वह पुराना ऊन, जिसके बारे में मैंने अभी बताया था; वह नहीं मिल पाता, आजकल जो सिंथेटिक ऊन मिलता है, उसके बने हाथ के बुने और मशीनी स्वेटर बेचती हैं, लोग उसे सस्ता मानकर खरीद लेते हैं। इंदौर के लोग तिब्बतियों को नेपाली कहते हैं। सर्दी का मौसम खत्म हो जाने के बाद ये लोग वहाँ भी नहीं दिखाई देते। मौसम पक्षियों जैसे जो मौसम के समय दूर देशों से और दूर प्रांतों से जैसे उड़कर यहाँ आते हैं। मौसम खत्म होते ही लौट जाते हैं।

नेपाल में वह जो मैंने मैसूर के इनके बाजार की बात कही थी, उसी तरह काफी बड़ा मार्केट है। ये लोग वहाँ पर स्वेटर बेचते हैं। शॉल आदि चीजें भी बेचते हैं। मगर उस समय के इनके हाथ के बुने स्वेटर आजकल नहीं मिलते। ये मशीनी स्वेटर होते हैं, जैसे और दुकानदार, ये भी उन जैसे ही हैं। इनमें तिब्बती बुनाई वगैरह नहीं होती।

हो सकता है, उनकी आज की पीढ़ी वह बुनाई जानती न हो। एक और बात है, आज के इन तिब्बती दुकानदार या दुकानदारिनों में वह अवसाद और असुरक्षा वाला भय भी नहीं है। आप मोलभाव करने में कुछ बहुत कम भाव कोट करेंगे तो वे लोग गुस्से में आकर गाली भी देना शुरू कर देते हैं। कहने का मतलब यह कि अब पराया या निराश्रित की भावना काफी हद तक उनसे धुल चुकी है। यह भी एक अच्छी बात है। लगता है, उनकी जीवन-शैली में सुधार आया है।

पिछली बार हम जब नेपाल के लिए हवाई जहाज में बैठे तो हमने देखा कि उसमें कुछ संभ्रांत तिब्बती भी बैठकर यात्रा कर रहे थे। नेपाल के मार्ग से शायद वे धर्मशाला जा रहे थे। पुराने दलाई लामा अब काफी वृद्ध हो चुके हैं। सारे संसार में घूम-घूमकर उन्होंने अपने देश की स्वतंत्रता की माँग की, आज भी उनकी वह माँग जारी है।

कुछ ही दिन पूर्व मैंने अखबारों में शायद देखा था कि दलाई लामा को अमेरिका जाने की वीसा नहीं मिली। ‘क्यों’ मुझे कुछ भी याद नहीं। इतना जरूर है कि मैं अपने जिंदा रहते एक बार धर्मशाला जरूर देखना चाहती हूँ।

नं. 2, एन.एच.सी.एस. लेआउट

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— बी.वाई. ललितांबा

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