मेरे गाँव की अद्भुत परंपरा - रासोत्सव

महाराष्ट्र राज्य के नाशिक जिले में बागलान तहसील में मुल्हेर नाम का छोटा सा ग्राम है। यहाँ से ९०-९५ कि.मी. की दूरी पर गुजरात राज्य की सीमा शुरू होती है। प्राचीन काल में मुल्हेर, मयूर नगरी नाम से प्रसिद्ध था, जिसका संबंध राजा मयूरध्वज और ताम्रध्वज से है। गाँव के समीप दूर-दूर तक प्राचीन मंदिर और घरों के अवशेष बिखरे हुए हैं। सीढ़ीवाली बड़ी-बड़ी बावडि़याँ पेड़ों से ढकी हुई हैं।

ऐसी पौराणिक कथा है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ किया। स्वयं अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ सेना लेकर नर्मदा लाँघकर मयूर नगरी के पास आए। मयूरध्वज और ताम्रध्वज पिता-पुत्र ने अश्वमेध के अश्व को बाँध लिया। श्रीकृष्णजी को अर्जुन का गर्वहरण करना था। मयूरध्वज पिता-पुत्र ने अर्जुन को श्रीकृष्ण के साथ बंदी बनाया। अर्जुन का गर्वहरण हुआ। तब मयूरध्वज राजा ने श्रीकृष्ण भगवान् से वरदान माँगा—‘‘मुझे अपनी दिव्य रासक्रीड़ा दिखाओ।’’ श्रीकृष्ण ने मयूरध्वज को रासक्रीड़ा का अनुभव दिया। तब से हमारे गाँव में हर साल आश्विन मास की पूर्णिमा को रासोत्सव का आयोजन होता आ रहा है।

‘रासोत्सव’ के तीन महत्त्वपूर्ण अंग हैं। एक तांत्रिक, दूसरा सामाजिक और तीसरा आध्यात्मिक। गाँव से दो फर्लांग की दूरी पर पेड़ों से घिरा ९७वीं सदी में जनमे श्रीउद्धव स्वामी का समाधिमंदिर है। मंदिर के चारों ओर तटबंदी और बड़ा प्रवेश-द्वार है। मंदिर के सामने खुली जगह पर नक्षीकाम किया हुआ 92 फीट ऊँचा लकड़ी का मजबूत स्तंभ है। उसके ऊपर ९० इंच का लोहे का आंस (axle) है। रास-उत्सव के दिन आठ फीट व्यास का लकड़ी का मजबूत चक्र खंभे के ऊपर से जमीन पर बिछाया जाता है। दस फीट लंबी बाँस की दंडियाँ चक्र को बाँधकर २८ फीट व्यास का मकड़ी के जाल जैसा बड़ा चक्र बनाया जाता है। उस चक्र को केलों के पत्तों से ढका जाता है। सूर्यास्त के समय सूरज और चंद्रमा को साक्षी रखकर यहाँ बड़ा चक्र लकड़ी के स्तंभ पर चढ़ाया जाता है। बहुत सारे लोग चक्र उठाते हैं और लकडि़यों के सहारे खंभे के आंस पर रखते हैं। चक्र पूरी रात घूमता है। (फिरत मंडल करीयलेत रासमो बिहारी।) चक्र के नीचे रासक्रीड़ा का भजनगान होता है। चक्र का खंभे पर चढ़ाना आह्वानात्मक होता है। दूसरे दिन सुबह रासक्रीड़ा की समाप्ति पर चक्र नीचे उतारा जाता है। यह रासक्रीड़ा का तांत्रिक अंग है।

रासक्रीड़ा का सामाजिक अंग—दस-बारह साल के लड़के को कृष्ण जैसा सजाया जाता है और पच्चीस-तीस लड़के लड़कियों का भेष पहनकर गोपियाँ बन जाते हैं।

