वर्तमान समस्याएँ एवं लोक की भूमिका

वर्तमान समस्याएँ एवं लोक की भूमिका

भारत विश्व का सबसे मजबूत और विशाल लोकतंत्र है। ‘लोकतंत्र’ की बहुत सी विशेषताओं में उसकी विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रता ही मूल पहचान है। इस विशाल लोकतांत्रिक देश की सबसे बड़ी विशेषता तो अनेकता और विविधता में एकता ही है। आज जबकि देश लगातार विकास के सोपान चढ़ रहा है और सफलता की नई मंजिलें गढ़ रहा है, अनेकानेक समस्याएँ रोज सामने आ रही हैं। ये समस्याएँ अपने नकारात्मक प्रभाव भी छोड़ती हैं, जिसके परिणामस्वरूप देश की अखंडता व एकता को खतरे का आभास होता है। ये समस्याएँ संस्कृति के साथ सामाजिक, आर्थिक-व्यवस्था और पर्यावरण को भी प्रभावित कर रही हैं। इन तमाम समस्याओं में ग्लोबलाइजेशन के अंतर्गत ‘बाजारवाद’ की समस्या भी प्रमुख है। राजनीति, भाषा-वैविध्य, धार्मिक-असहिष्णुता, जल-समस्या, पारिवारिक संवाद की कमी, बेरोजगारी, गरीबी व कृषि तथा अंधविश्वास-जन्य समस्याएँ हैं। महिलाओं के साथ अनाचार व हिंसा में भी अभिवृद्धि हुई है। संयुक्त परिवारों का बिखराव और एकल परिवार भी कुछ नई समस्याओं के साथ दिखाई पड़ते हैं। इन समस्याओं में ‘जनसंख्या-विस्फोट’ भी एक अहम समस्या है।

जनसंख्या के मामले में कोई धर्म, कानून, विश्वास, अंधविश्वास या सांप्रदायिकता जैसी बातें आड़े नहीं आनी चाहिए। ‘देश-धर्म’ को समझना आज बच्चे से लेकर बूढ़े तक सबके लिए आवश्यक है। जन-जन को चाहिए कि स्वतःस्फूर्त होकर जनसंख्या-वृद्धि पर रोक लगाए।

इसी प्रकार हम देखते हैं, राष्ट्रभक्ति व सैनिकों का सम्मान बढ़ानेवाले साहित्य में भी कोई खास इजाफा नहीं दिखाई पड़ता। जबकि आजादी के पूर्व के लोक-साहित्य व शिष्ट साहित्य, दोनों में इसकी भरमार है। आखिर क्या हुआ देश को? आधुनिक साहित्य की भी अनेक धाराएँ बह निकली हैं, जो आपस में ही टकराती हैं। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ जैसे गीत या ‘पगड़ी सँभाल जट्टा’ जैसे लोकगीत एवं भावनाओं की प्रबलता अब युवा वर्ग में कहाँ है? लोकगीत तो हमारा आज भी मार्ग दर्शन करते हैं। भारतीय सैनिकों द्वारा अंग्रेजों को मारने का वर्णन और नारी-सम्मान की भावना इस लोकगीत में देखें—

समय-समय पर इन वीरों ने, देश की खातिर युद्ध किया,

आतताई को पकड़-पकड़ कै, मंग सब अंग-भंग किया,

जिसने भी भारत आक्के, म्हारी बहणों को तंग किया,

शाहमल नै उनका, बुरी तरह से ढंग किया।

क्या यह सच नहीं है कि कभी माताएँ अपने बेटों को राष्ट्रहित में समर्पित होने की प्रेरणा दिया करती थीं? आज तो माताएँ नेता, बड़ा अधिकारी या व्यवसायी बनने को ही प्रेरित करती हैं। यह सच है कि अब इस तरह के साहित्य का अभाव है। एक हरियाणवी लोकगीत में वात्सल्य और राष्ट्रभक्ति का यह सुंदर उदाहरण देखें—

