राम भरोसे

राम भरोसे

अभी आधा ही अखबार पढ़ पाए थे चंद्रभूषणजी कि राम भरोसे ने घर से बाहर जाते-जाते कहा, “चाय थरमस में रख दी है, बड़े भैया। और नाश्ता हॉटकेस में है। उपमा बनाया है। जल्दी खा लेना, नहीं तो ठंडा हो जाएगा। फिर मजा नहीं आएगा। मैं दो बजे तक लौटूँगा। दाल-सब्जी बनी है, बाई आकर रोटी बना देगी।”

“इतनी बातें एक साँस में बोलेगा तो कुछ भी याद नहीं रहेगा।” चंद्रभूषणजी ने मजाक करते हुए कहा।

“याद तो कुछ करना ही नहीं है, बड़े भैया। बस पाँच-छह घंटे की बात है। चाचाजी को एक बार देखकर आऊँ अस्पताल में तो उन्हें चैन आ जाएगा।”

“अस्पताल जा ही रहा है तो अपने आपको भी दिखा लेना। याद है न, परसों कैसा चक्कर आया था।” चंद्रभूषणजी ने ताकीद की।

“अरे वो तो बस यों ही था। अभी तो सब ठीक है। अच्छा, चलता हूँ। दरवाजा भेड़कर जा रहा हूँ।” राम भरोसे ने कहा और बाहर की राह ली। चंद्रभूषणजी बड़े ध्यान से उसकी साईकिल की, फिर गेट खोलने की और फिर गेट बंद करने की आवाजें सुनते रहे। उसका निकलना हुआ था कि अंदर के कमरे से दयावतीजी पैर घिसटते-घिसटते आ गईं।

“भगवान्! अरे राम भरोसे! चला गया क्या?” दयावतीजी ने पूछा। “हाँ, अभी-अभी तो निकला है।” चंद्रभूषणजी ने जानकारी दी। जानते थे कि इसके बाद बम फटनेवाला है। हुआ भी वही। दयावतीजी ने लगभग चिल्लाते हुए ही कहा, “कितनी बार कहा है उससे कि बाहर जाते समय मुझे बताकर जाया करे। लेकिन मेरी तो इस घर में कुछ कीमत ही नहीं है। जब घर के ही लोग नहीं करते तो नौकर-चाकर भला क्यों करेंगे।”

चंद्रभूषणजी को यही वाक्य सुनते-सुनते चालीस साल हो गए हैं। पचपन साल तो उनकी शादी को ही हो गए। पच्चीस साल पहले हायर सेकेंडरी स्कूल क्षिप्रा में प्रिंसिपल बनकर आए थे। तभी पहली बार उनके भ्रत्य के रूप में राम भरोसे का परिचय कराया गया था। उसके माथे पर लगा बड़ा सा सिंदूर का टीका देख बहुत प्रभावित हुए थे चंद्रभूषणजी। पूछा था उन्होंने, ‘कहाँ के हो, पंडितजी?’

बड़े भोलेपन से जवाब दिया राम भरोसे ने, ‘पंडित नहीं, भगत हूँ, महाराज। जात का धीमर हूँ, लेकिन बजरंग बली का नाम चौबीसों घंटे साथ रहता है।’ तभी बड़े बाबू ने जानकारी दी थी, ‘सर, पूरा सुंदरकांड जबानी याद है। गीता के अध्याय फटाफट बोलता है।’

मैंने राम भरोसे की ओर आश्चर्य से देखा तो विनम्रता से बोला, ‘सब आप जैसे गुरुजनों की सोहबत का असर है, साहब। वरना हम तो ठहरे ढोर चरानेवाले।’

वहीं से रिश्ता बँध गया था राम भरोसे से। चंद्रभूषणजी भी इंदौर से अप-डाउन करते थे और राम भरोसे भी। फिर उसे ही सुबह-शाम घर पर खाना बनाने के लिए रख लिया चंद्रभूषणजी ने। रिटायरमेंट के बाद चंद्रभूषणजी इंदौर में ही बस गए।

एक बेटा, एक बेटी हैं। दोनों अमेरिका में हैं। बेटा बोस्टन में, बेटी फिलाडेल्फिया में। साल में एक बार आ जाते हैं वे। बाकी समय बुड्ढा-बुढ़िया अकेले रहते हैं।