रासक्रीड़ा का भजनगान रासोत्सव का महत्त्वपूर्ण अंग है। श्रीव्यासकृत भागवत् ग्रंथ के दशम स्कंध में रासपंचाध्यायी में रासक्रीड़ा का वर्णन है। १७वीं सदी में मयूरनगरी में उद्धवस्वामी नाम के महान् संत हुए। उनकी ग्रंथ संपदा और कुछ भजनकाव्य प्रसिद्ध हैं। श्री काशीराज पंडित उनके गुरु थे, जो औरंगजेब बादशाह के बहिरामशहा नाम के सरदार के किले में अमात्य थे। काशीराज महाराज गणेशजी के बड़े भक्त थे। काशीराज महाराज और शिष्य उद्धवस्वामी ने भागवत रासक्रीड़ा पर आधारित १६वीं और १७वीं सदी के ३४ संत कवियों के १०५ भजनकाव्यों का संकलन किया। ये भजनकाव्य २१ संगीत रागों में हैं। अश्विन पूर्णिमा के चंदेरी रातभर इन भजनों का पहाड़ी आवाज में गायन होता है। साथ में काँसे की झाँजें और मृदंग बजाए जाते हैं। बजाने का विशिष्ट तरीका होता है। बहुत सारे भजन ब्रजभाषा में यानी कृष्ण की मैया बोली में और एक-दो भजन गुजराती भाषा में हैं। इन भजनों में राधा-कृष्ण और गोपियों की भक्ति-प्रेम की अमर गाथा उमड़ने लगती है। भजनगान में समाज के सभी अंगों के लोग भाग लेते हैं, इसलिए यह परंपरा सामाजिक परंपरा बन गई है। कुछ भक्तगण भजनगान में विभोर हो जाते हैं। ‘ईश्वर देखने गया और ईश्वर ही बन गया’ का अनुभव लेते हैं। आनंद सागर में आनंद तरंग बन जाते हैं। क्या है यह रासक्रीड़ा? चुनिंदा भजनों के सहारे रासक्रीड़ा का हम संक्षिप्त में अनुभव लेंगे—

प्रथमतः मयूर ग्राम का उसकी चतुः सीमा के साथ एक मराठी श्लोक में वर्णन है—

सोमेश, बाबेश, महेश लुंगेश।

शेणवंत राहती पवित्र देशे॥

श्रीमोक्ष गंगा, तट हौंस भीड़े।

व्यक्तं जगत् रक्षति उद्धवेशं॥

अर्थात् गाँव के दक्षिण और उत्तर दिशा में सोमेश्वर और बाबेश्वर शिवमंदिर; उत्तर-पूर्व में महेश और तुंगेश, ये गिरि शिवस्थान और दिगंबर जैनों का पवित्र स्थान। पवित्र देश में शेष-भगवान् वास करते हैं। मोक्षगंगा नदी तटों को पावन करती है। ऐसी नगरी के उद्धव स्वामी सारे व्यक्त जगत् का रक्षण करते हैं।

मोर मुगूट कटि काछनी, पितांबर वनमाल।

उद्धव की कुलदेवता, सो मदनमोहन नंदलाल॥

(मयूर पंखों का मुकुट, कटी पर काछनी ओढे़, पीतांबर पहने और वनमाला धारण किए हुए, मदन को मोहित करनेवाले नंदपुत्र हमारे उद्धव स्वामी के कुलदैवत हैं।)

एक चंदेरी रात में वृंदावन के समीप कुंजवन में कन्हैया बाँसुरी बजाते हैं। बाँसुरी के सुर का सारे वृंदावन पर क्या असर होता है, इसका वर्णन इस भजन में देखिए (राग सोडी)—

