जन्मतिथि (२८ सितंबर) पर विशेष: लता ताई

जन्मतिथि (२८ सितंबर) पर विशेष: लता ताई

कानन झींगन: सुप्रसिद्ध लेखिका। साहित्य की अनेक विधाओं में निरंतर लेखन। कहानी-संग्रह ‘दरीचों से’ तथा निबंध-संग्रह ‘मास्टर मल्ला राम’, ‘देर न हो जाए’ और ‘फरिश्तों की दस्तक’ चर्चित हुए। इसके अलावा खलील जिब्रान की लोकप्रिय कृतियों का अनुवाद। फिल्म-जगत् की मशहूर हस्तियों की जीवनी की पुस्तक ‘सिने जगत् की रश्मियाँ’ बहुत सराही गई।

इस विश्वव्यापी मोहक स्वर से मेरी पहली पहचान कब हुई, बहुत सोचने पर भी याद नहीं आता। बाबूजी का संगीत प्रेम हम सब भाई-बहनों में था, पर छोटे भैया में इस प्रेम ने उन्माद का रूप ले लिया था। मेरे लिए उनका आदेश था कि प्रातः आँख खुलते ही उनके कानों में रेडियो से उठता स्वर लता का ही हो। इस आज्ञा का पालन करने के लिए मैं प्रतिदिन रेडियो से कान लगाकर बैठी रहती। उद्घोषक से लता का नाम सुनते ही स्वर ऊँचा कर देती, और इस तरह से भैया का दिन प्रारंभ होता। यही उनका मंगलाचरण था।

उनका विश्वास था कि प्रातः सबसे पहले लता का स्वर सुनकर सारा दिन सुरीला बीतता था। एक दिन मेरे दुर्भाग्य से कोई बेसुरा स्वर उनके कानों में पड़ गया। उसके बाद उन्होंने क्या हड़कंप मचाया था।

कुछ वर्ष बीते इस अलौकिक नाद की स्वामिनी से भैया के परिचय का संयोग आया। उस समय उनसे अधिक रोमांचित मैं थी। भैया के पत्रों में लता दी से उनके अंतरंग परिचय का विस्तार पढ़ते-पढ़ते हमें लगने लगा था कि वे हमारे परिवार के घेरे में आ गई हैं।

एक दिन उनसे साक्षात्कार का सुअवसर आ ही गया। स्थल था पालम हवाई अड्डा और समय जनवरी की कँपकँपाती रात। उन दिनों हवाई अड्डे पर किसी भी प्रकार का निषेध न था। अपने प्रियजनों को विमान से उतरकर अपनी ओर बढ़ते हुए देखने का रोमांच और आनंद सुलभ था।

विमान से एक गुड़िया सी उतरी। धक् धक् धक् धक् मेरे दिल की धड़कनें मेरे कानों तक पहुँचने लगी थीं। कॉलेज में पहला लैक्चर देते समय भी मैं इतनी घबराई न थी। तभी अचानक वह मेरे सामने थी। मेरे पैर आगे बढ़ें, इससे पहले बीच में ही बाँसुरी सा मधुर स्वर सुनाई पड़ा।

‘तुम्हीं हो न कानन’ और झट से मेरा हाथ पकड़कर दबाया। उस स्नेहिल स्पर्श की ऊष्मा ने मन के सारे संकोच को विगलित कर दिया।

अशोका होटल में पहुँचने के बाद तक भी उन्होंने मुझे छाया की तरह अपने सान्निध्य में रखा। उन कुछ घंटों के साथ में उनकी जिस विलक्षणता ने मुझे मोहित सा कर दिया, वह थी उनकी मुक्त हँसी। यह खिलखिलाती हँसी पलभर में औपचारिकता और संकोच की दीवारों को गिरा देती थी।

