सफर में : मूरत, सुग्गा

सफर में : मूरत, सुग्गा

स्मरण यानी याद, यादें! अच्छी हों तो बरबस ओठों पर खिल उठती हैं। दिलफरेब हों तो उन्हीं में खोकर रह जाता है आदमी। कसैली हों तो विषाद में डुबो देती हैं, दुखद हों तो रुला देती हैं, मीठी हों तो सुला देती हैं! यादों के अजाब से भला कौन बच सका है, वरन् उम्र के एक खास पड़ाव में ‘यादों’ से ज्यादा ‘अजीज’ कोई नहीं होता। उस वक्त हरदम, हर पल स्मृतियों के, यादों के गुंजलक में खो जाने का, सबकुछ भूल जाने का मन करता है। तो ऐसा है यादों का इंद्रधनुषी, मदिर मायाजाल! कइयों का वह ‘खास-पढ़ाव’ कभी जाता नहीं, कइयों के जीवन में आता ही नहीं! पर सच यह भी है कि दुनियादारी के झकोरों में झटकोले खाता आदमी इतना मगन-मस्त और पस्त हो जाता है कि जिम्मेदारियों के पहाड़ों तले दबा यह समझ ही नहीं पाता कि शरीर चुक गया, उम्र चुक गई, पर जिम्मेदारियाँ नहीं चुकीं, ख्वाहिशें नहीं चुकीं।

याद करना चाह ले कोई तो क्या-क्या याद नहीं हो आता! कितनी ही स्मृतियाँ द्वार खटखटाने लगती हैं, चेतना में स्पंदित हो, आँखों के सामने ऐसे आन विराजती हैं, जैसे हृदय की देहरी से कभी बाहर निकली ही नहीं थीं। हम बस उतना ही जीवन जीते हैं, जो खट्टा या मीठा हमारी यादों में समाया होता है, शेष रह जाता है। बाकी का तो निस्सार व निरर्थक ही व्यतीत होता है।

जीवन के इस दार्शनिक पक्ष से इतर चलते हैं फिर से स्मृतिवन की ओर। एक बात और, जिनकी प्रगाढ़ संवेदना से युक्त घनीभूत चेतना में स्मृति बड़े गहरे पैठी/बैठी होती हैं, उन्हें तो पुरबले जन्म की स्मृतियाँ भी ऐसे दृष्टिगत हो जाती हैं, मानो वे क्षण, वे घटनाएँ पूर्व जन्मों की न होकर अभी वर्तमान की ही घटी घटनाएँ हों! तब फिर बाल्यकाल की स्मृतियों में डूबकर मनहंसा यादों के अनमोल मोती चुग लाए तो क्या ताज्जुब!

उस समय शायद तीन-साढ़े तीन बरस हुए होंगे धरती पर आए। कितनी जिज्ञासाएँ, कितने कौतूहल कितने उल्लास बिखरे पड़े थे सामने! कुछ अल्प सी समझ थी और बहुत कुछ ऐसा घटित था, जो नासमझी के खाते में चला जाता था। घर के बड़े-बुजुर्गों द्वारा कई बार की आवृत्तियों में सुना गया एक वृत्तांत। बढ़ती उम्र के साथ मन पर इतना पुख्ता हो गया, जैसे कल ही सबकुछ आँखों के सामने से गुजरा हो।

मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड परिक्षेत्र छतरपुर जिले की छोटी सी रियासत थी, थी क्या अभी भी है, नाम है बिजावर! रियासत के सदर बाजार में महाराज बिजावर की किले जैसी हवेली के ठीक सामने था ‘लटौरिया सदन’ (आज भी है)। बिजावर के सबसे बड़े महाजन थे लटौरियाजी। जिन्हें घर-बाहर सर्वत्र ‘दद्दे’ कहा जाता था। इनकी ज्येष्ठ पुत्रवधू थीं मेरी बड़ी बहन माया जीजी। जीजाजी चंडीगढ़ में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। बाबूजी तब सतना में बी.डी.ओ. थे। बड़े-बड़े सरकारी ओहदेदारों की हैसियत दद्दे जैसी महाजनी वृत्तिवालों के लिए मामूली आय के सरकारी एहलकारों से ज्यादा नहीं थी। क्यों हो, ललगँवा जैसे गाँव-के-गाँव की पूरी काश्तकारी जिसके पास हो, दसियों किसान जिसकी जी-हुजूरी करते हों, उसकी अहमियत के आगे सरकारी कारिंदों की बिसात ही क्या! ऊपर से महाराजा बिजावर से मित्रता सोने में सुहागा का काम कर रही थी।