ब्रजबनिता धुनी श्रवण सुनी हो सुनी बाँसुरी।

भुवन त्यजे सब काज सुनत बन बाँसुरी॥

आभ्रण उलटी-पलटी सजी हो सुनी बाँसुरी।

वसन किए विपरीत सुनत बन बाँसुरी॥

पति सुत सासू ससुर त्यजे हो सुनी बाँसुरी।

मोहन मन हरलीन सुनत बन बाँसुरी॥

मृगसुत तृन त्यजी रहे हो सुनी बाँसुरी।

मौन धरे खग मोर सुनत बन बाँसुरी॥

गोसुत पय पीवे नहीं हो सुनी बाँसुरी।

थक्यो जमुना को नीर सुनत बन बाँसुरी॥

रवि शशि रथ टेकी रहे हो सुनी बाँसुरी।

गगन विमान भई भीर सुनत बन बाँसुरी॥

मारुत मंद मगन भए हो सुनी बाँसुरी।

चलत नहीं तरुपात सुनत बन बाँसुरी॥

शिव गिरिजा संगीत मोहे हो सुनी बाँसुरी।

मुनीजन मेट्यो ध्यान सुनत बन बाँसुरी॥

निरखी नयन वपु जुगवर के हो सुनी बाँसुरी।

मन्मथ मानी हार सुनत ओहो बन बाँसुरी॥

तान तरंग रंग उमंगी रहे हो सुनी बाँसुरी।

शंकर सुत सुख होय सुनत बन बाँसुरी॥

कान्हा की बाँसुरी सुनकर निसर्ग का कण-कण चैतन्यमय हो जाता है। वृंदावन की गोप-गोपियाँ, नर-नारी कुंजवन की ओर दौड़ पड़े। गोपियाँ सबसे आगे थीं। कान्हा ने दूर से गोपियों को देखा, बाँसुरी बजाना बंद किया और पास आने पर पूछा (राग-सामेरी)—

‘‘जब हरी देखे, ठिगे ब्रजबाला। तिनसोजु बोले मदन गोपाला॥१॥ अर्धनिशा तुम क्यों आई, या तो निंदिया वेद श्रुती गाई॥२॥ निंदिया वधु वेद गावे। कुलवधु क्यों पती त्यजे॥३॥ लोक कहत कलंक लागे। पर पुरुख तरुनी भजे॥४॥ तुम जाओ भामिनी उल्टी अब ग्रह। जुगत नाही बातियाँ॥५॥ पती तुम्हारे पंथ जोवे। जाम जुग गई रातियाँ॥६॥ ऐसे गोप धुया धर्म नाही। कहत शाम तमालिया॥७॥ ऐसे कठिन वचन गोपाल बोले। देखि ठिग ब्रजबालियाँ॥८॥’’

कान्हा ने आगे कहा (राग-सामोरी)—

‘‘तुम जाओ सबे ब्रजनारी। तुम मानो सीख हमारी॥ तुम विधि अपनी खद कीजे। ग्रह पती को आदर कीजे॥ तुम धर्म-कर्म संसारी। तुम एक पुरुख भजो नारी॥’’ १०-११ साल के कृष्ण परमात्मा ने गोपियों को धर्मोपदेश किया।

कान्हा का उपदेश सुनने के पश्चात् गोपियाँ आगे आईं और कान्हा को एक-एक करके पूछने लगीं—‘कान्हा ऐसे कठिन वचन ना बोलो।’

हम भुलाई निज निगम धुनी, मुरली मधुर बजाय।

गोबंधन तोरे मिले तो रुचो रह्यो कित जाय॥

‘‘हम पतिव्रता कामिनी, सुनो हो जगतपतीनाथ। परपुरुख कू हम ना भजे, हम भजे निजनाथ॥ ये ही अर्थ है वेद को सुनो हो कपटनिधान। येने पर कछु बोली हो, तो अबही अर्पू प्रान॥’’

(कान्हा, मुरली की धुन सुनकर हमारा हृदयस्थ परमात्मा जाग उठा। हम पतिव्रता नारियाँ हैं, परपुरुख की ओर हम नेत्रकटाक्ष भी नहीं डालतीं। हमारे हृदयस्थ परमात्मा, जो हमारे सामने अवतीर्ण हुए हैं, उन्हें मिलने आई हैं। वेदों में यही लिखा है।)

उसके बाद, ‘‘कोऊ भटेल, कोऊ पाव परत, कोऊ चितवन हास।’’

कान्हा ने गोपियों से कहा—

‘‘भले आई, दरशन कियो, बन देखी, अब गृह जाव।’’ लेकिन गोपियाँ वापस जाने को तैयार नहीं। कैसे जाएँगी? मन ही नहीं भरा!

