जी गांधी

अरुण गांधी कंधे से लैपटॉप का बैग उतारकर जब व्हील चेयर पर बैठ गया तो एक नौकर आया, जिसने सफेद वरदी पहन रखी थी। उसने एक लिफाफा अरुण गांधी को दिया और उसका हस्ताक्षर लेकर चला गया। हर रोज ऐसे कई पत्र आते थे, यह सहज ही था। मगर आज अस्वाभाविक रूप से लिफाफे पर उसका नाम दर्ज था। उसने कौतूहलवश उसे खोलकर देखा तो उसमें पिंक कार्ड था।

अरुण गांधी अभी-अभी ए.सी. होंडा सिविक कार से उतरकर आया था, फिर भी सारे बदन से पसीना बह रहा था। न जाने क्यों आँखों के आगे अँधेरा छा गया। आगे का सबकुछ एक निर्वात के सामन...शून्य-शून्य दिखने लगा। उसने ऐसी एक संभावना की निरीक्षा की थी, मगर यह इतनी जल्दी अपने ही जड़ में आकर पैठ जाएगी, इसकी कल्पना भी उसे नहीं थी।

‘अमरीका का रिसेशन और कर्नाटक की कंपनी का क्या रिश्ता... इंडियन इकनॉमी बहुत मजबूत है,’ ऐसा उसने कल ही अपने दोस्तों के साथ लंच में बड़बड़ाया था। कंपनी ने परसों ही पचास लोगों का संदर्शन लिया था और दस लोगों का चयन कर लिया था। इसी कंपनी में वह दूसरे बड़े ओहदे पर था। उन सबों ने नौकरी के लिए उससे सिफारिश लेने के लिए उसे इंप्रेस करने की कोशिश की थी। उनमें से कुछ लोगों को पता था कि अरुण गांधी का फैसला ही अंतिम है। अलग-अलग कंपनियों के जान-पहचानवालों से, जो बड़े-बडे़ ओहदों पर थे, यों ही फोन भी करवाए थे। अरुण गांधी ने इन सबके नाम लिख लिए थे और बड़ी चालाकी से उन्हें ही महसूस करा दिया था कि वे सचमुच इस कंपनी के लिए योग्य ही नहीं हैं, मगर अब...

अरुण गांधी ने देखा—एक चेक था। अपने इतने दिनों के पगार का हिसाब करके अंतिम व्यवस्था की गई थी। चौदह दिनों का पगार सत्तर हजार रुपए! अर्थात् महीने के डेढ़ लाख रुपए। कल ही जिन दस लोगों को नौकरी पर लिया गया था, उन सबका पगार कुल मिलाकर एक लाख रुपए नहीं होता था। यानी उसे निकालने से दस लोगों को नौकरी और पाँच लोगों की पगार बच गई थी।

अरुण गांधी ने सोचा कि एम.डी. के चेहरे पर त्यागपत्र फेंककर कह दूँ कि मुझे नौकरी से निकालनेवाले तुम कौन होते हो, तुम्हारी घटिया कंपनी में नौकरी करने के लिए मेरी भी इच्छा नहीं थी। मगर फिर सोचा कि सात साल पहले वह खाली हाथ बेंगलुरु आया था, इस कंपनी ने उसे आसरा दिया था, एक करोड़ का अपार्टमेंट दिया था, सभी सुविधाओं से भरपूर कार दी थी। ऐसी कंपनी को बुरी तरह से गालियाँ देकर अपने को कृतघ्न कहलाना अच्छी बात नहीं। मगर कार और घर की याद आते ही सोचा कि कितनी किश्तें बाकी हैं...तो तुरंत बैंक को फोन किया। उत्तर आया कि आधी रकम जमा हो गई है। उसे तसल्ली हुई। अगर बाकी आधी रकम न चुकाने पर बैंक से सुपारी पानेवाले गुंडे ढूँढ़ते हुए आएँगे और सबकुछ अपने कब्जे में ले लेंगे तो? यह सोचकर और परेशान हो॒गया।

उसके सह-कर्मचारियों ने सोचा कि अब तक यह हमारा बॉस था, रिसेशन के शिकार में फँस गया; उन्होंने ऐसा अभिनय किया, मानो वे इसके बारे में जानते ही नहीं। वे इस पर एक नजर रखते हुए इसकी सभी धड़कनों को खुशी से महसूस करते हुए अपने-अपने काम में लग गए थे। वे भूल गए थे कि इसी पल या दूसरे ही पल में उन्हें भी नौकरी से निकाले जाने का पत्र आ सकता है। वे अरुण गांधी पर नाराज होकर कभी-कभी तिरछी नजरों से देखते हुए सोचते थे कि यह हम पर ही बासिस्म करता था, अब किस पर करता है, देखेंगे!