कर देश की रक्षा चाल्य, लाल मेरे सजधज कै।

अरिदल ने सीमाएँ तोरी, चारों ओर से आकर घेरी।

क्या इसका नहीं खयाल, लाल मेरे सजधज कै।

जिस दिन के लिए तनैं दूध पिलाया, वो आज लाड़ले आया।

करके दिखा कमाल, लाल मेरे सज-धज कै।

वर्तमान राजनीति और मासूम जनता

आज भारत की एकता, अखंडता और राष्ट्रवाद को सबसे अधिक खतरा स्वार्थ-लोभी राजनीति से है। राजनीतिज्ञों द्वारा जनता को विभिन्न आधारों पर बाँटकर वोट प्राप्त करने के लिए अनेक प्रलोभन दिए जाते हैं और षड्यंत्र भी किए जाते हैं। राजनीतिज्ञों द्वारा जनता को सुनहरे चुनावी-वादों का जो नशा पिलाया जाता है, उस नशे का दुष्परिणाम जनता ही भोगती है। विभिन्न प्रलोभनों का यह नशा हमारी सच्चाइयों को देखने-समझने की ताकत को क्षीण कर देता है। हम अपनी क्षमता और शक्ति गलत प्रत्याशी को ‘वोट’ के रूप में सौंपकर मानो अपना बहुत कुछ खो देते हैं।

‘लोक’ के पास भी ऐसे कड़वे अनुभव हैं, जिन्हें वह लोकगीतों, लोककथाओं और लोकनाट्यों के माध्यम से हमारे समक्ष रखता है। ऐसे उदाहरणों से वह सचेत करता है कि जीवन में किसी भी प्रकार के नशे के प्रलोभन से बचे रहें, जो हमारे स्वत्व और अधिकार को हमसे छीन सकता है।

बस्तर के भुंआर लोकगीत में देखें—

युवती, “छोड़ो राजा छोड़ो मोरे छीनी अंगरी/मोरे बाबा ल समेंट करे ल जाहूँ।”

“राजा, काईं बर छोड़ेव रानी तोर अंगरी/तोरे बाबा ल दिएंब मंद (शराब) भर बरनी वो तो मंद लोभी/वो तो मंद लोभी।”

अर्थात् एक आदिवासी युवती के पिता को एक राजा जी भरकर शराब पिलाता है। शराब के नशे में उसके अचेत पिता से वह उसकी बेटी को माँग लेता है और युवती की इच्छा के विरुद्ध उसे ले जाता है। रोती हुई युवती अनेक दारुण दुःखों को बताती है और राजा से अनुनय-विनय करती है कि मुझे एक बार पिता से भेंट कर लेने दीजिए, पर राजा युवती से कहता है, मैंने तुम्हारे पिता को जी भरकर शराब पिलाई है। अब मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर मुक्त नहीं कर कर सकता।

इस दर्दनाक गीत को सुनते हुए गाँव की वह भोली-भाली जनता याद आती है, जिन्हें मुफ्त शराब बाँटकर या थोड़े-बहुत पैसे का लालच देकर, झूठे चुनावी वादों का झुनझुना दिखाकर उनके वोट प्राप्त किए जाते हैं। ये लोककथाएँ और लोकगीत बेहद मार्मिक और प्रतीकात्मक होते हैं।

‘जागो लोग’ नाम की एक लोककथा में देखिए, किसी राजा के राज्य में पड़ोसी देश से आया हुआ एक कुटिल राजनयिक या गुप्तचर पहुँचा। सर्वप्रथम उसने राजा का खूब गुणगान किया तथा विभिन्न भेंट-सामग्री देकर उसका विश्वासपात्र बन गया। धीरे-धीरे उसने राजा के पहरेदारों को परखना शुरू किया। नशेड़ी, लोभी, अहंकारी सभी को अलग-अलग ढंग से वश में किया। बाद में उसने राजा के सैनिकों और युवाओं को भी साम, दाम, दंड, भेद की नीति से अपने वश में कर लिया। अब वह राजमहल के सात दरवाजों को एक के बाद एक तोड़ता है। हर बार वह वहाँ की जनता को सिर्फ ‘सचेत’ ही नहीं करता, बल्कि ऐलान भी करता है, जागरूक करता है ‘जागो लोग, जागो लोग।’ यह लोककथा बड़े ही महत्त्वपूर्ण संदेश के साथ खत्म होती है। देश के हर व्यक्ति को अपने आप में प्रहरी होना ही चाहिए। देश की समस्याओं और कर्तव्यों के प्रति खुद तो जागरूक रहना ही है, साथ ही सबको जागरूक रखना है, सबको जगाना है। लोककथा में कुटिल गुप्तचर राजमहल के सात दरवाजे तोड़ते हुए यह गीत गाता है—