श्रीकृष्ण परमात्मा ने गोपियों के हित के बारे में सोचा। उनकी अगाध भक्ति देखी और रासलीला का अद्भुत आयोजन किया। सारे संसार को भूलकर अंतर्यामी परमात्मा के साथ जुड़ जाना, परमात्मा ही बन जाना रासलीला है। ऐसा जाना जाता है कि सारे संतों को परमात्मा ने वचन दिया था—श्रीकृष्ण अवतार में मैं मेरे भक्तों को रासलीला का अनुभव दूँगा। सारे संत गोपियाँ बन गए और उन्होंने रासलीला का अनुभव लिया। अंतरधान के श्लोकों में रासलीला का अलौकिक वर्णन है। सारा निसर्ग रासलीला की तैयारी में जुट गया। रासलीला देखकर सारा ब्रह्मांड अचंभित हो गया। मन लगाकर इस वर्णन का आस्वाद कीजिए—

चतुर चिंतामणी चितय के, गोपिन के हित जान।

अनंत रूप आपन भये, एक गोपी एक कान्ह॥१॥

अद्भुत लीला अती धरी, कथी कौन ये जाय।

तीनलोक चवदा भुवन रहे अचंबो पाय॥२॥

सोलकला धर की शशी, रह्यो नक्षम बिछाय।

ग्रह तारे निशी न चले रवि उगन पाय॥३॥

महिधर, सागर, अंबर, गिरि सरिता के नीर।

पवन परसत भूमि पर, निरखी भकीत भयो तीर॥४॥

शिव सनकादिक सुरपती, सुरनर रहे सुमोह।

सोच परे चतुरानन ब्रह्मा अचंबो पाय॥५॥

रासक्रीड़ा शुरू हुई। गोपियाँ अपने आपको भूलकर ब्रह्मानंद में लीन हो गईं। गोपियों का परमानंद देखकर स्वर्ग की देवांगना अपने स्वर्गीय जीवन को तुच्छ मानने लगीं। स्वर्ग में अटल सुख है; लेकिन वहाँ परमात्मा कहाँ हैं? धरा पर तो बैकुंठ उतरा है।

अमरपुरी सब इंद्र की देवांगना रहीं देख।

गोपिन को सुख निरखी के, निंदती अपुनो भेख॥ ६॥

रासक्रीड़ा का अनुपम वर्णन देखिए (राग-केदार)—

‘‘सुनिधुनि मुरली बन बाजे, हरिए रास रच्यो अनु हा, हा, हा, हरिए, रास रच्यो॥ कुंज-कुंज द्रुमबेलि, प्रफुल्लित। मंडल कंचन मणी नख च्यौरे॥ हरिये रास रच्यो, अनु हा, हा, हा (धृ) निर्तत जुगलकिशोर जुवती जन। मानुमिली रागकेदार रच्यो हे, हरिये...॥धृ॥

हरिदास के स्वामी शामा कुंज बिहारी।

निके आज गोपाल नचो हे, हरिये रास रच्यो॥ धृ॥’’

रासक्रीड़ा की अद्भुत लीला देखकर महान् संत कबीरजी अपने आपको उपदेश करते हैं—

कबिरा कबिरा क्या कहे, जा जमुना के तीर।

एक गोपि के प्रेम में बह गए कोटि कबीर॥

सारी गोपियाँ रासक्रीड़ा में मगन हो गईं। फेर पकड़कर नाचने लगीं। गिरकियाँ लेने लगीं। नाचते-नाचते उन्होंने देखा—सारा ब्रह्मांड विस्मित होकर उनको देख रहा है। उनकी प्रशंसा कर रहा है। और—

तब अपनो आनंद देखि के गोपिन धर्यो गुमान।

अविगत ऐसी समज के, तब भए हरि अंतरधान॥

गोपियों का अहंकार जाग उठा।

रासमंडल गिरिधर रच्यो, दे गोपिन सुखदान।

रसिकनि राधा संग लिए, तब भये हरि अंतरधान॥

(राधाजी के साथ कृष्ण परमात्मा अंतर्धान हुए।)