अरुण गांधी को लगने लगा कि उसे कोई देख रहा है। उसने चारों ओर नजर दौड़ाई। कोई भी उसकी ओर नहीं देख रहा था, मगर फिर लगा कि सभी उसकी ओर ही देख रहे हैं। वह काँटों की कुरसी पर बैठा है, ऐसा उसे एहसास हुआ। उसे लगा कि उसे सबकी नजर बचाकर दौड़कर चले जाना चाहिए।

फिर भी एक बार एम.डी. से बात करूँ, यह सोचकर उस कमरे में गया। एम.डी. ने उसे ऐसे देखा, मानो वह सबकुछ जानता है, कहने के लिए कुछ भी बचा नहीं है। उसने एक मुसकराहट फेंकी। गांधी ने सोचा कि इसके साथ बातचीत करने का कोई फायदा नहीं है। और वह जुगुप्सा में उठकर आया।

अरुण गांधी सूटकेस के जैसे लैपटॉप के बैग को तिपाई पर फेंककर सोफे पर बैठ गया। सामने की दीवार पर टँगी हुई पोपले मुँहवाले गांधी की तसवीर पर उसकी नजर पड़ी। पोपले मुँहवाला गांधी हँस रहा था। उसे लगा कि उसके भूतपूर्व एम.डी. के समान गांधी भी उसे देखते हुए जुगुप्सा में हँस रहा है। उसे अपमान का एहसास हुआ।

इस गांधी की वजह से ही उसे इतना सबकुछ अपमान झेलना पड़ा। वह इतना नाराज हुआ कि उसने सोचा, गांधी की फोटो को ही फाड़ देना चाहिए। प्राइमरी स्कूल से बी.ए. करने तक उसके दोस्त उसे ‘ये गांधी...वो गांधी...’ कहते और खिल्ली उड़ाते थे।

एक बार उसकी इच्छा हुई कि यह नाम उससे कैसे चिपक गया, इसके बारे में शोध करना चाहिए। पिताजी के गले का कॉलर पकड़कर पूछना चाहा, मगर उनको गुजरे बीस साल हो गए थे। गांधी उनका सातवाँ बेटा था। आज नाम रखेंगे, कल रखेंगे, ऐसा सोचते-सोचते दिन बीतते गए और घर में उसे ‘पापच्ची’ नाम से पुकारने लगे, आखिर यह नाम ही रह गया, ऐसा माँ ने बताया था।

जब घर-घर आकर स्कूल में भरती कराने का अभियान चल रहा था, तब अरुण गांधी खेल रहा था। तभी मास्टरजी ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसकी परीक्षा लेनी चाही और उससे दाहिने हाथ से बाएँ कान को पकड़वाकर देखा। लिख लेने के लिए उससे नाम पूछा। तभी मालूम हुआ कि उसका नाम ही नहीं रखा गया है। पास में जो खड़ा था, उससे मास्टर ने मजाक किया कि इसे नाम का ही पता नहीं, फिर जन्मतिथि के आगे क्या लिखना। तभी उसके बड़े भाई ने कहा, ‘‘मुझे मालूम है।’’ फिर वह दौड़कर अंदर गया और अपनी नोटबुक में उसकी जन्मतिथि, जिसे उसने लिखकर रख दिया था, ढूँढ़ लाया और उन्हें दे दी। उसकी जन्मतिथि दो अक्तूबर थी, यह देखकर पुराने जमाने के मास्टर को अचरज हुआ और वह बड़बड़ाया, ‘इस लोकतंत्र में कौन क्या बनेगा, किसे पता।’ उन्होंने सोचा कि यह लड़का भी आगे बड़ा आदमी बन सकता है। फिर उन्होंने उसका नाम ‘गांधी’ रख दिया।

अरुण गांधी जब बड़ा हुआ और कॉलेज में पढ़ने लगा तो अपने गांधी नाम से परेशान हुआ। उसने यह नाम बदल लेना चाहा और नोटरी के पास गया। मैंने बांड पेपर में ‘गांधी’ नाम को बदलकर ‘अरुण’ नाम रख लिया है, इस आशय से एफिडेविट लिखकर नोटरी के आगे रखा, तो उन्होंने एक बार इसके चेहरे को देखा, गांधी के साथ गौरव की जो-जो बातें जुड़ी हुई हैं, पट्टी बनाकर उपदेश दिया, ‘‘तुम चाहो तो अरुण गांधी नाम रख लो।’’ उसी दिन से यह गांधी, अरुण गांधी हो गया।