पाँच साल पहले चंद्रभूषणजी को पैरेलेसिस का अटैक आया। दवाई से तबीयत तो सुधर गई, लेकिन चलने-फिरने के लिए सहारे की जरूरत पड़ने लगी। बेटे ने राम भरोसे से कहा, थोड़ा ज्यादा समय चंद्रभूषणजी के साथ बिताने के लिए। वो उस वक्त तक रिटायर हो गया था। वह अपने पूरे सामान के साथ ही आ गया। उसकी बीबी कई साल पहले गुजर चुकी थी। बच्चे अपने में मगन थे, इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं हुई। सुबह से लेकर शाम तक का सारा काम, यानी चंद्रभूषणजी को घुमाना, नहाने में मदद करना, मालिश कर देना और खाना बनाना राम भरोसे ही करता है। दयावतीजी को भी गठिया की बीमारी है। उन्होंने अपनी सेवा के लिए एक बाई रख छोड़ी है। उन्हें राम भरोसे बिल्कुल पसंद नहीं। उसे भी यह मालूम है, फिर भी निभ रही है किसी तरह।

चंद्रभूषणजी ने सुना, दयावतीजी की बड़बड़ जारी थी। उन्हें टोकते हुए चंद्रभूषणजी बोले, “लेकिन हुआ क्या? ऐसी कौन सी आफत आन पड़ी है। बताया तो था तुम्हें कल रात को कि आज वो अपने चाचा को देखने जाएगा अस्पताल में।”

“हाँ, लेकिन कम-से-कम पूछकर जाता। गैस खत्म हो गई है। घर में सिलेंडर भी नहीं है एक्स्ट्रा। पिछले हफ्ते ही पड़ोस के तिवारीजी ले गए थे।”

“कोई बात नहीं, दोपहर को आएगा राम भरोसे तो मँगवा लेंगे।” चंद्रभूषणजी ने कहा, तभी फोन की घंटी घनघना उठी। लैंडलाइन पर इस वक्त फोन, यानी बहूरानी का ही होगा। वह बिना नागा इस वक्त फोन करके हालचाल जान लेती है।

“हलो पापा, कैसे हैं?” बहूरानी ने पूछा।

“अच्छे हैं बेटा। अभी सर्दी खत्म हुई है। बस गरमियों की तैयारी है।” चंद्रभूषणजी ने जवाब दिया। अब रोज-रोज बात भी तो क्या करें। बहुरानी की जिद से बेटा अमरीका में टिका है। इसकी भरपाई रोज फोन करके पूरा करने की कोशिश करती है। वैसे तो उसका भी मायका इंदौर का ही है, लेकिन बोस्टन इतना भा गया है उसे कि अब वापस आने का नाम ही नहीं लेती। पीछे दयावतीजी की चिल्लाहट जारी थी। शोर सुनकर बहुरानी ने पूछ ही डाला, “ये आवाज कैसी? मम्मीजी को क्या हुआ है। क्यों इतना नाराज हो रही हैं?”

“अरे बेटा, गैस सिलेंडर खत्म हो गया है। अपना एक्स्ट्रा सिलेंडर तिवारीजी के यहाँ दिया था पिछले हफ्ते। बस उसी पर नाराज हैं। तुम फिक्र न करो। चाय-नाश्ता सब बन गया है और खाने के समय तक इंतजाम हो जाएगा। लेकिन तुम्हारी मम्मी को तो बस मुझ पर चिल्लाने का बहाना चाहिए होता है।” चंद्रभूषणजी ने वातावरण को हलका करते हुए जानकारी दी।

