बडे़ साहित्यकार का संकट

बडे़ साहित्यकार का संकट

इससे कौन इनकार कर सकता है कि वह साहित्य का बड़ा और ऊँचा झाड़ है? ऐसा नहीं है कि बड़ा बनने का रास्ता आसान है। पहले कभी रहा होगा। अब तो पेड़ को भी लगातार देखभाल की जरूरत है। आसपास प्रदूषण है और जमीन में इतनी दीमक कि बीज या नन्हे पौधे को उगते ही चट कर जाए। तब इतना प्रदूषण अथवा प्रतियोगिता कहाँ थी? अच्छा लिखना ही काफी था, नाम और प्रसिद्धि पाने को। अब तो बाकायदा युद्धरत खेमे बन गए हैं साहित्य में। जितने दल देश की सियासत में सक्रिय हैं, साहित्य में उससे कम नहीं हैं। कोई आश्चर्य नहीं होगा, यदि कुछ ज्यादा ही हों! कोई अगर श्रेष्ठ लिख भी रहा है, तो क्या हुआ? पहले साहित्यिक जिज्ञासु पता करेंगे कि वह किस खेमे का है? अपने का होता तो खबर होती। आका को फर्शी लगाता, उनसे प्रमाण-पत्र लेता। शर्तिया विरोधी कैंप का है। इसमें प्रतिभा कैसे संभव है? बस रोजमर्रा की साहित्यिक महाभारत में स्वयं को निर्णायक मानकर वह उसे कौरव ही नहीं, उनका आका दुर्योधन भी घोषित कर दें, तो ताज्जुब नहीं है।

 

यों दुर्योधन घोषित होकर भी खुश होनेवालों की कमी नहीं है लेखकों में। यदि विरोधियों ने सौ में से एक माना तो इतना ही क्या कम है? लंका में आम राक्षस होने से बेहतर है, लंकेश्वर रावण होना। कम-से-कम खुद को राम समझनेवालों से उसकी सीधी टक्कर तो होगी, फिर ख्याति का भी प्रश्न है। सीता-हरण करना क्या सबके वश में है? अगर राक्षस ही बनना है तो सामान्य होने में क्या धरा है? वर्तमान समय में कन्या-हरण तो एक आम वारदात है। यदि लेना ही है तो किसी सत्ताधारी की पत्नी या पुत्री के साथ पंगा लेना है, वरना अखबार की सुर्खियों में स्थान पाने की संभावना कम ही है।

बड़े लेखक की दिक्कतों का अंत यहीं नहीं है। खेमाहीन का बड़ा बनना कठिन है। वह सफलता के उसूलों को झुठलाकर कैसे आगे बढ़े? लिहाजा, उसे हर खेमे के साथ जुड़ाव का प्रदर्शन करना है। खग जाने खग की ही भाषा। वह हर खेमे के सन्मुख उसके चुने हुए प्रिय शब्दों का ही प्रयोग करता है। अब वह कभी प्रगतिशील है, कहीं राष्ट्रीयता से ओतप्रोत। कभी सेक्युलर तो कभी मंदिर के सामने सिर झुकाए। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। पर विवशता है। धर्म-निरपेक्ष भारतीय नीति-निर्माताओं ने सेक्युलर को धर्म का दर्जा दे दिया है।

अब जैसे कोई हिंदू है या ईसाई है, वैसे ही सेक्युलर है। तरक्कीपसंद वही हो सकता है जो सेक्युलर हो। कोई भी रेगुलर हिंदू सेक्युलर की गिनती में आने के काबिल नहीं है। जैसे सियासत का विभाजन है, वैसे ही साहित्य का भी। बड़े साहित्यकार का बड़प्पन यही है कि वह सबको उन जैसा दिखता है। इसे कोई शब्दों का ढोंग कहे या व्यवहार का स्वाँग, पर जीवन के नाटक में यह उसकी नामचीन कामयाबी है।

उसके मुखौटों के छिपे मुख की पहचान कठिन ही नहीं, असंभव है। वह कहता भी है कि उसकी प्रतिबद्धता इनसान से है, उस पर चस्पा लेबल से नहीं। यों वह स्वार्थसिद्धि के हर सत्ताधारी लेबल के साथ है। इस मामले में उसकी ऐसी सिफत है कि रंग बदलते गिरगिट भी उससे प्रशिक्षण लें। जिधर उसे सत्ता का सूरज उगता दिखता है, वह समय का ऐसा सच्चा सूरजमुखी है कि अपने साहित्यिक जुड़ाव को पीठ दिखाकर, उसी दिशा में रुख करने में समर्थ है। मीन-मेख के कई धुरंधर इसी प्रतिभा को उसकी सफलता का राज बताते हैं। कुछ की मान्यता है कि वह खोजू प्रतिभा का धनी है। तभी तो उसने खोज-खोजकर हर छोटे-बड़े पुरस्कार को हथियाया है। कई प्रशंसक इस मत के हैं कि वह सही समय पर धरती पर अवतरित हुए हैं। कहीं सूर-तुलसी के जमाने में पैदा हुआ होता, तो बिना सम्मान-पुरस्कार के क्या पता आत्महत्या कर लेता!