अरुण गांधी के पास कोई वाहन नहीं था, इसी वातावरण में वह बड़ा हुआ। उसने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वह हवाई जहाज में बैठकर विदेश जाएगा। मगर जब वह अंतिम साल में पढ़ रहा था, तो एक कंपनी ने उसे नौकरी के लिए चुन लिया था। उस कंपनी ने नहीं पूछा था कि तुम्हारे पास कार या मोटरसाइकल है? कंपनी ने उसे हवाई जहाज में बैठाकर विदेश भेज दिया था।

अपने देश में तो गांधी नाम से उसे कई अपमानों का सामना करना पड़ा था, मगर विदेश में उसे बड़ा गौरव मिला था, जिसका वर्णन करना असंभव है। यह शायद उस गांधी का वंशज ही होगा, ऐसा सोचकर कई लोग गर्व का अनुभव कराते थे। कुछ लोग इसे इंदिरा गांधीजी के परिवार का होगा, यह सोचकर इसका आदर करते थे। कुल मिलाकर इसका हर काम आसान हो जाता था।

अरुण गांधी ने गांधी के फोटो को देखा, नजर गढ़ाकर देखा...फोटो की उस हँसी में एक तरह का अपनापन था, प्यार था, शांति थी। बुद्ध की मुसकराहट में, बाहुबली की स्थितप्रज्ञता में, बसवण्णा के अंतरंग में जो कुछ रहा होगा, वह उसे गांधी की हँसी में देखने लगा।

अरुण गांधी को ‘गांधी’ आज न जाने क्यों अधिक आकर्षक लगा। वह फिर गांधी को देखने लगा, मानो उसने गांधी को कभी नहीं देखा हो। जितना भी देखता, फिर-फिर देखने की इच्छा होने लगती। उसे लगने लगा कि गांधी की हँसी की गहराई में कुछ-न-कुछ है। गांधी की तसवीर में अपने आपको देखने लगा...अब उसकी नौकरी छूट चुकी थी, इस संदर्भ में तो गांधी और भी ज्यादा पास आने लगे थे। गांधी आत्मीय लगने लगे।

गांधी ने सोचा कि बाहर जाने से अपमान का सामना करना पड़ेगा, वह पूरे सप्ताह घर में ही बैठा रहा। इंटरनेट में खोजकर जहाँ-तहाँ संभव हो सका, अपने रिज्यूम के साथ अर्जी भेज दी। विदेशों में नौकरी की जो संभावना थी, सबकी जाँच की। मगर कहीं भी नौकरी न पाकर छटपटाया। सोचा कि घर से बाहर आकर जिन-जिन का परिचय था, वहाँ जाकर नौकरी ढूँढ़ू, मगर जिस कंपनी में वह पहले काम कर रहा था, उसका मालिक मैं ही हूँ, ऐसा उसने व्यवहार किया था। अब उनके पास नौकरी की माँग लेकर जाऊँ तो वे क्या सोचेंगे!...उसका अपमान करेंगे, अगर अपमान न भी करें तो भी, कल वह कंपनी बंद नहीं होगी, इसकी गारंटी ही क्या है?

बीवी ने याद दिलाया कि इस महीने का किश्त चुकाया नहीं गया है। आखिरी बार जो पगार मिली थी, उसे उधार पर दिया गया तो नौकरी मिलने तक क्या खाएँगे? बीवी को कैसे पालूँ? पिछले साल ही उसकी धूमधाम से शादी हुई थी। विदेशी कंपनी में नौकरी, डेढ़ लाख की पगार है, यह बात कहकर माँ ने वधु के घरवालों के सामने प्रशंसा की थी और ज्यादा दहेज की माँग भी की थी। मगर लड़की के पिता ने मुसकराते हुए घोषणा की थी कि मैं इतना दहेज दूँगा कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। मगर माँ ने बेटे के सामने अनुमान व्यक्त किया था कि यह दिखावा मात्र है, क्या सचमुच इतना दहेज देंगे?