“अच्छा पापा, रखती हूँ। बाद में बात करूँगी, माहौल ठंडा होने पर।” बहुरानी ने कहा और फोन काट दिया। फिर चंद्रभूषणजी ने मनुहार कर दयावतीजी को शांत किया। दयावतीजी ने नाश्ता लगाया, फिर चाय दी। फिर उन्होंने अपनी दवाई ली और चंद्रभूषणजी को भी दवाई दी। एक-दो, तीन-चार, पता नहीं कितनी। दवाइयाँ गिनते-गिनते थक जाते हैं चंद्रभूषणजी। कभी-कभी तो खीज हो जाती है उन्हें अपने आप पर। क्यों जी रहे हैं इस तरह! बयासी पार कर चुके हैं। सहस्रचंद्रों के दर्शन भी हो गए। अब तो सीधे प्रभु से साक्षात्कार हो ही जाए। लेकिन ऊपरवाला भी सुनता नहीं।

जब बेटे का ग्रीन कार्ड हुआ तो उसने बहुत खुशी से यह खबर बताई थी। फिर उससे यह पूछने का तो सवाल ही नहीं बचा कि बेटे, तुम भारत कब लौटोगे। हाँ, बेटे ने यह जिद जरूर की थी, मम्मी-पापा दोनों चलकर रहें उसके साथ बोस्टन में। तब चंद्रभूषणजी ने दो टूक कह दिया था, ‘हमें यहीं रहने दो बेटा। साल-छह महीने में झाँक जाया करना। हम दोनों बुड्ढा-बुड्ढी पड़े रहेंगे भगवान भरोसे।’ और भगवान् ने भी ऐसी सुनी कि राम भरोसे भेज दिया। अब तो उनका पूरा जीवन राम भरोसे ही कट रहा है।

“सुनो, शिवलीलामृत सुनोगे? आज सोमवार है।” दयावतीजी ने कहा। नाश्ते के बाद यह एक-डेढ़ घंटा ऐसी ही धार्मिक पुस्तकों के वाचन में जाता है। खुद तो ज्यादा पढ़ नहीं पाते। दयावतीजी ही उन्हें पढ़कर सुनाती हैं। दयावतीजी सामने तख्त पर बैठने ही वाली थीं कि दरवाजे की घंटी बजी। दयावतीजी ने दरवाजा खोला तो देखा, सामने चतुर्वेदीजी खड़े हैं।

“अरे समधीजी आप! अचानक!”

लेकिन समधीजी ने कुछ कहा नहीं। ऑटोवाले को हिदायत दी, “भैया, यह सिलेंडर लाकर यहाँ बरामदे में रख दो।” मामला चंद्रभूषणजी की समझ से बाहर था। चतुर्वेदीजी, यानी बहूरानी के पिताजी ने ही खुलासा किया।

“अरे, सुबह स्वाति बिटिया से बात हुई तो उसने बताया कि आपकी गैस खत्म हो गई है। हमारे पास एक सिलेंडर एक्स्ट्रा था, तो सोचा, आपको दे आएँ और आपके हालचाल भी जान लें।”

“वाह! क्या जमाना आ गया है। यानी अब गैस सिलेंडर की भरवाई वाया बोस्टन हुआ करेगी। मान गए संचार तकनीक को।” चंद्रभूषणजी ने कहा।

“आप कहें तो मैं फिट कर दूँ।” चतुर्वेदीजी ने सदाशयतावश पूछा। चंद्रभूषणजी को मालूम था कि वो कर नहीं पाएँगे। अस्सी के तो वे भी हो चले हैं। ऊपर से पिछले ही साल स्लिप डिस्क से परेशान थे। उन्होंने औपचारिकतावश पूछा और चंद्रभूषणजी ने भी उन्हें विनम्रता से कह दिया, “आप क्यों तकलीफ करेंगे। राम भरोसे अभी आ जाएगा एक बजे तक। तभी लगा देगा।”

“राम भरोसे का बड़ा सहारा है आपको, भाई साहब। काश, हमारे पास भी कोई ऐसा होता।” चतुर्वेदीजी ने कहा।

“यह सही कहा आपने। हमारे-आपके जैसे कितने बुजुर्ग राम भरोसे ही तो जी रहे हैं आजकल।” चिंतामणिजी के मुँह से मन की व्यथा छलक पड़ी।