बहरहाल, वह जीवित ही नहीं, उसके लेखन को कालजयी बतानेवालों का भी अभाव नहीं है। कुछ के अनुसार वह खुद युग-प्रवर्तक है। उस पर शोध करनेवालों का मानना है कि उनका उससे अधिक विनम्र व्यक्ति से शायद ही पाला पड़ा हो। वह स्वयं अपने बारे में लेखों की फोटोप्रति, चाय-पकौड़ी के साथ उन्हें समर्पित करता है, यह कहते हुए कि वह मिष्टान्न भी उन्हें अवश्य खिलाता, पर देश में बढ़ते हुए मधुमेह के प्रति सजग है और नहीं चाहता है कि युवा उसके समान इस रोग से सताए जाएँ। आज के इस स्वार्थी संसार में परमार्थ को समर्पित ऐसे व्यक्ति कहाँ मिलेंगे?

उसने देश की हर समस्या पर सारगर्भित लेखन किया है। हर बड़े लेखक के समान वह अपने लेखन के विषय का गंभीरता से अध्ययन करता है। जब उसने भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका पर लिखने का मन बनाया तो उनके पास और नजदीक जाकर ऐसा करीबी अध्ययन किया कि उसकी पत्नी अलग रहने के कगार पर आ गई। जब यह विवाद निजी से किसी खोजू साहित्यकार की अनुकंपा से सार्वजनिक हो गया, तो बड़े साहित्यकार ने बयान दिया, ‘‘यह सब किसी के दूषित मन के दुराग्रहों की शरारत है। मैं और मेरी पत्नी साथ हैं और हमेशा साथ रहेंगे। यह व्यर्थ में मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालने का प्रयास है। इसे होली बीतने के बाद की मूर्खतापूर्ण भ्रामक ठिठोली की संज्ञा ही दी जा सकती है।’’

इसी बीच महिलाओं की एक संस्था ने लेखक की अनैतिक हरकतों के खिलाफ  मोर्चा खोल दिया है। अब वह जिस भी समारोह में पधारते हैं, महिला मोर्चा उनकी ‘हाय हाय’ करता है। वह इसे कुछ विरोधियों द्वारा प्रेरित उनके चरित्र हनन की ऐसी असफल साजिश बताते हैं, जिसकी सफलता की कोई संभावना नहीं है। इससे एक सुखद परिवर्तन आया है। पहले वह अकेले जाते थे। अब वह हर समारोह में अपनी पत्नी को ले जाना नहीं भूलते हैं। उनके मन में ऐसा अपराध-बोध है कि मिलना तो दूर, लेखिकाओं से वह कतराते हैं।

कुछ जानकारों का आरोप है कि यह उदासीनता केवल एक दिखावा है। एक मित्र प्रकाशक ने उनकी अधिकतर पुस्तकें छापी हैं। वह उसकी गृह-पत्रिका से जुड़े हैं। प्रकाशक के सौजन्य से वहाँ उन्होंने एक दफ्तर बना लिया है। यहाँ उनकी चहेतियों का साम्राज्य है। उनकी हैसियत इस लीला केंद्र में उस बूढ़े कन्हैया की है, जो खुद तमाशा बन चुका है। अब गोपियाँ उससे छेड़छाड़ करती हैं। उसका मजाक उड़ाना उनकी दैनिक चर्या का अंग है।

जिस लगन से उसने महिला समस्याओं पर लेखन के लिए उन पर ध्यान दिया है, वैसे ही बाजार पर। बाजार की ओर उसका ध्यान सबसे पहले ‘वैलेंटाइन डे’ के कारण आकृष्ट हुआ। उसके बाद तो मदर, फादर, पत्नी, पति जैसे दिवसों की बाढ़ आ गई। उसे एहसास हुआ कि यह सारी बहूद्देशीय कंपनियों की साजिश है, अपना सामान बेचने के लिए। बाजार दृढ निश्चय से पारंपरिक जीवनपर्यंत संबंधों पर कुल्हाड़ी चलाने से बाज नहीं आ रहा है। कितना हास्यास्पद है कि एक दिन कोई ‘मदर्स डे’ मनाकर बूढ़ी माँ को पूरे साल के लिए भुला बैठे? या फिर पति और पत्नी एक घटिया गिफ्ट देकर वर्ष में एक बार प्रेम जताएँ और फिर पूरे साल स्वच्छंदता से वैवाहिक बंधन से आजाद रहें।