दूसरे दिन अशोका होटल के भव्य हॉल में उनका दूसरा ही रूप देखा। सिनेजगत् के अनेक चाँद-सितारे जगमगा रहे थे। उस लकदक चमक में लता दी अलग ही दिखाई दे रही थीं। सभी का आग्रह था कि लता बाई अकेले कहीं नहीं जाएँगी। हम सब साथ-साथ घूमेंगे, खाएँगे-पीएँगे, मस्ती करेंगे। पर बार-बार मेरा हाथ पकड़कर वे कह रही थीं—

‘मैं तो आज कानन के घर पर खाना खाऊँगी।’

इस स्थिति की कल्पना तो मैंने सपने में भी नहीं की थी। उनका हठ देखकर मैं बड़े धर्म-संकट में पड़ गई। क्या करूँ? अपने साधारण से छोटे घर में इनका कैसे स्वागत करूँगी, कहाँ बिठाऊँगी, कहाँ खाना खिलाऊँगी और क्या खिलाऊँगी? मन अजीब असमंजस में था। ऊपर से हँस रही थी, मुँह से उलटे-पुलटे उत्तर दे रही थी—

हाँ, माँ घर पर नहीं हैं।

वे तो मामा के यहाँ गई हैं। बहुत दिन बाद आएँगी।

बड़े भैया ऑफ‌िस से देर में आते हैं।

दीदी, वह तो ससुराल चली गई, और न जाने क्या-क्या?

उस दिन उन्हें गेलॉर्ड ले गई। बड़ी तृप्ति से भोजन किया। परंतु वहाँ से बाहर निकलते ही नटखटपने से मेरी ओर देखकर हँस दी। भोर की खिली कली से हास्य के साथ मुझे छेड़ते हुए बोली—

“मुझे पता है, इस बार अपना घर दिखाने में खूब होशियारी से तुमने टाल दिया। है न? पर अगली बार आऊँगी तो यह नहीं चलेगा। मैं सीधी तुम्हारे घर ही उतरूँगी।”

बंबई जाकर मेरी इस चोरी को उन्होंने ऐसे शब्दबद्ध किया, “आपको देखा, बहुत अच्छा लगा। आपकी माताजी से मिलने की इच्छा थी, लेकिन आपने खाना खिलाने के डर से हमें उस तरफ फटकने भी नहीं दिया। और गेलॉर्ड में खिला दिया।...बस बाकी सब वैसे ही है जैसे था। अरे हाँ, एक नई बात शुरू हुई है, वह है आपकी याद बहुत ज्यादा आती है।”

जनवरी के अंतिम सप्ताह में राजधानी दिल्ली में लता दी के साथ देवानंद, दिलीप कुमार जैसे अभिनेता और अन्य अनेक अभिनेत्रियाँ आईं हुई थीं। २६ जनवरी की शाम को लाल किले की प्राचीर से लता दी गानेवाली थीं। पहले से ही इस अवसर पर सर्दी से बचने के लिए उन्होंने एक कोट खरीदने की अभिलाषा प्रकट की थी।

सागर तट के वासियों के लिए दिसंबर में हल्की सी खुनकी भी ‘ठंडी’ का मौसम होती है। सभी लोग स्वेटर पहनने लगते हैं। दिल्ली की ठंड तो उनके लिए ‘आर्कटिक’ से कम नहीं होती। सो मैंने ‘करोल बाग’ से एक स्वैगर कोट खरीदा, जिसका उन दिनों फैशन था। बहुत जाँच-पड़ताल के बाद कोट पसंद किया था। बार-बार स्वयं ही पहनकर देखा था। सोचा था, मेरे घुटनों से ऊपर तक आ रहा है तो उनके ठीक बैठेगा। तब तक उन्हें देखा तो था नहीं। उन्होंने कोट पहना और शीशे के सामने खड़ी हुईं तो हँसते-हँसते दुहरी हो गईं। कोट में वे छिप सी गई थीं।

“नहीं कानन यह नहीं चलेगा। स्टेज पर तो मैं दिखाई ही नहीं पड़ूँगी। तुम मुझे छोटा कोट लाकर दो।”