बैंक से मैनेजर का फोन आया और उसने बताया कि कार की किश्त अभी तक नहीं आई है। इसने अगले सप्ताह देने की बात कही। मगर मैनेजर ने कहा, ‘‘पता चला है कि आपको नौकरी से निकाल दिया गया है, यह सच है, सर?’’ वह आगबबूला हो गया, ‘‘इससे तुम्हें क्या लेना-देना है? हाथ लगा तो दो-चार तमाचा जड़ दूँगा।’’ उसने रिसीवर नीचे पटक दिया।

घर में बैठे-बैठे गांधी की व्याकुलता बढ़ने लगी। उसने सोचा, अगर एक दिन मैं घर में रह जाऊँ तो इतना ऊब जाता हूँ, फिर घर में रहनेवाली औरतों की और जेल में बंद कैदियों की क्या हालत होती होगी? दूसरों से अपनी तुलना करके उसे तसल्ली हुई। सिर पर टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाकर बाहर आया, ताकि कोई उसे तुरंत पहचान न सके। मगर बेंगलुरु के लोगों ने उसकी ओर नजर उठाकर भी नहीं देखा। उसने एक बड़ी कंपनी में डेप्युटी मैनेजर की हैसियत से काम किया था, अब नौकरी से हाथ धोकर सड़क पर उतर आया है, कोई भी उसकी ओर नजर उठाकर नहीं देख रहा है, इसका उन्हें कोई परवाह नहीं है और अपने-अपने मतलब से दूसरों को पीछे धकेलने के जोश में आगे-आगे दौड़ रहे हैं, ऐसा उसे लगा। फिर भी एक तरह की तसल्ली हुई। मगर फिर लगा कि बेंगलुरु में करोड़ों लोगों के बीच वह एकमात्र अकेला है। उसने टोपी और ऐनक उतार दी और सोचा कि कोई उससे बातें करे। वह व्याकुलता से तड़पने लगा। अपार्टमेंट की सोलह मंजिल पर जहाँ उसका घर था, आकर कुरसी में धँसकर बैठ गया। बीवी से फैन का स्विच ऑन करने को कहा। मगर बीवी ने कहा, ‘‘बेस्काम वाले फ्यूज लेकर चले गए हैं, अभी तक शुल्क भरा नहीं, ऐसा कहकर चले गए हैं।’’

‘‘तो क्या इन लोगों का कानून बड़ा है!’’ उसने अपनी बीवी से कहा, ‘‘इनका कानून बढि़या है। पैसे भरने के लिए समय नहीं मिला, भर दूँगा, ऐसा कहना चाहिए था।’’ वह बीवी पर नाराज हुआ। मगर बीवी ने कहा, ‘‘आपको बिल भरने की क्षमता नहीं है, उनके बारे में कहते हो।’’ उसे लगा कि बीवी ने तमाचा मार दिया है। इधर उसे नौकरी नहीं है, बीवी भी उसे तुच्छता से देख रही है।

गांधी फोटो फिर हँस पड़ा, ऐसा एहसास हुआ। वह कहीं भी जाए, गांधी फोटो उसी ओर मुड़कर उसे देख रहा है। वह नाराज होकर देखने लगा। अगर गांधी उसका बाप या दादा होता तो उसके गले का पट्टा पकड़कर पूछा जा सकता था। लंच के वक्त टिफिन बॉक्सों के आगे बैठकर बातें करते समय कहा जाता था कि इस गांधी से ही देश का नाश हुआ है, यह व्यर्थालाप उसे याद आया। अरुण गांधी का मन हुआ कि गांधी से सचमुच हमारे देश को कितना फायदा हुआ है, कितना नुकसान हुआ है, इसके बारे में एक सर्वेक्षण करना चाहिए।

अरुण गांधी रोज गांधी-भवन आने लगा और गांधी से संबंधित हर पुस्तक पढ़ने लगा, मानो सबकुछ खा रहा हो। यह अपने क्षेत्र से संबंधित मामला है, इस कारण से गांधी के आर्थिक चिंतन में रुचि लेने लगा। गांधी के बारे में और कुछ भी पढ़ने लगा। ‘मैं एक आधुनिक मनोवृत्तिवाला आदमी हूँ, मुझे अपनी ओर आकर्षित करना गांधी के बस की बात नहीं है’, ऐसा अरुण गांधी ने सोचा था। मगर अब वह उस पर निछावर हो गया था।

किश्तों को समय पर भरा नहीं गया; बैंकवाले घर और कार को अपने अधिकार में लेने के लिए आए। अरुण गांधी खुद उन्हें देने के लिए आगे आया, जिसे देखकर सबको आश्चर्य हुआ। बीच में आई बीवी को उसने भगवद्गीता का उपदेश देते हुए कहा, ‘‘जब हम यहाँ आए थे, तब हम कुछ भी नहीं लाए थे। जाते वक्त भी कुछ भी लेकर नहीं जाते। अगर हम कुछ कमाते तो वह यहीं कमाते हैं और कुछ खोते हैं तो वह भी यहीं खोते हैं...।’’ मगर बीवी बैंकवालों से झगड़ा कर रही थी कि अब तक हमने जिन किश्तों को भरा है, उन पैसों में जो फर्क होता है, उसे तो लौटा दीजिए।