अचानक यह क्या हो गया। गोपियाँ व्यथित हो गईं। रासक्रीड़ा थम गई। गोपियाँ खुद को दोष देने लगीं। दीन अवस्था में वे कान्हा को, राधा को ढूँढ़ने लगीं।

कुंज-कुंज खोजत फिरे, पूछति दीनदयाला।

प्राणनाथ पावे नहीं, ताथे व्याकुल भई ब्रजबाला॥

राधाजी के साथ कान्हा वन में चले गए। राधाजी को लगा कि कान्हा सिर्फ मेरे हैं। कुछ अंदर चलने के बाद राधाजी ने कन्हैया से कहा, ‘‘कान्हा और कितने चलोगे। मैं तो थक गई। अब क्या तुम मुझे कंधे पर ले जाओगे?’’ महाराष्ट्र में बहुत सारे संत हो गए। संत नामदेव उनमें से एक हैं। वे हमेशा सोचते थे—पंढरपुर के विट्ठल परमात्मा सिर्फ मेरे हैं। उनको अच्छा नहीं लगता, यदि दूसरा संत विट्ठल परमात्मा के समीप आता। संत नामदेव विट्ठल के बहुत लाड़ले थे। वैसा ही हुआ राधाजी के साथ।

पिया संग एकांत रस, विलसत राधा नार।

स्कंध चढ़न प्रभु को कहे, तब त्यज गए मुराद॥

इस श्लोक का अर्थ है—अंतर्यामी परमात्मा जाग गए। राधा परमात्मा बन गईं। उसके बाद—‘‘न राधा रहीं, न परमात्मा ही। एकांत हो गया। एक का भी अंत हो गया। राधाजी स्थल काल के परे चली गईं। ब्रह्मानंद में डूब गईं।’’ लेकिन यह पवित्र अनुभूति क्षणमात्र थी। कान्हा चले गए। (राग-चर्चरी)—

डार-डार, पात-पात ढूँढ़त बन राधे।

हरि को पथ कोउ न कहे, सबनी मौन साधे॥

वसुधा जड़ रूप धर्यो, काहे नहीं बोले।

हरि को पद परसियाय संग लागी डोले॥

परमानंद स्वामी दयाल, निठूर भए भाई।

हमारो रोग देख जान कीन्ही चतुराई॥

वन में राधाजी ने हर पत्ते, पौधे में कान्हा को ढूँढ़ा। किसी ने भी हरि की राह नहीं बताई, सब मौन हो गए। धरतीमाता ने कुछ कहा नहीं; कान्हा के हर पदस्पर्श के साथ वह डोलने लगी। कान्हाजी रूठ गए, लेकिन चतुराई से उन्होंने हमारी कमियों की ओर संकेत किया।)

सारी गोपियाँ कान्हा को ढूँढ़ रही थीं। उन्होंने राधाजी को अकेले देखा। वे उनके पास आकर बोलीं, ‘‘राधाजी, आप अकेली क्यों? कहाँ हैं, कान्हा? आप उनको साथ ले गई थीं!’’ राधाजी ने कहा (राग-सोरट—आने वाटडियो गयो वनमाली रे, मोरी बेन्हडियो॥

(मेरी बहनो, इसी पगडंडी से गए वनमाली।)

सारी गोपियाँ राधाजी के साथ कान्हा को ढूँढ़ने लगीं। वे थक गईं, लेकिन कान्हा नहीं मिले। अब क्या करें! कान्हा की विविध लीलाओं को वे याद करने लगीं (राग-आर्जा)—

एक भइजु गोपाल संसारी, जिने दुष्ट पूतना मारी।

एक रूप मुकूंदज कीनो, जिने तृनावृत हर लीनो।

एक भैरव दामोदर धारी, जिने जमला अर्जुन तारी॥

(एक गोपी कृष्ण बनी और उसने पूतना बनी गोपी का झूठ-मूठ वध किया। दूसरी ने मुकुंद बनकर तृणावृत का हरण किया। तीसरी ने यमलार्जुन का उद्धार किया।)

