हम पुरइन के पात हो गए

हम पुरइन के पात हो गए

हंसा सुनो! साँझ घिर आई

हंसा सुनो! साँझ घिर आई

लक्ष्य अनिश्चित, पंथ अजाना

अनदेखे ये झील किनारे,

सूने पनघट, डगर, वीथियाँ

प्राणहीन से उपवन सारे।

गुमसुम गगन, पवन बहका सा

थके-थके से लगते तारे,

संभव है कुछ परिवर्तन हो

हालातों में अलस्सकारे।

काल वसूलेगा अपना ऋण

गिन-गिन पैसा पाई-पाई,

हंसा सुनो! साँझ घिर आई।

कहने को तो दिन लंबा था

बिना रुके उड़ते भी आए,

लेकिन अजब बात है कैसी

डेढ़ कोस ही तय कर पाए।

आगे उड़ें कि वापस लौटें

या फिर यहीं पडे़ रह जाएँ,

नया चमन या नीड़ पुराना

कहो ठिकाना कहाँ बनाएँ।

आगे तो है सपन नगरिया

पीछे वही गाँव हरजाई,

हंसा सुनो! साँझ घिर आई।

तन की हर सीवन उधड़ी है

पर मन अब भी नया नकोरा,

गिनती की कुछ साँस शेष हैं

नीलामी का नगर ढिंढोरा।

जाने कब सुलझेगी उलझन

कब देगा उस पार दिखाई,

क्षितिजों के पट खुलें तो मानूँ

सचमुच सम्मुख मंजिल आई।

जाने कौन दिवस में देगी

इकतारे की तान सुनाई,

हंसा सुनो! साँझ घिर आई।

 

हंसा! ढोल-नगाडे़ बाजे

हंसा! ढोल-नगाडे़ बाजे

हम निस्संग, अलिप्त, अभोगी,

कड़वी-मीठी सुधियों के शव

गहरे बहुत दबाकर आए।

सौ-सौ बार रगड़कर पोंछा

बेहद उजला है मन दरपन,

कुछ भी अब तो याद नहीं है

बीते कहाँ जवानी बचपन।

रखे जनम भर बंद जतन से

खोल दिए सारे दरवाजे,

हंसा! ढोल-नगाडे़ बाजे।

जल में रहकर भी अनभीगे

हम पुरइन के पात हो गए,

केवल सूर्यकिरण ही परसें

हम ऐसे जलजात हो गए।

हम ही देख पा रहे इसको

यह जो यान खड़ा है द्वारे,

इसमें ही लेकर आए हैं

सांकेतिक चिट्ठी हरकारे।

देवों के विग्रह पर सोहें

हमने साज आज वे साजे,

हंसा! ढोल-नगाडे़ बाजे।

मैं ही तुम हूँ, तुम ही मैं हो

दूजा इसका भेद न जाने,

लाख जनम का याराना है

मैं पहचानूँ, तू पहचाने।

बिन पग दौडे़ं, उडें़ पंख बिन

आ अब उसी देस को धाएँ,

कोई कथा पुरानी हो लें

या कोई तारा हो जाएँ।

घनमंडल के आखंडल हों

सभी जहाँ राजे-महाराजे,

हंसा! ढोल-नगाड़े बाजे।

६७ केशवनगर, अलवर (राजस्थान)

दूरभाष : ०९०२४७०८०३४

हमारे संकलन