दूसरे दिन सफेद फर का हाफ कोट लाकर उन्हें पहनाया तो संतुष्ट हुईं। भारत अपनी सीमा की रक्षा के लिए चीन के साथ युद्ध कर चुका था। हमारे सिपाही जिस वीरता से शहीद हुए थे, उसको लेकर प्रत्येक भारतवासी गर्व और करुणा का एक साथ अनुभव कर रहा था। दीदी उस गीत को लेकर बहुत उत्साहित थीं। होटल के कमरे में आयोजक आ-जा रहे थे।

दीदी ने मुझसे पूछा, ‘तुम्हारे पास टिकट है न? नहीं तो पास दिलवा दूँ।’ अपने झूठे स्वाभिमान के कारण मैंने कहा टिकट है। बाद में सारा दिन भटकते रहे, पर टिकटें कहीं नहीं मिलीं। हताश होकर रेडियो पर ही वह कार्यक्रम सुना। मैं उस ऐतिहासिक क्षण की साक्षी न बन सकी, जब कवि प्रदीप के इस अमरगीत को गाकर लता दी ने नेहरूजी को रुला दिया था।

‘दिल्ली में चावल बहुत अच्छे मिलते हैं न’ यह बात उन्होंने दुहराई थी। बीजी ने पाँच-पाँच किलो के बासमती चावल के दो पैकेट मुझे लेकर दिए। वापसी में हवाई अड्डे पर दो पैकेट देखकर वे खुश तो हुईं, पर लेकर कैसे जाएँ—प्रश्न यह था। अचानक देवानंद और दिलीप कुमार को देखकर दीदी के अधरों पर शरारत की मुसकान आ गई। बस दोनों को एक-एक पैकेट थमाया और काम हो गया।

वे तो बंबई चली गईं, पर इस प्रथम भेंट ने मुझे इस कदर आप्लावित कर दिया कि दूसरे दिन मैथिलीशरण गुप्त की ‘पंचवटी’ पढ़ाते समय बार-बार ‘लक्ष्मण’ का नाम लेते हुए जिह्व‍ा लता की ओर फ‌िसल रही थी। अपनी इस मोहाविष्ट दशा का वर्णन मैंने उन्हें पत्र में लिखा। उत्तर आया तो विनय और निरभिमान के भाव से सराबोर। साथ ही अतिशय अभिज्ञान के कारण सहज जीवन जीने से वंचित हो जाने का दुःख भी मुखर हो रहा था। उन्होंने लिखा था, “क्या सचमुच आपको मेरा स्वभाव पसंद आया! फूल पसंद आए तो इनसान काँटों को तो हाथ नहीं लगाता। माना, आप मेरा गाना पसंद करती हैं, इसका मतलब यह नहीं होता कि आप मुझे भी पसंद करें। और मैं तो बिल्कुल जोकर हूँ, सारा वक्त हा, हा, हो, हो चलता ही रहता है।...और दो-चार दिन रुक सकती तो बहुत ही मजा आता। आप के साथ आवारागर्दी कर सकती। सच, कानन मैं भूल जाना चाहती हूँ कि मैं बहुत बड़ी गायिका हूँ। यों ही दुनिया की बड़ी तोप बनी फ‌िरती हूँ। जी चाहता है, बिल्कुल आपकी तरह एक विद्यार्थी बनकर इधर-उधर घूमती रहूँ। पर इनसान की अगर हर ख्वाहिश पूरी होती तो इस दुनिया में दुःख के लिए जगह कहाँ से मिलती? खैर, जो कुछ भी मिला, कम नहीं था।”