इतने बड़े घर-घराने में जीजी के ब्याह का प्रसंग भी कम दिलचस्प और रोमांचक नहीं। ये गत सदी का सातवें दशक की शुरुआत का वक्त था। बुंदेलखंड में तब मूरत सिंह और मलखान सिंह जैसे दस्युओं का आतंक व्याप्त था। सतना जिले के मझगवाँ विकासखंड में चकबंदी का काम जोरों पर था। इस चकबंदी जैसे काम में पटवारी से लेकर बी.डी.ओ. तक की चाँदी कटती थी। दबंग, रईस और लालची भूस्वामी सरकारी एहलकारों की जेबें गरम करके दूसरे किसान के चक की उम्दा उपजाऊ भूमि अपने चक में नपवा रहे थे। लोग बात ही बात में लखपति-करोड़पति हो जाते थे, अफसर घूस खाकर और दबंग लोग दूसरों की जमीन खाकर! मगर बाबूजी जैसे ईमानदार और निडर विकासखंड अधिकारी बी.डी.ओ. अधिकारी के अधीन क्या मजाल कि किसी काश्तकार की उपजाऊ जमीन इंच भर भी इधर-से-उधर हो या उससे छिन जाए और घूस देनेवाले दबंग किसान के चक में आ जाए। ‘न खाएँ न खाने दें’ वाला हिसाब था बाबूजी का। सौ दुश्मन हो गए। जमींदारों, माफीदारों, पटवारियों की कई-कई दलीलें! रिश्वत लेने के लिए! मगर बाबूजी सिद्धांतों के पक्के। उन दिनों आर्यसमाज का प्रभाव उन पर था, आर्य समाज के सिद्धांतों का पालन व प्रसार कर रहे थे। यह अलग बात है कि दादी गंगादेवी अंग्रेजों के मिडिल स्कूल की हैडमिस्ट्रेस थीं। उनके विचारों का भी बाबूजी पर असर था। बाबूजी साहित्यप्रेमी थे। स्वयं भी पत्रिका निकालते थे, जिसके संपादकीय में बाल-विवाह, अशिक्षा, दहेज प्रथा जैसी बुराइयों के खिलाफ बराबर लिख रहे थे। चूँकि बड़ी जीजी ब्याह योग्य हो गई थीं, सो उनके लिए वर भी खोज रहे थे। मगर जहाँ-जहाँ शादी की बात चलाते, लोग संतोषजनक उत्तर नहीं देते थे। यह परेशानी उन्होंने अम्माँ से भी बताई। साथ में यह कि बिजावर में दद्दे का बड़ा लड़का अत्यंत होनहार है, चंडीगढ़ में इंजीनियरिंग कर रहा है। मगर दद्दे मामूली सरकारी अफसर के यहाँ संबंध नहीं जोड़ना चाहते हैं। कुंडली तक नहीं दी लड़के की।

बाबूजी ने बताया उसे कि बात क्यों नहीं चलाई। बिजावर के दद्दे के इतै चलाई, मगर उननें कुंडली तक नईं दई लड़का की। लड़का बढ़िया है, हम छोड़ना नहीं चाहते। इस पर मूरत सिंह ने कहा, “आज सें ठीक दसवें दिन जइयो दद्दे के पास। खास तुम। नाऊ-हकारे खों न भेजियो। बचन दओ हमनें, मौड़ी कौ ब्याव उतईं हुइयै। अब जाव तुम।” उसने बाबूजी के साथ वही टुकड़ी भेजी। आँखों पर पट्टी फिर से बाँधी गई। जंगल के बाहर सड़क पर जीप खड़ी थी, आग जल रही थी, कुछ लोग थे वहाँ। शायद मूरत सिंह के थे वे लोग। रात के तीन बजे बाबूजी सकुशल घर आ गए। इस घटना के पाँच-छह दिन बाद उलटे बाँस बरेलीवाली कहावत को चरितार्थ करता बिजावर के लटौरिया सदन से हरकारा संदेशा लाया कि बी.डी.ओ. साहब को दद्दे ने बुलाया है।