इस तरह कृष्ण की लीलाओं में गोपियों ने बहुत समय बिताया। फिर भी कान्हा नहीं आए। बाद में उन्होंने रासक्रीड़ा का आयोजन करने का सोचा, लेकिन कान्हा बिना यह कैसे संभव होगा। तब राधाजी ने मोर-मुकुट धारण किया, गले में कौस्तुभमणि और ओठों पर मुरली। राधाजी खुद कृष्ण (श्याम) बनीं। इसका सुंदर वर्णन इस भजन में देखिए (राग-नट)—

मुकुट-मणी, शामा (राधा) आज बनी।

संग-सखी सब नाचत-गावत। येहि शामधनी॥ धृ॥

तब राधाजिय रास बनायो, मुरली मुगुट धरी।

थेई-थेई करत ब्रजनारी, कृष्ण चरित्र करी॥१॥

निरखत ब्रह्मा, सुरमुनि हरखत नारद सिद्धमुनि।

तेहतीस कोटि देख सब हरखत, सबहि सहस्र फणि॥२॥

रवि-शशी जमुना पुलिन थकित भई सबसे सरस धनी।

रासबिलास करत हे सजनी! रामस्वरूप बनी॥३॥

गोपी एक पूतना करीके, सोकि पयपान करी।

जमला अर्जुन वृक्ष दो उद्धारे, बली सबे उद्धरी॥४॥

ब्रह्मालीला किन्ही गोपिका, नटवर भेख धरी।

रामदास प्रभु कौतुक देखे, हरखे त्रैलोक्य धनी॥ ५॥

मुगुट-मणी शामा आज बनी॥

रासलीला बहुत देर चली, लेकिन किसी का मन नहीं लगा। कान्हा के बिना यह कैसे संभव था! फिर गोपियों ने कृष्ण-दर्शन की लालसा में अमर ‘गोपीगीत’ गाया—

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्रहि।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासव स्त्वांविचिन्वते॥

(गोपियाँ कहती हैं—लक्ष्मी से भी हम धन्य हैं, क्योंकि हम व्रज में जनमी हैं।)

यत्ते सुजात चरणाम्बुरुहं स्तनेषु, भीताः शनैः प्रिय दधी महि कर्कशेषु। ते नाटवी मटसि तद् व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदा युषां॒नः॥

(भक्तों के लिए सारे संसार में अनवानी घूमनेवाले कृष्ण-परमात्मा के कोमल चरण-कमलों में कितनी वेदना होती होगी, हम गोपियाँ उनके राह की पगडंडी बनकर उनके चरण धूल में समा जाएँगी।) गोपियाँ कृष्ण के चरण-कमलों का ही सदा ध्यान करती थीं। श्रीशुक उवचा—

इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा।

रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्ण दर्शन लालसाः॥

तासामाविरभूच्छेरिः स्मयमान मुखाम्बुजः पिताम्बर

धरः स्त्रग्वी साक्षात् मन्मथ मन्मथः॥

(इस तरह गोपियों ने अलग-अलग सुस्वरों में रो-रोकर गोपीगीत गाया। कृष्ण दर्शन की लालसा में वे मन्मथ हो गईं। नतमस्तक हो गईं।)