दूसरी बार की मुलाकात तक हम दोनों काफी नजदीक आ चुके थे। बीच के अंतराल में हुए पत्र-व्यवहार ने हम दोनों के स्नेह-बंधन को दृढ़तर कर दिया था। इस बार वह दिल्ली आईं तो मैं उन्हें अपने घर भोजन कराने ले गई। उनके लिए बाहर का कमरा खूब सजा दिया और सारा ऊटपटाँग समान भीतर के कमरे में छिपा दिया। परंतु उनको बाहर के ही कमरे में बैठकर क्या चैन पड़ सकता था! वे तो सीधे रसोई में आ धमकीं और माँ से गप्पबाजी करने लगीं।

हमारी सारी सफाई, सजावट बेकार। मैं उनसे खूब गुस्सा हुई, वह हँसते हुए बोलीं, ‘तो क्या हो गया। तुम्हें पता नहीं कानन, मैंने इससे कहीं छोटे घर में दिन काटे हैं और सुनो, मैं तुम्हारे फर्नीचर और आलीशान घर से तो मिलने नहीं आई। मैं तो तुम से और तुम्हारे घर के लोगों से मिलने आई हूँ। तुम जहाँ हो, वही स्थान मेरे लिए सुंदर है।”

मेरी आँखें भर आईं। कितना महान् व्यक्तित्व और कितना सहज स्वभाव।

उस दिन लता दी ने शाम तक रुककर खूब आत्मीयता से भर दिया। किसी ने उन्हें आते नहीं देखा, पर न जाने कैसे पूरे मोहल्ले में उनके हमारे यहाँ होने की खबर फैल गई। पता तब चला, जब उनको विदा करने बाहर निकले। पहली मंजिल पर घर था। नीचे झाँका तो भीड़ ही भीड़। हम सब लोग उनकी सुरक्षा के लिए चिंतित हो उठे। पर लता दी घबराई नहीं। उन्होंने कुछ देर बालकनी में खड़े होकर लोगों का अभिनंदन स्वीकार किया। फ‌िर सीढ़‌ियों में हम लोग ब्लैक कमांडों की तरह उनको बीच में लेकर उतरे और जल्दी से गाड़ी में बिठा दिया। एक तरफ मैं दूसरी तरफ भैया। डर था कि भीड़ बेकाबू न हो जाए। उनको होटल पहुँचाकर हमें चैन की साँस आई।

गरमियों में मुझे अपने साथ काश्मीर ले जाने की उनकी तीव्र इच्छा थी। इसके लिए उन्होंने बहुत आग्रह किया। परंतु उस समय उनके खर्चे पर काश्मीर का सौंदर्य दर्शन मुझे अनैतिक सा लगा था। बाद में उनसे इतनी आत्मीयता हो गई कि आज तक मेरे मन में उस आनंद-यात्रा और उनके सत्संग के लिए मलाल है।

वे काश्मीर गईं तो मैं मन-ही-मन सोच रही थी कि वहाँ कितनी आनंदित होंगी। मैं उन्हें अपनी कल्पना में झील की हाऊस बोट पर रहते हुए देखती। पर वहाँ से उनका पत्र आया तो कुछ और कहानी कह रह था। बाहर से प्रसन्न, चंचल और मस्त रहनेवाले इस व्यक्तित्व में गहन संवेदना और विवेक का अनोखा संगम है।

काश्मीर की वादी के विलक्षण सौंदर्य की अपेक्षा वहाँ की जनता की विपन्नता ने उन्हें झकझोरकर रख दिया था। अपने पत्र में उन्होंने मुझे लिखा था, “यहाँ जगह-जगह झरझर बहनेवाले झरने मुझे वहाँ के गरीबों की आँखों से बहते आँसू नजर आते हैं। वहाँ खिले हुए फूल देखकर मुझे लगता है कि प्रकृति दरिद्र जनता को देखकर अट्टहास कर रही है। यहाँ भारी-भारी गरम कपड़े पहनकर घूमने में मुझे शर्म आती है। अपने विलास के लिए इन गरीबों के मुँह पर चार सिक्के फेंककर उनसे मजदूरी करवाने में असमर्थ हूँ। कभी-कभी लगता है, यहाँ आनेवाले प्रवासियों की भाँति मेरा हृदय भी पत्थर का होता तो मैं यहाँ शांति से दिन काट सकती थी।”