स्त्रियाँ ज्यादा दुनियादार या कहें सहज बुद्धि की या समझदार प्रकृति की होती हैं। अम्माँ ने बाबूजी से दो टूक कहा कि “जौ लौं तुमें दहेज के खिलाफ लेख लिख-लिख के कागज कारे करनै हैं, तौ लौ ब्याह लई बिटिया तुमने! तुमे कौन सौ लड़का वारौ झाँकन दैहै अपने घर में, देखतईं द्वारे बंद कर लै है। जा सोच कें कि दहेज कौ बिरोध करबे बारौ, अपनी बिटिया खों का दैहै? औ का हम इनसें ठैर-ठैराव कर पाएँगे। सो अपनी जा खिलत-पढ़त सें हाथ जोड़ लो और कायदे से बिटियन कौ ब्याह करकें खूब लिखियो-पढ़ियो। तुमारा अपने पै बस है, सो अपने लड़कन कौ ब्याऔ बिना दान-दहेज के करियो। बिटियन खों तौ दैनें परहै, अगर उन्हें अच्छे घरन में पहुँचावनें होय।”

बाबूजी ने पत्रिका बंद कर दी और दुनियादार बन गए। यह सच है कि भाइयों के ब्याह उन्होंने बिना दहेज लिये किए।

बहरहाल बाबूजी को कई दिनों से कुछ पटवारी और जमींदार संकेतों में बता चुके थे कि अमुक जमीन के जोतदार पर डाकू मूरत सिंह का वरदहस्त है। मूरत सिंह चाहता है कि अफसर जितनी चाहे, उतनी घूस ले ले, बदले में इतने-इतने उपजाऊ भूखंड उस किसान के चक में आ जाना चाहिए, उसने धमकी दी है कि अगर ऐसी चकबंदी न हुई तो वह राह के काँटे बी.डी.ओ. (यानी बाबूजी) को गोली मार देगा। बाबूजी पर इस धमकी का कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने निरंतर अपनी देखरेख में निर्धन किसान की उपजाऊ उर्वरा भूमि जितनी और जैसी थी, उसी के चक में ही नपवा दी। इस पर रसूखवाला किसान आगबबूला हो गया, तक्षण आनन-फानन में उसने यह खबर मूरत सिंह के पास पहुँचा दी और बाबूजी को धमकाते हुए चला गया। इधर बाबूजी अपनी देखरेख में शाम तक काम खत्म करवाकर चल दिए विकासखंड मझगँवा की तरफ। मार्ग बीहड़ जंगलों/डांगों से घिरा था। शेर, तेंदुआ, चीते, हिरनों, हाथियों की भरमार थी। जीप में केवल साहब और ड्राइवर गुलाब सिंह। आधा रास्ता पार हुआ था कि सशस्त्र टुकड़ी ने जीप घेर ली। साफियों (तौलिया) से सबके मुँह ढके थे। ड्राइवर दिलेर था, उसने पूछा बाबूजी से कि आप कहें तो इन्हें रौंद-खोंद के गाड़ी निकाल लूँ। बाबूजी ने उसे मना कर दिया। टुकड़ी में से एक बोला ड्राइवर से, ‘हमारी तुमसे कोई दुशमनी नहीं, मगर बी.डी.ओ. को ठाकुर ने बुलाया है।’ बाबूजी ने ड्राइवर से कहा कि तुम घर जाओ, बाईजी से कुछ मत कहना। वे परेशान होंगी। स्वयं अपने ईष्टदेव बजरंगबली का स्मरण करते चलने को उतर पड़े जीप से। उन लोगों ने बाबूजी की आँखों पर काले कपड़े की पट्टी बाँध दी थी। घंटे भर पैदल चलने के बाद उन्हें एक स्थान पर रोक दिया गया। आँख की काली पट्टी खोल दी गई। पैट्रोमैक्स के उजाले में जंगल की कुछ खुली सी जमीन पर चट्टान के ऊपर डाकू मूरत सिंह बैठा था! मझोले कद का गँठीला सा आदमी था। बड़ी-बड़ी लाल आँखें और उमेठी हुई बड़ी-बड़ी काली मूँछों में वह बेहद खूँखार दिखाई पड़ा। थोड़ी देर सन्नाटा रहा।