पहिला फरिखा काटेंव हो, नसेड़ी पहरेदार ल मारेंव हो।

जागव लोग, जागव लोग।

दूसर फरिखा काटेंव हो, लोभी सैनिक ल बांटेव हो।

जागव लोग, जागव लोग।

तीसर फरिखा काटेंव हो, घमंडी सैनिक ला छाँटेव हो।

जागव लोग, जागव लोग।

चौथा फरिखा तोड़ेंव हो, सुते परिजन ल जगाएंव हो।

जागव लोग, जागव लोग।

पाँचवाँ फरिखा उखाड़ेंव हो, राजकोठ ल झांकेव हो।

जागव लोग, जागव लोग।

छठवाँ फरिखा फोर दिएंव, भरमाये रानी ल छीन लिएंव।

जागव लोग, जागव लोग।

सातों फरिखा तोड़ेंव हो, सुते राजा ल मारेंव हो।

राज-पाठ सब जीत डारेंव, अब तो जागव, जागव लोग।

इस प्रकार की सभी लोककथाएँ मानो हमें सही प्रत्याशियों (राजा) के चुनाव के लिए जाग्रत् करती हैं, जो साम, दाम, मद, लोभ से मुक्त हों। युवाओं और बच्चों को कर्तव्यनिष्ठ बनकर राष्ट्र की रक्षा करने और आनेवाले कल के प्रति आगाह करते हुए ‘जागो लोग, जागो लोग’ जैसे मूलमंत्र से स्फूर्त करती है यह लोककथा।

धार्मिकता, सांप्रदायिकता और भाषा

भारत विश्व-प्रांगण में एक ऐसा देश है, जिसे अपनी संस्कृति की विविधता के अविच्छिन्न सौंदर्य के भीतर पूरे राष्ट्र के सुदृढ़, नैतिक व मानवीय होने पर युगें-युगों से गर्व रहा है। भारतभूमि में ‘लोक’ का आत्मविश्वास बड़ा अडिग है। बड़ी-से-बड़ी प्राकृतिक आपदा, भीषण युद्ध, विदेशी आक्रमण, शत्रुओं की लूटमार, भुखमरी व गरीबी ने भी कभी भारतीय जन-मानस को अप्रत्याशित रूप से अनैतिक नहीं होने दिया। लोगों का विश्वास है—

जब-जब होई धरम की हानि, बारिहें असुर अधम अभिमानी।

तब-तब धर प्रभु विविध सरीरा, हरहि दयानिधि सज्जन पीरा।।

यह विश्वास ही लोक का बहुत बड़ा संबल है। लोक द्वारा ईश्वरत्व को भारत-भूमि में अवतरित होनेवाले महान् जननायक नायिकाओं के भीतर परखा और पाया जाता है। हर प्रकार की दुरूह परिस्थितियों में भी लोक ने अपने सीमित भौतिक, किंतु असीमित आंतरिक आत्मीय दायरों में अपनी एकता और अविच्छिन्नता को बनाए रखा है। भारत के राष्ट्रीय मूल्यों के विषय में चिंतन करते हुए भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्माजी की उक्ति है, ‘मेरी मान्यता है कि आज भारत को आवश्यकता है—गहन नैतिक एवं चारित्रिक कायाकल्प की, हमारे राष्ट्रीय मूल्यों एवं लक्ष्यों के प्रति राष्ट्रव्यापी निष्ठा पैदा करने की तथा लोगों को एक-सूत्र में बाँधने की। इसके साथ ही जातिवाद एवं संप्रदायवाद को, जिनका आज भ्रष्टाचार और अपराधों के साथ घृणित एवं खतरनाक गठबंधन है, स्पष्ट रूप से सीधे नकारा जाना चाहिए।”

राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक मूल्यों के ह्रास के कुछ कारण ऊपर गिनाए जा चुके हैं, परंतु एक महत्त्वपूर्ण कारण ‘युवा-बेराजगारी’ भी है। युवावर्ग एक ओर आर्थिक तंगी व पारिवारिक, सामाजिक समस्याओं से लगातार संघर्ष कर रहा है, वहीं रोजगार के नाम पर उसे अपनी माटी, अपने देश से दूर जाना पड़ता है। इससे सांस्कृतिक विचलन की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। भारत की लोक भूमि में आज भी ईद हो या रथदूज, होली हो या दीवाली, मोहर्रम हो या नवरात्रि, लोक आपस में इतना घुलमिल जाता है कि आनंद और अपनेपन की लहरें उमड़ पड़ती हैं। मोहर्रम में आज भी अनेक हिंदू बच्चे शेर बनकर घूमते हैं। प्राकृतिक आपदाएँ जब भी आती हैं, लोग जाति-धर्म भूलकर मनुष्यता के सुंदरतम उदाहरण पेश करते हैं। सभी एक-दूसरे के हो जाते हैं। केरल और केदारनाथ जैसे अनेक हादसे इसका उदाहरण हैं।

सामूहिकता और सहयोग भी लोक का एक विशिष्ट गुण है। असंख्य अभावों और तकलीफों के बावजूद लोक की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह विभिन्न धार्मिक-सामाजिक उत्सवों के नाम पर संगठित होता है और कम-से-कम संसाधनों के बीच प्रसन्न होकर तनावों से मुक्त हो जाता है। ये सामूहिकता लोक की सबसे प्रमुख विशिष्टता है। हमारी संस्कृति में वृक्षों एवं जलस्रोतें की पूजा-आराधना वृक्षों के विवाह एवं इनके सामीप्य में योग, प्राणायाम, अध्यात्म और चिंतन की परंपरा है। हमने इन सकारात्मक बातों को भूलकर अब टनों कचड़ा मृत देह, मूर्तियाँ आदि जलस्रोतों में विसर्जित कर उन्हें न केवल प्रदूषित किया बल्कि उन्हें (नदी, तालाब, कुंड, कुएँ, बावड़ी) मृतप्राय भी कर दिया है। यदि हमने पर्यावरण व जल-संरक्षण के प्रति अभी भी ध्यान नहीं दिया तो बड़ी देर हो जाएगी। सन् 1451 में राजस्थान में आठ वर्षों तक लगातार अकाल पड़ा था। तत्कालीन पीपासर महाराज श्री राव जोघाजी ने पूरे राज्य के लिए 29 नियम बनाए, ताकि पर्यावरण-संरक्षण हो सके और दोबारा इस तरह के दुर्दिन न आएँ। इनमें वृक्ष न काटना, वृक्षारोपण, जल संसाधनों, बाग-बगीचों की साफ-सफाई और उनकी पूजा जैसे अनेक नियम शामिल हैं।

पर्यावरण प्रदूषण

आज देश की राजधानी दिल्ली जैसे अनेक महानगरों में श्वास लेना भी दुश्वार हो गया है। ‘इकोलॉजी ऑफ अर्बन इंडिया’ (1987) ने उल्लेख किया है कि उद्योगों एवं निर्माण कार्यों के लिए भारत में अंधाधुंध वनों की कटाई की जा रही है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों की भूमि लगातार बंजर हो रही है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बाजार की शक्ति द्वारा बाजार की ही शक्ति को बढ़ाने के लिए होता है। इससे आम गरीब व सामान्य जनता को व्यवसाय एवं रोजगार की व जीवन-यापन की कठिनाइयाँ उत्पन्न हो रही हैं। वैश्वीकरण व विकास के नाम पर भारत में स्त्रियों की स्थिति में भी निरंतर गिरावट आई है। कन्या ‘भ्रूण-हत्या’ भी एक बड़ी समस्या है, जो पंजाब-हरियाणा में अपेक्षाकृत अधिक है, जबकि वही क्षेत्र हरित-क्रांति का केंद्र रहा है, अर्थात् देश में प्रकृति और नारी दोनों की स्थिति में ही गिरावट आई है।