गोपीगीत के गायन पश्चात् भी कान्हा नहीं आए।

बारोबन धुंडत फिरी काहु न देखे कान्ह।

जन्मचरित्र सब कर थकी, सो करूना कोमल गान॥१॥

हारी, सब उपचार करी, अति बिरहातुर बाल।

रुदन करत भई सब दुखित, बिलोकी दयाल॥२॥

आसूअन भीगे कंचुकी काजर माचो कीच।

थेई-थेई करत प्रगटे, वाही मंडल बीच॥३॥

सिंधजी छबी रतना सहे निजदासी नंदलाल।

बिकल बजावन बेगि मिले, सो भक्तन के प्रतिपाल॥४॥

प्रेमप्रीत पहिचान के हरि आए उनके पास।

मुदित भइ सब मानुनि छबी कहत कृष्णोदास॥५॥

वृंदावन के चारों ओर बारह वन थे। गोपियों ने सारे वनों में कान्हा को ढूँढ़ा। उनके चरित्र का करुणामय गान किया। गोपीगीत गाया। ये सारे उपचार करके वे हार गईं। कान्हा के विरह में फूट-फूटकर रोने लगीं। आँसुओं से उनकी कंचुकियाँ भीग गईं। गालों पर आँखों का काजल बहने लगा। ऐसी अवस्था में वे कान्हा को ढूँढ़ती रहीं, ढूँढ़ती रही। आखिर मंडल में धीरे-धीरे प्रगट हुए, भक्तों के प्रतिपालक नंदलाल। वे गोपियों के पास आए। कृष्णदास नाम के संत ने देखा—सब गोपियाँ आनंदविभोर हो गईं।

भक्ति की अत्युच्च सीमा है विनम्रता। सारी गोपियाँ विनम्र हो गईं। महाराष्ट्र के महान् संत तुकारामजी ने कहा है, ‘‘नम्र झाला भुता, तेने कोडियले अनंता,’’ विनम्रता से अंतरात्मा जाग जाता है।

गोपियों को कान्हा मिल गए। अब उनसे वे कभी बिछड़ेंगे नहीं, लेकिन राधाजी कहाँ हैं? कौन थीं वह? हरिदास नाम के संत ने देखा—राधाजी श्रीकृष्ण परमात्मा में विलीन हो गईं। राधाजी ब्रजवासियों के भक्ति-प्रेम की अखंड ‘धारा’ थीं। जो इस धारा में बहेगा, वह कान्हा के पास पहुँचेगा। राधा-श्रीकृष्ण भगवान् के पास जाने का मार्ग है।

शृंगार उत्तर रंगे, ध्येयं गोपी बल्लभनाथे।

वृंदावन तनधारी हरी, नाचे सावकाश चित्ते॥

(भजन-राग-चर्चरी)—

कृष्ण साथ हात जोरी बीच-बीच सुंदरी।

कलाविलास खेलति निवास शाम गुर्जरी॥ धृ॥

चित्तन मिलि अबला सो तीत नीत की कला।

अनंत रूप नंद-नंदन नायका सबे भली।

स्वेद को प्रसेव बिंदु बेरबेर पूछती।

मुखारविंद शाम को चकोजो विलोकती॥

सुनि वेणुनाद पूर्ण शाम शर्द ज्योति शर्वरी।

कृष्णराय गीत गाय रात हे बड़ी खड़ी॥

 

सोलह कला पूर्ण चंद्रमा पश्चिम की ओर ढलता गया। गोपियाँ अपने नीले-साँवरे कान्हा के साथ रासक्रीड़ा में मगन हो गईं। और यह रासलीला नीले आकाश की गहराई में समा गई, फिर कभी प्रगट होने के लिए।

(राग-मालगौडा)—

धन-धन वृंदाबननी शोभा। धन ते आसो मास रे॥

धन-धन कृष्ण कहुलनी लीला, धन गोपी रमे रास रे॥

लाल मृदंग बेनने मौहर, बहुबिधी बाजा बाजे रे॥

थेई-थेई-थेई कार करंता, नादे अंबर गाजे रे॥

कंठ कोकिला शब्द उच्चरे, नोतन तन उपजावे रे॥

मगन थईने मोहन पाम्या, गंधर्व गान हराव्या रे॥

धन-धन गोपी, धन ये लीला, धन ये रसमा माली रे॥

उमया वरनी वाहे वलगी, नरसैयो दिवि झाँकी रे॥॥

धन्य हो तुम नीले साँवरे कृष्ण भगवान्!

जय हो! जय हो!

एल.आई.जी. कॉलोनी, ६५/३

सिंधू नगर, सेक्टर-२५ निगडी

पुणे-४११०४४, महाराष्ट्र

दूरभाष :९९२२८१५८३२

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