बोला मूरत सिंह, “राम-राम साब! चले आए मरने को। जमीन हम तुमाई तौ माँग नहीं रएते। सरकारी पट्टे में दूसरे की थी। हमारे आदमी के चक में करा देते तौ गोली के बल्दे झोली मिलती सोने के कल्दारन की। का सोच के मौत मोल लई तुमने बोलौ।”

बाबूजी ने निडरता से जवाब दिया, “ठाकुर, तुम्हारी बात मानकर मैं सरकार और गरीब किसान दो का अपराधी बनता। बेईमानी का दाग कभी न मिटता, मेरे खून में बेईमानी नहीं है। उस निर्धन की आह मुझे जीते-जी मार डालती। जिंदगी भर बार-बार मरने से तुम्हारी एक गोली से मर जाना आसान है। मैंने अपना काम किया, तुम अपना करो।”

ठाकुर कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, “कै बाल बच्चे हैं। मौड़ा-मौड़ी कै हैं?”

बाबूजी ने बता दिया। उसने फिर पूछा, “बड़ी बिटिया कितनी बड़ी है?” बाबूजी ने कहा, “ब्याऔ जोग।”

मूरत सिंह, “कऊँ बात चलाई?”

बाबूजी ने बताया उसे कि बात क्यों नहीं चलाई। बिजावर के दद्दे के इतै चलाई, मगर उननें कुंडली तक नईं दई लड़का की। लड़का बढ़िया है, हम छोड़ना नहीं चाहते। इस पर मूरत सिंह ने कहा, “आज सें ठीक दसवें दिन जइयो दद्दे के पास। खास तुम। नाऊ-हकारे खों न भेजियो। बचन दओ हमनें, मौड़ी कौ ब्याव उतईं हुइयै। अब जाव तुम।” उसने बाबूजी के साथ वही टुकड़ी भेजी। आँखों पर पट्टी फिर से बाँधी गई। जंगल के बाहर सड़क पर जीप खड़ी थी, आग जल रही थी, कुछ लोग थे वहाँ। शायद मूरत सिंह के थे वे लोग। रात के तीन बजे बाबूजी सकुशल घर आ गए। इस घटना के पाँच-छह दिन बाद उलटे बाँस बरेलीवाली कहावत को चरितार्थ करता बिजावर के लटौरिया सदन से हरकारा संदेशा लाया कि बी.डी.ओ. साहब को दद्दे ने बुलाया है। बाबूजी बिजावर गए। दद्दे ने हाथों हाथ लिया उन्हें। खातिर-तव्वजो के बाद लड़के की टीपना (जन्मपत्री) दी।

फिर तफ्सील से बताया कि दो रोज पैलें हम ऊपरैं हते कमरा में। ऐंन आधी रात में द्वारे के बाहर पिंजरा कौ सुआ खूब फड़फड़ानो पैंलें, फिर तौ एकदम टेर लगाई, दद्दे, उटों! दद्दे उटों! डाकू आए! डाकू आए! भड़या आ गए। तनकई देर में ड्योढ़ी कौ मुख्तयार (रखवाला) माते आओ, उसी के पीछें-पीछें मूरत सिंह ढट्टी बाँधैं मुँह पे। मातें खों उसने नीचे भगा दओ और हमसें कही कि अबै तौ नहीं लूटो, पै तुमने कही न करी तौ एक कील न बचन दैहें घर की, सब लेंगे लूट औ तुमैं पोंहचा दैहें ऊपर! बीडियो साहब खों टीपना काए नई दई। जान लो लड़का तुमें उनई की बिटिया सें ब्याउनें। बिटिया में कौनऊ खोट दिखा परी होय तौ बताइयो। हमनें कई कै बिटिया तौ हमाए नाऊ नें देखी है, एन नौनी अच्छी है...।

और कहने की बात नहीं कि आती हुई पहली लगन में ही धूमधाम से ब्याह हो गया जीजी का।

उन्हीं दिनों बी.टी.आई. कॉलेज के लिए बाबूजी का चयन प्राचार्य पद पर हो गया नौगाँव जिला छतरपुर में। चूँकि कॉलेज बी.टी.आई. के लिए प्रशिक्षु शिक्षकों की चयन प्रक्रिया चल रही थी, प्रक्रिया पूरी होने तक यानी कुछ समय तक के लिए बाबूजी को बिजावर के शासकीय कॉलेज में प्राचार्य पद की तैनाती दे दी गई। बड़ी जीजी मुझे बहुत चाहती थीं, सो बिजावर पहुँचने के बाद मैं अकसर उन्हीं की ससुराल चली जाती थी। मेरे आने और जाने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने देवर को सौंप रखी थी। देवर यानी जमुना जीजाजी मोटर साइकिल ऐसे चलाते थे, जैसे हवाईजहाज उड़ा रहे हों। मुझे अच्छा ही लगता था। वे जब बुलाती थीं, अम्माँ मुझसे पूछकर मुझे भेज देती थीं, कभी-कभी मैं नहीं भी जाती थी।