‘लोक’ की दृष्टि में नदियों का स्थान माँ से भी उच्चतर है क्योंकि माँ अपने बच्चे के लिए होती है, जबकि नदियाँ समस्त लोक के लिए। एक गढ़वाली लोकगीत की कुछ पंक्तियाँ देखें, इसमें गंगा का महत्त्व और मानवीकरण दृष्टव्य है—

गंगा माई आग आग चले गंगा माई, पीछी हीरों की कणी।

गंगा माई लमड़ाई त लोड़ी।

गंगा माई इनी मातमी माई, गंगा माई पीछी बल्दू की जोड़

गंगा माई मंडुआ की माणी

गंगा माई चलक सी माता, गंगा माई सुहाग सी स्वाणी।

इसी तरह ‘जल-संरक्षण’ से संबधित एक खूबसूरत छत्तीसगढ़ी लोक-कथा का सार-संक्षेप इस प्रकार है—

“बहुत समय पहले एक ‘करिया’ (काला) पहाड़ था। उसमें से निकलती थी ‘जगमग’ (चमकीली) नदी। नदी के साथ दूर तक खेती-बारी और हरे जंगल थे। सारे ग्रामीण और जीव-जंतु हमेशा आनंदित रहते थे और नदी कलकल बहती थी। कहते हैं, लोगों को विश्वास था कि गंदगी करनेवालों को नदी अभिशाप देती है। अनेक यात्री भी आते, नहाते-धोते, जंगल में खाते-पीते विश्राम करते और चले जाते थे। वहाँ कोई गंदगी नहीं करता था।

“एक बार एक यात्री आया। नदी-तट पर भोजन बनाया, खाया-पिया और गंदगी करके चल दिया। यात्री रास्ते में ही गूँगा हो गया। तभी तेज हवा का झोंका आया और यात्री द्वारा छोड़ा गया कोयला राख सहित नदी में गिर गया। नदी का पानी गंदा हो गया। नदी उदास हो गई। उसने कलकल बहना बंद कर दिया। उसकी उदासी देख चिड़िया ने उससे कारण जानना चाहा। पूछते ही चिड़िया कानी हो गई। (इसके बाद यह बहुत लंबी शृंखला है, जिसमें लोग अभिशप्त होते चले गए।) अंततः वह यात्री राजा के पास पहुँचा। राजा ने जैसे ही उससे कुछ पूछा, राजा का नितंब उसके सिंहासन से चिपक गया। राजा ने राजमाता (अपनी माँ) को बुलवाया और उससे कुछ न पूछने का निवेदन किया। सारी कहानी सुनकर राजमाता राजा को लेकर उसी नदी के तट पर गईं। उन्होंने नदी की साफ-सफाई कराई। पूजा-आराधना की। लोगों ने उत्सव मनाया। दान-पुण्य हुए। गंदगी किसी ने नहीं की। परिणामस्वरूप नदी कलकल कर बहने लगी। उसके जल में स्नान करते ही राजा स्वस्थ हो गया। वे सारे लोग भी स्वस्थ हो गए, जो उससे प्रभावित हुए थे। ये सबकुछ देखकर किनारे पड़े कोयले ने संकल्प किया कि वह अब कभी पानी को गंदा नहीं करेगा, बल्कि साफ करने को काम करेगा। नदी ने भी कोयले के इस सुंदर संकल्प की जानकारी भगवान् को दी। भगवान् ने प्रसन्न होकर कोयले को आशीर्वाद दिया कि कलयुग में उसका खूब सम्मान होगा और हीरा भी उसकी खदान में मिलेगा।

इस प्रकार नदी के महत्त्व को समझानेवाली यह बेहद महत्त्वपूर्ण छत्तीसगढ़ी लोककथा लोक की ही अभिव्यक्ति है।

