नेताजी उवाच

नेताजी उवाच

मेरा समाज गहरे गड्ढे में जाए

मुझे क्या

मेरे समाज की नींव हिले

हिलती रहे

मुझे तो अपनी इमारत को

मजबूत करना है।

तुम मेरे ईमान को तौलते हो

मैं भ्रष्ट हूँ

ऐसा ही तो बोलते हो

मेरी दीवारों के पार क्या है

उसका रहस्य खोलते हो!

मेरी कृपा किस पर बरसती है

किसकी आँखें

मेरी झलक पाने को तरसती हैं

किसके ख्वाबों में आता हूँ मैं

किसके सपने सजाता हूँ मैं

यह सब तुम्हारी सोच है।

मेरी आजादी को

अपनी अनपढ़ता, अपनी कायरता

अपनी जड़ता

का आईना मत दिखाओ

जो कुछ भी मिल रहा है

उसके गीत गाओ जाओ

और अपनी संतान की फौज में

शामिल हो जाओ

यही सनातन धर्म है

कि तुम्हारे कर्म में

केवल उतनी आस्था हो

जितनी मैं चाहता हूँ।

मेरी चाहत

तुम्हारी आदत हो

मेरे विचार ही

तुम्हारी इबादत हो,

मैं जो कुछ कहूँ

उसी की इबारत तुम लिखो

मैं जितना चाहता हूँ

तुम उतना दिखो।

तुम मुझे स्वार्थी बताते हो

सत्तालोलुप होने का दोष लगाते हो

मेरे चेहरे पर गिरगिटी नकाब है

मैं रंग बदलता हूँ और

जब चाहे दल भी।

तुम्हें यह सब दिखाई देता है

लेकिन मेरी साधना नहीं

जिससे साधता हूँ

सर्वोदयी समाज को

लोगों के उखड़े मिजाज को,

मैं जो सपने दिखाता हूँ

सपनों में रंगों के महल सजाता हूँ

वह सबकुछ

क्या तुम कर सकते हो

क्या तुम देश की

काली चादर में

ऐसे रंग भर सकते हो

जो न होने पर भी

आँखों में चकाचौंध भर दें

लोगों को धरती से उठा

इंद्रधनुष के करीब धर दें,

मैं जिस पद पर बैठ जाता हूँ

उसके मोह में

मैं अंधा नहीं होता

पहले उसके कंधों पर बैठता हूँ

पूरे विभाग को अंधा करके

वह धंधा करता हूँ

कि सारे कार्यालय,

समितियाँ और संस्थाएँ

मेरे ही श्वास पर

विश्वास करती हैं।

वे अधिकारी

जो फूत्कार करते थे

एक-एक कागज पर

सुलझाने को समस्याओं का पहाड़

अब मेरी दहाड़ पर

खिलौनों की तरह नाचते हैं

मैं उन्हें समझाता हूँ

मुर्दा समाज औ मुर्दा कोम का इतिहास

और यह भी कि विकास के नारे सारे

किसलिए लगाए जाते हैं।

बस तुम्हारा पेट

मेरे पेट से ऊँचा नहीं हो।

सत्ता का सत्ता

मुश्किलों के पंजे को

किस तरह मात देगा

समय की बिसात पर

सर्पकुंडली मारकर बैठा हूँ मैं

तो कौन है जो सीढ़ी चढ़ सके

आगे बढ़ेगा न तो

समा जाएगा मेरे विषैले मुँह में।

कभी मैं भी सोचता था

आदमी की जिंदगी का द्वंद्व

दो वक्त की रोटी के लिए

काँपते हुए हाथ

विसंगतियों और विडंबनाओं में

जीता हुआ तन

साँसों में घुटता हुआ आर्तनाद

पसीने में तर कोई रिक्शाचालक

ऊँची इमारतों की नींव में

खुद को ईंट बनाकर

चिपक जानेवाला आदमी

मेरे सपनों में आता था

मुझे भी दिखाई देता था,

सत्तापक्ष का रौद्र रवैया

और अपनी भूख मिटाने के लिए

चाय के ढाबों पर

बरतन माँजता वह बच्चा

जिसके हाथ में

हेनी चाहिए थी किताब

वे बेवस लड़कियाँ

जिन्हें पेट भरने के लिए पेट

दिखाने को विवश होना पड़ता था।

मैंने उन्हें वे सब सपने दिखाए

उन्हें मिलेगी रोटी

नंगा नहीं सो पाएगा कोई

उनकी खोई आत्मा

उन्हें वापस मिलेगी,

उनके झोले में भीख का

अनाज नहीं होगा

उन्हें नाज होगा अपनी अक्ल पर

उन्होंने मुझ पर विश्वास किया

और मैंने उनके

इसी विश्वास का खून पिया

उन्होंने अपनी सारी ताकत

मेरी कुरसी बनाने में लगा दी

कुरसी बनते ही

मैंने उनके सपनों में

आग लगा दी।

बी-203, पार्क व्यू सिटी-2

सोहना रोड, गुरुग्राम-122018 (हरियाणा)

दूरभाष : 07838090732

गिरिराजशरण अग्रवाल

हमारे संकलन