मैं सोचने लगी, ऐसे कितने लोग हैं संसार में, जिनके सामने सुख के सभी साधन प्रस्तुत होते हैं, पर वे दूसरों के दुःख से द्रवित रहते हैं। लता दी ने इतने ऐश्वर्य में रहते हुए भी संवेदनशीलता और परदुःखकातरता के भाव को खोया नहीं। मुझे याद है, बड़े गुलामअली खाँ साहब लंबी बीमारी के बाद रेडियो पर गा रहे थे—उनकी कमजोर आवाज को सुनकर वे कितना रोई थीं।

उत्तर भारत का भ्रमण करते हुए वे एक बार फ‌िर दिल्ली आईं। इस बार बहुत कोशिश करके अवकाश मिला और मैं उनके साथ घूमने निकल पड़ी। ऋषिकेश, हरिद्वार का नैसर्गिक सौंदर्य देखकर वे बहुत प्रसन्न हुई थीं। उनके मुखमंडल पर छाए आनंद को देखना अविस्मरणीय अनुभव था।

उनके साथ भ्रमण करते हुए उनके स्वभाव की एक विलक्षणता की ओर बार-बार ध्यान जाता था। अपने सान्निध्य में आए लोगों को क्षणभर में आत्मीय बना लेना उनकी सहज विशेषता थी। हृदयनाथ भैया नलिनी दीदी और लता दी बार-बार मराठी में परस्पर संभाषण करने लगते थे। भाषा का व्यवधान मुझे असहज कर जाता था। मैं अधिकतर मौन की शरण ले लेती थी। दीदी ने मेरे अंतर्मुखी व्यक्तित्व को लक्षित करते हुए ऐसी स्नेहसिक्त डाँट लिख भेजी कि मेरे संकोच की भित्ति कब विलीन हो गई, पता ही न चला—“लाडो, तुम्हारा चुप रहना इतना कमाल का था कि हम तीनों को मराठी में बोलना ही पड़ता था और एक बात कभी न भूलना कि हमारी मातृभाषा है तो मराठी ही न? कभी-न-कभी तो वह आ ही जाती। और जब शांत सागर में तूफानी लहर तुम्हें उछालकर दूर-दूर मझधार में डाल देती थीं, तो क्या पागल लड़की तू आवाज नहीं दे सकती थी? सिर्फ खयाली तूफानों में डूबना ही जानती थी? देखो कानन, ये झूठे अभिमान की बातें अब छोड़ दो। तुम्हारी तरह पढ़ी-लिखी लड़की को शोभा नहीं देतीं। जहाँ सच्चा प्रेम और दृढ़मित्रता होती है न, वहाँ यह किताबों की भाषा नहीं सुहाती। अरी बेजबान तितली, जिसने तम्हारे बारे में जरा भी किंतु मन में नहीं रखा, क्या वह तुम्हारी शंकाएँ दूर नहीं कर सकती थी!” इसी प्रवास में मुझे उनकी साहित्यिक अभिरुचि और विस्तृत अध्ययन का परिचय मिला। मराठी साहित्य का अध्ययन तो था ही, हिंदी, बँगला, उर्दू साहित्य के संदर्भ भी वे जिस तत्परता से देती थी, मुझे आश्चर्य होता था। परंतु बीच-बीच में उनका असंतोष का, अतृप्ति का स्वर भी सुनाई पड़ता था, ‘कानन मेरे ऊपर काम का इतना दबाव था कि मैं पढ़ाई कर ही नहीं पाई।’