उसे यह भी खयाल आया कि बाजार में प्रचार आवश्यक है। इसीलिए जब अपनी आकर्षक मुसकान फेंकती किसी सुंदरी की तस्वीर हाथ में प्रचारित टूथपेस्ट दिखाते छपती है, तो देखनेवालों के अवचेतन में उसका आकर्षण और वह टूथपेस्ट गड्ड-मड्ड हो जाते हैं। ‘यदि सुंदर दिखना है तो इसी दँत-मंजन का प्रयोग करना है।’ सुंदरी के चक्कर में हमारे समझदार साहित्यकार पर ऐसा दुष्प्रभाव पड़ा है कि वह अनजाने में ही इस प्रचारित पेस्ट का प्रयोग करने लगा है। बाजार के असर से वह पत्नी को जन्मदिन और ‘वाइफ्स डे’ पर उपहार पेश करता है। इसका एक लाभ भी है। पत्नी को पीठ पीछे धोखा देने का उसका अपराध-बोध कुछ कम-सा हो जाता है।

इसके ‘साइड इफेक्ट’ और भी हैं। लड़कियाँ उसे शेखचिल्ली समझती हैं। वह उनकी खिल्ली का पात्र है। बात तब हद से गुजर गई, जब एक लड़की ने पीछे से उनकी गंजी होती खोपड़ी पर तबला बजाने का अभिनय किया और सामने बैठी उसकी सहेलियाँ अचानक ‘खीं-खीं’ करने लगीं। इस अनपेक्षित व्यवधान से नवलेखन पर साहित्यिक प्रवचन करता साहित्यकार चौंका और बोला, ‘‘क्या हो गया?’’ उसके सवाल से कमरे में सन्नाटा छा गया। कोई क्या उत्तर देता? सच्चाई हमेशा खतरनाक होती है। उसे कौन बताता कि मधु उसकी गंजी चाँद पर पीछे खड़े होकर तबला बजाने का हवाई अभ्यास कर रही थी।

हर हरकत की उम्र होती है। जो यौवन में स्वाभाविक लगता है, वही अधेड़ावस्था में अरुचिकर। साहित्यकार की कन्या-रुचि अब वैसी ही मनोरंजक है, जैसे कोई धीर-गंभीर दिखनेवाला मोटा शिक्षाशास्त्री या थानेदार रात को शराब के नशे में काल्पनिक संगीत की धुन पर भीड़ भरे चौराहे की शोभा बढ़ाकर ठुमके लगाए। आसपास मजमा लगना लाजमी है। यह भी लाजमी है कि कोई पियक्कड़ को घर पहुँचाकर इस दिलकश नजारे के अंत का प्रयास न करे। वर्तमान का सर्वव्यापी मीडिया इस आह्लाद की सार्वजनिक आग में आहुति डालने की भूमिका निभाता है। ओबी वैन और कैमरे की प्रेरणा से दर्शक और जोर से खिलखिलाते हैं। बिना वरदी का थानेदार भी सामान्य तुंदियल अधेड़ लग रहा है और प्राध्यापक-शिक्षाशास्त्री भी। वैन के साथ आई लड़की ने एक सज्जन से सवाल किया, ‘‘आप जानते हैं कि यह नृत्य कला के थिरकते आराधक कौन हैं?’’ वहाँ सब इन हस्तियों से अनजान थे। बहरहाल ‘शहर की हलचल’ में इस दिलकश मुफ्तिया प्रदर्शन को स्थान मिल गया। नतीजतन, एक कॉलेज और दूसरा थाने से निलंबित हो गया है।

साहित्यकार ने अपने लेखन में बाजार की खूब धज्जियाँ उड़ाई हैं। उसने कुछ दुकानों को ‘भला और विश्वसनीय’ बनाकर उनका माल भी मुफ्त में पाया है। जो मौका चूके, वह बड़का साहित्यकार कैसा? जो गुणवत्ता में धनी होकर भी बड़े न बन पाए, वह हर अवसर को भुनाने की कला में अनभिज्ञ होने से गुमनामी के अँधेरे से रोशनी की सफलता का सफर तय करने में असमर्थ रहे हैं, वरना उसके प्रतियोगी होते। बहरहाल, उसने बाजार से ब्रांड बनने का गुण सीखा है। यह आवश्यक है कि माल में गुणवत्ता हो, तभी वह प्रचार के माध्यम से ब्रांड का दर्जा हासिल करने में कामयाब है। नहीं तो गुणवत्ता वाला माल भी बिना प्रचार धरा का धरा रह जाता है दुकानों पर।