वहाँ मेरे लिए सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र था सुआ! मुझे देखते ही प्रसन्नता से खूब हँसता था। साथ ही जब तक जीजी आकर उसे जवाब नहीं दे देती थीं, तब तक वह बार-बार रट लगाए रहता था, “भांभी ओ भांभी देखों दया आई, बिटिया आई। छावनी वारी ओ! ओ छावनी वारी।” (नौगाँव में अंग्रेजों की छावनी होने के कारण उसका एक नाम नौगाँव छावनी भी था। जीजी की सास उन्हें अधिकतर छावनी वारी कहती थीं, सो सुआ भी यही कहता था। छावनी मायका होने के कारण जीजी को ससुराल में ‘छावनी वारी’ उनकी सास ही नहीं, चचिया सास वगैरह भी कहती थीं) सुआ की एक ही रट ‘तुमाई बैन आई...दुलैया तुमाई बैन आई...।’ मुझे सुआ का इस तरह बोलना बहुत अच्छा लगता था। वह बहुत कम चुप रहता था। घरभर की सुबह उसी की आवाज से होती थी। वह सबके नाम ले-लेकर उठाता था, माते कक्का (ड्योढ़ी मुख्तयार) से लेकर दद्दे, बाई, जमुना, इंद्रा, शारदा कभी बड़े प्यार से पुचकार के कहता—पट्टू, पढ़ो सीताराम, राधेश्याम, पट्टू पढ़ौ। सारे जू पढ़ौ, नहीं तो खाना नईं न दाना पानीं। पढ़ौ चित्रकोटी, दूधरोटी...और भी न जाने क्या-क्या। न जाने कौन-कौन से गाने गाता। उसका पिंजरा हमेशा टँगा रहता था। कभी दोपहर या साँझ-सकारे जब मुख्तयार दद्दे के साथ चला जाता था और पौर (बाहरी बैठक) के यानी ड्योढ़ी के द्वार बंद होते थे। ऐसे में जब भी दरवाजे पर आहट होती या कुंडी खटकती थी तब तो सुआ एक आवाज में जो सुर साधता था, वह तभी भंग होता, जब घर का कोई सदस्य दरवाजा खोलकर देखता था कि कौन आया है। इस बीच पट्टू बराबर “को है, को है” की रट लगाए रहता था। एक बार न जाने किसने दूध की कटोरी रखने के लिए रात में पिंजरा उतारा तो, मगर टाँगना भूल गया। दूध-दही वाले घर में बिल्ली का आना-जाना किसके रोके रुका है। बिल्ली नित्य-नियम से आती थी, शायद इसीलिए एहतियातन पिंजरा ऊँचाई पर टाँगा जाता था। मगर उस दिन की चूक ने सुआ को छीन लिया हमेशा के लिए। रात में बिल्ली आई होगी, पंजों से पिंजरा खोला...दूध की कटोरी बिखरी थी, पंख फैलाए सुआ की गरदन लुढ़की पड़ी थी...। मैं सोकर उठी तो यही सब सुना मैंने...। हम बच्चे देख न पाएँ, सो पहले ही वह जगह धुल-पुँछ गई। पिंजरा हटा दिया गया, जब भी द्वारे की साँकल बजती थी—सुआ रट्टा मारता था—को आय (कौन है) को आय को आय...! मगर अब ऐसा कुछ भी नहीं था। तोते तो बहुत देखे फिर भी...सुंदर नीलकंठी वाले हरियल और भाँति-भाँति के, मगर उतना कुशाग्र तोता फिर कभी मैंने जिंदगी में नहीं देखा। अविस्मरणीय था वह सुआ।

128/387 वाई-1 ब्लॉक,

किदवई नगर, कानपुर-208011 (उ.प्र.)

दूरभाष : 09415537644

— दया दीक्षित

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