मथुरा-वृंदावन में स्थापित मंदिरों में श्रीकृष्ण के दर्शन करने की उनकी इच्छा थी। ‘बिहारीजी’ की सुंदर मूर्ति के दर्शन करके वे इतनी गद्गद हुईं कि भाववेश में आँखों से अविरल अश्रुधारा थम ही नहीं रही थी। हरिद्वार से ऋषिकेश के रास्ते में उनके और बालभैया (भाई हृदय नाथ) के साथ मैं अत्यंत अनौपचारिक हो गई थी।

एक प्रसंग मुझे आज भी झेंप में डाल देता है। एक पिक्चर का गीत उन दिनों बहुत लोकप्रिय हुआ था, मुझे बार-बार उस गीत की धुन का मूल स्रोत पंजाबी लोकगीत लगता था। उन्हें विश्वास दिलाने के लिए मैंने गीत का मुखड़ा गाया, अंतरा उठाते ही मेरी दृष्टि उनके चेहरे पर पड़ी और मेरी आवाज गले में ही रह गई। अरे ‘लता मंगेशकर’ के सामने मैं गाने का दुस्‍साहस कैसे कर बैठी!

मेरे मन में एक अदम्य लालसा थी कि कभी उनकी रिकाॅर्डिंग होते देखूँ। मेरे सौभाग्य से वह सुयोग भी आ गया। बंबई जाकर मुझे दोहरा आनंद लाभ हुआ। उनके घर रहकर उनके अकृत्रिम आतिथ्य का परिचय मिला और उनके मधुर स्वर का अपने समक्ष अपने कानों से सीधा साक्षात्कार हुआ। मैं इस अनुभव में आकंठ मग्न थी।

रिकाॅर्डिंग के समय उनका गाना सुनते ही लगता था, गीत के शब्दों की आत्मा ने आकार ले लिया। रिकाॅर्डिंग यांत्रिक कार्य है, पर उनके गाते ही मानो वे उपकरण चेतन हो जाते और फ‌िर रसिकों के हृदय को रसमग्न करते।

इस स्वर का अनुपम जादू एक बार ‘ताजमहल’ में देखा था। वह मार्च का महीना था। हम सब (बालभैया, बृजभैया, नलिनी) लता दी के साथ आगरा गए थे। संगमरमरी ताजमहल चाँदनी रात में स्नात था। वातावरण शांत-स्तब्ध, एक पत्ता भी हिल नहीं रहा था। भीतर प्रवेश किया तो सन्नाटा और प्रखर हो उठा, इस अपार्थिव वेला में अनायास एक स्वर फूट पड़ा—लता दी ने ‘राग मारवा’ में आलाप लिया, धीरे-धीरे लगा जैसे युगों से सोए दो प्रेमियों की आत्माएँ संवाद करने लगीं। ऊँचे गुंबद उस स्वर का उत्तर देने लगे। रोमांच से शरीर में कँपकँपी सी होने लगी। कुछ देर बाद उन्होंने ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’ की कड़‌ियाँ गाईं। हम सब इस वेला की तंद्रा में खो गए थे। ताज की देखभाल करनेवाले सेवक भी इस समय मूक श्रोता बन गए थे। मृत्यु के विश्रांति स्थल को सजीव करनेवाला स्वर, कैसा विरोधाभास था। सब मंत्रमुग्ध थे। गीत समाप्त हुआ और एक सेवक आगे आकर बड़े विनम्र भाव से बोला, ‘यहाँ गाने की सख्त मनाही है’, पर उसके निषेध में भी प्रशंसा का भाव प्रकट हो रहा था।

‘प्रभुकुंज पेडर रोड’ के घर में बिताए दिनों में मैंने उनके पारिवारिक जीवन की एक अंतरंग झाँकी देखी थी। आई, तीन बहनें और एक भाई का जीवन उनको धुरी बनाकर घूम रहा था। उनके सुख-दुःख, आशा-निराशा सब इनके अपने थे। किसी एक भी प्राणी के मुख पर चिंता या उदासी का भाव आया नहीं कि आकाश-पाताल एक करके वह समाधान करतीं।