बाजारवाद

आज पूरे विश्व के लिए ‘बाजारवाद’ एक बड़ी समस्या है। दुनिया बाजार में तब्दील हो रही है। शहरों की मानसिकता बन गई है, ‘आगे दुकान, पीछे मकान’, बाजार में सबकुछ बेचा-खरीदा जा सकता है। इस बाजार में अगर कुछ नहीं मिलता तो वह है—शांति, अमन और आत्मीय संबंध। यहाँ मिलता है कानून का शिकंजा, लाभ की इबारत, ठगने के गुर और भौतिक चकाचौंध की होड़। प्रसंगवश शमशेर बहादुर सिंह की दो पंक्तियाँ याद आती हैं—

इल्मो हिकमत, दीनो ईमां, मुल्को दौलत, हुस्नोईश्क,

आपको बाजार से, जो कहिए ला देता हूँ मैं।

इस भौतिकतावादी बाजार में भीतरी दुनिया की संवेदनाएँ भी शुष्क हो रही हैं। ऐसे में हमें लोकोक्तियाँ भी जागरूक करती हैं। ‘राम नाम अपना, पराया माल अपना’ केवल ढोंगी बाबाओं की नहीं बल्कि बाजार की सच्चाई है। आज बाजार में इनसान की चमड़ी और औरत की कोख ही नहीं बल्कि रेत के कण, पानी की बूँदें और हवा भी बिकने लगी है। एक ओर देश की अधिकांश सीमाएँ समुद्र से लबालब हैं, दूसरी ओर हिमालय बर्फ से आच्छादित है। भारत का प्रांगण जीवनदायिनी नदियों के जल से अमृतमय है। ऐसे देश में, जहाँ जनसंख्या सवा अरब से अधिक है, 20 रुपए से 40 रुपए प्रतिलीटर तक पीने का पानी ये बाजार ही बेच रहा है। यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है, कितने लोग यह पानी खरीद सकते हैं? यहाँ गरमियों में गली-गली मुफ्त प्याऊ-घर खोलने की प्रथा लोक में है। मगर आज सबकुछ बाजार के पाखंड का शिकार हो रहा है।

यही कारण है कि लोक ने ज्यादातर मेले, उत्सव, त्योहार आदि इन जलस्रोतों के किनारे मनाए। इसी बहाने उनकी साफ-सफाई, संरक्षण और महत्त्व का आभास भी होता है। अंध-धार्मिकता और अज्ञानता के चलते वे आज प्रदूषित व मृतप्राय हो गए हैं, किंतु इसमें आधुनिक विकास और औद्योगिकीकरण का प्रमुख हाथ है।

वस्तुतः विश्व का सबसे बड़ा सत्य यह है कि बिना जंगल (वृक्ष) के इस धरती का कोई अस्तित्व ही नहीं है। धरती के लिए सबसे आवश्यक तत्त्व है प्राणवायु, जल और खाद्य, यह सबकुछ हमारे जंगलों की ही देन है। जंगल ही विश्व के पालनहार हैं, बाजार नहीं।

एक आदिवासी (बस्तर) लोककथा के अनुसार जलप्रलय के पश्चात् भीमादेव ने पुनः वनस्पतियें को पैदा किया। वहीं एक विशालकाय तुंबे से एक साधु निकला, जिसका नाम था ‘डड्डे बुरका कोवासी।’ उसके अंगों से ही दस बच्चे हुए जो कि आदिम जाति के दस गोत्रीय हुए। उन बच्चों से अन्य जीव-जंतु पैदा हुए। साधु ने अपने खानदान के बच्चों को शपथ दिलाई कि वे अपने सगोत्रीय को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाएँगे। जंगल का भी नुकसान नहीं करेंगे। वे केवल भूख लगने पर ही शिकार करेंगे। इस प्रकार सारा जंगल इस अदृश्य नियमों को आज भी मान रहा है। इस जंगल ने ही समस्त आदिवासियों एवं जंगली जीव-जंतुओं को पालन-पोषण किया है इसीलिए साधु ने इस जंगल का नाम ‘पालनार’ रखा। एक ‘भतरी’ कहावत है—