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गांधी जयंती का दिन था। गांधी-भवन में एक युवक को देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ, जिसने खादी पहन रखी थी। वहाँ गांधी के समकालीन और गांधी के साथ रह चुके स्वतंत्रता-सेनानी भी मौजूद थे। उन सबकी उम्र कम-से-कम सत्तर पार हो चुकी है। यानी गांधी के देहांत के तीस साल बाद जन्म लेनेवाला एकमात्र युवक अरुण गांधी आज इस कार्यक्रम में उपस्थित है, इससे हमें बड़ी खुशी हो रही है, यह बात सभी कहते थे और अपनी पुरानी यादों की गठरी खोलकर परेशान कर रहे थे।

अरुण गांधी नाराज हो गया। वह उठ खड़ा हुआ। उसने सीधा आरोप लगाया कि सचमुच आपने ही गांधी की हत्या की है। सभी डर गए। वहाँ जो-जो इकट्ठा हुए थे, सोचा कि यह युवक संघ परिवार का होगा या उनका पक्का समर्थक होगा। वे सभी दंग रह गए। अरुण गांधी सीधा मंच पर आया और माइक पकड़कर कहने लगा—

‘‘जैसा आप समझते हैं कि गांधी पैदा होते ही बड़ा व्यक्ति बन गया, ऐसी बात नहीं है... मगर वक्त ने उन्हें बड़ा आदमी बना दिया। उस समय भारत को आजादी की आवश्यकता नहीं होती तो गांधी एक अच्छे वकील के रूप में रहकर मर जाते। आप सभी को गांधी समझ में ही नहीं आए हैं। आपने गांधी को समझने की कोशिश भी नहीं की।’’ अरुण गांधी अपने को भूलकर कहने लगा, ‘‘गांधीजी ने सारे राष्ट्र को और राष्ट्र के भविष्य को अपने सामने रख लिया था। इस प्रकार समग्र रूप से देखने पर ही एक स्पष्ट चित्रण मिल सकता है। अमरीका जैसा राष्ट्र जो ढाई सौ वर्ष पहले जन्मा था, एक ही आर्थिक कमजोरी को सह न सका और संकट का सामना करने लगा; मगर भारत को उसकी गरमी का अहसास नहीं हुआ, यह गांधीजी की दूरंदेश का ही परिणाम है। आज हम अपने पाँव पर खड़े हैं, मगर अन्य देश दूसरों पर अवलंबित हैं। बस...

‘‘मैंने आज तक दूसरों पर अवलंबित होकर फ्लैट, कार, सबकुछ हासिल किया था, यह सच है। मैंने जिस एक छोटी सी नौकरी पर विश्वास कर लिया था, हाथ से निकलते ही मुझे लगने लगा कि यह सब कुछ मेरा नहीं था, जो मेरा सबकुछ बन गया था। मैं उधार चुका न सका, बैंक में मेरे नाम पर जो-जो था, उनके कब्जे में चला गया। अगर मैं अपने ही ऊपर अवलंबित होता तो क्या यह सब घटित होता? यह एक छोटा-सा उदाहरण है, बस।

‘‘इसी कारण से गांधी मुझे सिर्फ एक स्वातंत्र्य-सेनानी के रूप में और एक राजनेता के रूप में दिखाई नहीं दे रहा है, बल्कि एक अर्थशास्त्रज्ञ के रूप में दिखाई दे रहा है, एक समाजशास्त्रज्ञ के रूप में दिखाई दे रहा है, इस प्रकार सबकुछ के रूप में दिखाई दे रहा है।

‘‘एक ही रेखा में गांधी को लिखिए—ऐसा कहने पर कलाकार एक प्रश्नचिह्न लिख देते हैं। सचमुच गांधी एक प्रश्नचिह्न ही हैं। मगर वे सिर्फ प्रश्नचिह्न बनकर ही नहीं रह पाते हैं और सबके जवाब के रूप में भी दिखाई देने लगते हैं, सताने लगते हैं। यही गांधी की ताकत है, शक्ति है।’’ इतना कहकर वह बैठ गया।

गांधी को आगे बढ़ा ले जाने के लिए एक पर्याय व्यवस्था मिल गई, यह धन्यता भाव वहाँ उपस्थित बुजुर्गों के चेहरे पर नाचने लगा!

नवनीत, द्वितीय क्रॉस, अन्नाजी राव लेआऊट

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