पिता के न रहने पर उन्होंने उस आयु में उनका उत्तरदायित्व ओढ़ लिया था, जिस समय लड़कियाँ गुड़‌ियों से खेलती हैं। किशोरावस्था में ही भाई-बहनों और माँ के भरण-पोषण का भार उन पर आ गया था। सबसे छोटे भाई हृदयनाथ के पैर का फोड़ा दीदी लता के हृदय का नासूर बन गया था। गोद में उठा-उठाकर इलाज के लिए साधनहीन दीदी कहाँ-कहाँ नहीं भटकी थीं। वही मातृत्व आजीवन उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन गया। इसका परिचय परिवार ही नहीं, उनके सान्‍निध्य में आनेवालों को निरंतर मिलता रहता है।

एक बार कल्याणजी आनंदजी के साथ उनकी और मुकेश की रिकाॅर्डिंग थी। उस दिन सुबह वे केवल कॉफी लेती हैं। गाते-गाते भूख लगी तो उन्होंने सैंडविच मँगाए, भगवान् जाने उनमें क्या था कि केवल इन्हीं को अन्नविष बाधा (फूड पॉयजनिंग) हुई। मैंने भी उनके बराबर ही खाया था, पर मैं हल्की अजीर्णता के बाद ठीक हो गई। पर वे तो भयंकर रूप से बीमार पड़ीं। तीन दिन तक बेहोश पड़ी रहीं। होश आया तो सारे परिवार के प्राण लौटे। उनके सुस्थिर होने पर मैं मिलने गई। मुझे देखते ही पहला प्रश्न किया, तुम्हारी तबीयत कैसी है?

अपनी बीमारी, अपने दुःख को वे प्रायः मजाक में उड़ा जाती हैं। गानेवालों के लिए जुकाम-खाँसी बहुत कष्टदायी हो जाती है। परंतु रोगों से अपनी मित्रता का नाता उन्होंने बड़े मजे से जोड़ा था—“यहाँ पहुँचते ही, काम और बीमारी दोनों ही शुरू हुए। वैसे तो जुकाम, बुखार, सरदर्द इन सबको मुझसे खास मुहब्बत है, दस-पंद्रह दिन न मिलो तो मौका पाते ही ऐसे प्यार से मिलते हैं कि मजाआ जाता है।”

दूसरों की पसंद-नापसंद का ऐसा सूक्ष्म निरीक्षण बहुत कम लोगों की दृष्टि में होता है। उन्हें सुंदर वस्तुओं के संग्रह का बहुत शौक था। ऐसी ही एक खरीददारी के समय कॉटेज एंपोरियम में मैंने किसी वस्तु को प्रशंसा की दृष्टि से देखा और तारीफ की। दूसरे दिन वह वस्तु मेरे सामने हाज‌िर और लेने का आग्रह। मेरे आनाकानी करने पर कृत्रिम क्रोध से बोली, ‘नहीं लोगी तो ठीक है, मैं अभी रास्ते पर फेंक रही हूँ।’

अब तो उनके सामने किसी भी चीज के प्रति रुचि दिखाने में मुझे डर लगता था। कभी-कभी मन में आता कि कहूँ, ‘आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं।’ मुझे विश्वास है कि मेरे ऐसा कहते ही वह स्नेह की वर्षा करते हुए हँस देंगी और कहेंगी, ‘मैं तुम्हें अच्छी लगती हूँ तो चलो, मुझे अपने साथ ले चलो।’