धान बुनला भीम, पानी देला इंदर।

डड्डे बुरका कोवासी, पालनार जंगल।

लोक-साहित्य का मूलमंत्र ही समूचा जीव-जगत है। जब सबकुछ अपना हो तो कोई किसी को अनावश्यक नुकसान क्यों पहुँचाएगा भला? एक भोजपुरी लोकगीत में पेड़ न काटने का अनुनय-विनय कितना मार्मिक है, देखिए—

बाबा निमिया के पेड़ जिनि काटेउ।

निमिया चिरैया बसेर, बलैया लेउ बीरन।

बाबा बिटियऊ जिनि दुःख देउन।

बिटिया चिरिया नाई, बलैया लेऊ बीरन।

“प्रसंगवश यह चर्चा भी महत्त्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ के एक गाँव ‘रायकेरा’ में भूमाफिया एवं उद्योगपतियों ने किसानों को ऐश-आराम के झूठे सपने दिखाकर उनकी सारी जमीन खरीद ली। बदले में उन्हें कुछ कम कीमत पर कार का लोन उपलब्ध कराकर कार भी खरीदवा दी। लगभग 100 किसानों में से 80 ने कार खरीद ली। आज इतने महँगे पेट्रोल-डीजल में उनकी कारें खड़ी हैं। सेकेंड हैंड भी नहीं बिक रहीं। किसान त्राहि-त्राहि कर रहा है।” ऐसी परिस्थितियों से लोक ने आगाह किया है महाकवि तुलसीदासजी की ‘कवितावली’ की कुछ पक्तियाँ द्रष्टव्य हैं—

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि।

बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।

जीविका बिहीन लोक, सीघमान सोच बस।

कहैं एक एकन सौं, कहाँ जाई का करी।

इसलिए लोक ने सदियों पूर्व ही ‘कौवे की हंस-चाल’, ‘बगुला भगत’ या ‘बाघ की खाल में सियार’ जैसे चरित्रों व शब्दों को अपने किस्से-कहानी का हिस्सा बनाया था। श्री राम परिहार के अनुसार, “लोक साहित्य केवल साहित्य नहीं है, वह साहित्य के अतिरिक्त धर्म, इतिहास, पुराण, और आख्यान सभी कुछ है। वह सही अर्थों में संस्कृति का वाहक तत्त्व है।”

भारत में विश्व-बंधुत्व की भावना ही विश्व की सबसे महान् और पुनीत संस्कृति है। सर्व ज्ञान और शक्ति-संपन्न ऋषि-मुनियों ने भी हमेशा संपूर्ण ब्रह्मांड में शांति और प्रेम की स्थापना के लिए न केवल प्रार्थना की, अपितु कार्य भी किया है।

इस तरह हम देखते हैं कि समूचा लोकसाहित्य ही आज भी हमें बार-बार जाग्रत् कर रहा है। वर्तमान की जटिल समस्याओं के निराकरण हेतु आज भी हमारा पथ-प्रशस्त कर रहा है। लोक-साहित्य बता रहा है कि ये समस्याएँ तो कुछ कम ही सही, किंतु अतीत में भी हुआ करती थीं। आज हमारे बीच बाजार, स्वार्थ और अहंकार का तांडव चल रहा है। हम जन-जन के सुख-शांति की नहीं, केवल अपने सुखों की कामना से ही लबालब हैं। ऐसे में राष्ट्र और अंतरिक्ष के सुख-शांति को तो हम भूलते ही जा रहे हैं। हम भूल रहे हैं कि ‘राष्ट्र है, तो हम हैं।’ हमारी मानसिकता ही रुग्ण और संकीर्ण हो रही है। यही कारण है कि भारत जैसे महान् आदर्श राष्ट्र को राष्ट्रीयता और एकता जैसे विषयों पर विमर्श करना पड़ रहा है। तो आइए, फिर से अपनाएँ लोक के प्रकृति-प्रेम और सहृदयता को, सरलता, समरसता और सहयोग को, और बिना किसी विशिष्ट स्वार्थ के अपनाएँ विश्व को, अंतरिक्ष को।

पहाड़ी तालाब के सामने

बंजारी मंदिर के पास,

कुशालपुर, रायपुर-492001 (छत्तीसगढ़)

दूरभाष : 07415017400

— मृणालिका ओझा

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