आज हर सामान्य कलमघिस्सू भी इस प्रबल आत्मविश्वास के साथ कागज काले करता है कि वह कालजयी साहित्य का रचयिता है। सब बाजार से परिचित होने के कारण धुआँधार प्रचार में जुटते हैं। उनके लेखन का माल घटिया होने की वजह से शायद ही एकाध अपवाद सिर्फ प्रचार से कामयाब हो पाता है।

बड़े साहित्यकार का अरमान बाजार की नकल पर लेखन का ब्रांड बनना रहा है। इसके लिए उसने समानधर्मा लेखकों की टोली एकत्र की। उनमें से दो प्राध्यापक थे। दोनों शिक्षा के पारंपरिक पीठ-खुजाई के जरिये पैसा कमाने के सिद्धांत में पारंगत। परीक्षा के परीक्षकों का चयन इसी लेन-देन के उसूल पर होता है कि आप हमें परीक्षक बनाओ, हम आपको। दोनों कमाएँ, भले ही छात्रों के भविष्य का निर्णय अपने चेलों से करवाएँ। इसी उसूल को अपनाकर सब एक-दूसरे के प्रचार में भिड़ गए। दीगर है कि वह अपनी लेखकीय काबिलीयत के कारण आगे पहले भी था और प्रचार की वजह से और ज्यादा जाना जाने लगा। पीछे छूटों का जलना-भुनना स्वाभाविक है।

बड़े साहित्यकार होने के अन्य लाभ भी हैं। कुछ को हर प्लेट का चमचा बनने का शौक है। उसकी प्लेट भी बिना किसी प्रयास के चमचों से भर गई है। चमचे निरुदद्ेश्य दृश्य तो घेरते नहीं हैं। सबका स्वार्थ है। कोई सम्मान पाकर पहचान का भूखा है तो कोई लेखक का नजदीकी बनकर प्रचार का। कोई अपने लेखन का प्रमाण-पत्र पाने का तलबगार है तो कोई संस्तुति लिखवाकर पुरस्कार का। चमचों का आग्रह स्वीकार करते-करते उसके हाथ दुःख गए हैं। उसने चमचा-संस्कृति का जमकर विरोध किया है। आज वह स्वयं उसका शिकार है। इधर चमचों के शोर से उसके कान पक गए हैं। चमचों में कुछ खास हैं, कुछ आम। सबकी अपनी-अपनी अपेक्षाएँ हैं। उनमें आपसी डाह और बैर भी है। कुछ आम, खास बनने की कोशिश में हैं, कुछ खास ऐसों को रोकने की। इस संघर्ष और अर्थहीन हलचल में ब्रांड बनना तो दूर, बस उसके आसपास बैंड सा बज रहा है, कभी गाली-गलौज तो कभी अर्थहीन कोलाहल का। लेखन के एकाग्र पल अब उसे मुहाल हैं। वह स्वयं अनिर्णय में है कि क्या॒करे?

कभी-कभी अकेले में वह सोचता है कि जीवन की अहर्निष भाग-दौड़, जुगत-जुगाड़ ने उसे दिया क्या है, चंद पुरस्कार। सम्मान, पहचान के अलावा? हिंदी की खासियत है कि वह अपने दिग्गज लेखकों को भी भूलने में माहिर है। क्या पाठक उसे याद रखेंगे, ब्रांड बनने के वाबजूद या बिना ब्रांड बने भी? फिलहाल वह चमचों से छुटकारा पाना चाहता है। वह उसे मन-ही-मन भाते हैं, पर सताते भी हैं, उसके लेखन का स्थायी अवरोध बनकर। उन्हें बरदाश्त करना क्या उसकी विवशता है?

साहित्यकार का विचार है कि उसका साहित्य राष्ट्रीय संपत्ति है, जिसके एवज में उसकी आर्थिक देखभाल जैसे अकादमियों की अध्यक्षता, समितियों की सदस्यता, लाखों के पुरस्कार आदि सरकार का कर्तव्य है। हमें डर है। उसका सर्वथा निजी संकट कहीं साहित्य के राष्ट्रीय संकट में तब्दील न हो जाए।

९/५, राणा प्रताप मार्ग

लखनऊ-२२६००१

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