चतुर्वेदीजी के जाने के बाद रोज के काम निपटाने में एक कब बज गया, पता नहीं चला। बाई आई लेकिन उसे गैस सिलेंडर बदलना नहीं आता था। एक बार फिर से दयावतीजी ने अपने शब्द-बाणों की भरपूर बौछार की, क्योंकि अब रोटी बनाना संभव नहीं था। उनके जरा शांत होने पर चंद्रभूषणजी ने याद दिलाया कि पास में ही एक महिला ऑर्डर पर रोटी भेजती है। फोन पर ऑर्डर बुक हुआ। आधे घंटे में रोटी आईं। सुबह से बनी दाल-सब्जी ठंडी हो चुकी थी। गरम रोटी के नाम पर जो रबर के टुकड़े आए, उन्हें किसी तरह पेट में धकेलकर जठराग्नि को ठंडा किया गया।

“सुनो, चार बज गए। चाय के लिए भी किसी को फोन करेंगे या सामने ठेले पर से मँगवाऊँ। आपके लाड़ले का तो अता-पता नहीं है।” दयावतीजी उलाहना देते हुए बोली। अब तो चंद्रभूषणजी को भी राम भरोसे पर गुस्सा आने लगा था। इधर कुछ दिनों से ज्यादा ही भाव बढ़ गए थे उसके। बिल्डिंग के चौकीदार को भी बुलावा भेजा कि आकर गैस का सिलेंडर लगा दे, लेकिन कंबखत वो भी हाथ ऊँचे करके चलता बना। अब तो जब तिवारी दंपती लौटेंगे छह बजे, तभी कुछ हो पाएगा। चाय की तलब भी जोरदार लगी थी। उनका गुस्सा बढ़ना स्वाभाविक था। उस पर दयावतीजी के व्यंग्यबाण आग में घी का काम कर रहे थे। दयावतीजी को राम भरोसे कभी पसंद नहीं आया। लेकिन खुद की बीमारियों और फिर चंद्रभूषणजी की बीमारी के चलते उन्हें उसे झेलना पड़ता था। उसका चंद्रभूषणजी को ‘बड़े भैया’ कहना भी उन्हें नहीं भाता था। वो चाहती थीं कि वह चंद्रभूषणजी को ‘सर’ और उन्हें ‘मैडम’ कहे। लेकिन घर में सभी चंद्रभूषणजी को ‘बड़े भैया’ कहते थे। लिहाजा वह भी उन्हें बड़े भैया ही कहने लगा। हाँ, दयावतीजी के गुस्से के मारे वह उन्हें ‘मैडम’ कहकर बुलाता।

चंद्रभूषणजी जानते थे कि आज राम भरोसे के लौटने पर आर-पार की लड़ाई निश्चित है। वे सोच में पड़ गए कि दयावतीजी और राम भरोसे के बीच होनेवाली इस आक्रामक मुठभेड़ को कैसे टाला जाए। तभी फोन की घंटी बजी। वे जानते थे कि राम भरोसे का ही होगा। ऐसी डाँट लगाऊँगा कि होश ठिकाने आ जाएगा। चंद्रभूषणजी ने सोचा और फोन उठाया, “नमस्ते साहब! मैं द्वारका बोल रहा हूँ।” चंद्रभूषणजी को समझ में नहीं आया कौन बोल रहा है।

“जी साहब, मैं द्वारका प्रसाद! राम भरोसे का लड़का।”

“हाँ, बोलो बेटा! पिताजी कहाँ हैं?” चंद्रभूषणजी ने अधीरता से पूछा।

“वही बताने के लिए फोन किया, साहब! पिताजी को हार्ट अटैक आया दोपहर को और अभी...अभी...” कहते हुए द्वारका रोने लगा। चंद्रभूषणजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि वे क्या सुन रहे हैं। उन्हें यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें, कैसे सांत्वना दें द्वारका को।

उनके सामने तो अँधेरा सा छा रहा था। किसी तरह फोन रखा। उन्हें लगा जैसे उनके घर की सारी दीवारें ढह गई हैं, छत उड़ गई है और वो दयावतीजी के साथ खुले आसमान के नीचे खड़े असहाय; बेसहारा हैं।

राम भरोसे उन्हें सचमुच भगवान् भरोसे छोड़कर खुद भगवान् के पास चला गया था।

 

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र

11, मानसिंह रोड, नई दिल्ली-110011

दूरभाष : 09205500164

— सच्चिदानंद जोशी

हमारे संकलन