लता दी ने मुझे जीवन में सही दिशा दिखाने में मार्ग-निर्देशक की भूमिका निभाई है। मानवीय संबंधों की जटिलता को समझने की सोच दी। विवाह के प्रति मेरे मन में आशंकाएँ थीं। लगता था, विवाह बंधन है, दासता है, अंधकार है। उनका परामर्श किसी मनोवैज्ञानिक से कम न था—“तुम्हारे दो प्रश्न मेरे लिए भी थोड़े मुश्किल हैं, चूँकि मैंने भी तो शादी नहीं की!...एक काम करनेवाली लड़की को भी विवाह करना चाहिए। इसलिए कि पुरुष मन चाहे जैसे रह सकता है, मगर एक औरत के लिए यह बात नामुमकिन है।...विवाह भविष्य की तरह अंधकारमय होता है, यह तुम्हारे दिमाग में कैसे आया?...अगर वर्तमान प्रकाशमय है तो उसी प्रकाश में भविष्य को देखना सीखो। भविष्य को प्रकाशमय करना इनसान के हाथ में होता है।...अगर तुम्हें कोई पसंद आए तो, जरूर उसके जीवन की सहचारिणी बनो। उसे सुख दो।...प्रेम करना सीखो, प्रेम की आशा मत रखो। वह खुद ही तेरे पास आएगा।”

एक ओर उनके व्यक्तित्व में स्नेहासक्ति की पराकाष्ठा है तो दूसरी ओर संसार के प्रति एक विलक्षण निःस्पृहता, निर्लिप्तता और अनासक्ति। यह विरक्ति उनकी छोटी-छोटी बातों में झलकती है, जैसे विशाल प्रदर्शन के प्रति भय, आडंबर, शब्दजाल, अभिनंदन समारोहों के प्रति उदासीनता, चापलूसी करनेवालों से दूरी बनाए रखना, भीड़-उत्सवों के प्रति अरुचि। सफलता के शिखर पर पहुँचकर मनुष्य में एक उपरति की दशा का उदय होता है। दीदी ने आत्मविश्लेषण करते हुए लिखा था, “सच कानन, अब मेरा मन, काम, घर, पिक्चर, बाग, मित्र कहीं भी नहीं लगता, सब बकवास लगता है। अजीब सी उदासी छाने लगी है। न दुःख है, न खुशी। मैं थक गई कानन। अब मुझे आराम की जरूरत है, सिर्फ शरीर को ही नहीं, दिमाग को भी। वरना, मैं हर बात से, अपने आपसे भी नफरत करने लगूँगी।”

जो लोग उनके सामने होकर स्तुति करते हैं और पीठ होते ही उनके लिए कथ्य-अकथ्य कहते हैं, ऐसे लोगों से उन्हें संताप होता है, घृणा होती है, “आजकल रिकॉर्डिंग कम और बाकी मुसीबतें ज्यादा हो रही हैं। इसलिए सभी समझते हैं, मैं बदलती जा रही हूँ। मालूम नहीं, सचमुच मुझमें किस तरह का बदलाव हो रहा है। मैं सिर्फ एक बात जानती हूँ कि मैं परेशान रहने लगी हूँ।...अजीब सी थकान महसूस करने लगी हूँ, जो मुझे किसी भी खुशी में शरीक होने नहीं देती। निराशा की काली घटा मेरे जीवन पर छाई रहती है, जो न तो बरसती है और न ही छँटती है।”

वे स्वयं छलकपट विहीन थीं। शुद्ध सत्य की पक्षधर थीं। मन की भावनाओं को आवृत्त करके रखना उनकी प्रकृति में नहीं। तभी तो बंबई जैसे महानगर में इतना जीवन व्यतीत करने पर भी वहाँ की कृत्रिम सभ्यता का रंग उनके व्यक्तित्व पर चढ़ नहीं पाया। इस व्यायाम के कर्दम से जीवन-रस ग्रहण करते हुए भी अपने व्यक्तित्व को कमलपत्रवत् अलिप्त और स्वच्छ रख सकीं। उनके गायन में इसी पवित्रता ने प्रभाव उत्पन्न किया है। आम आदमी के कानों को सुर की पहचान देनेवाली ‘लता मंगेशकर’ ही थीं। कितनी नई गायिकाएँ आईं, पर उस स्थापित मानदंड के कारण आज तक लता दी का स्थान अक्षुण्ण रहा।

यह ‌फिल्मी संसार अविश्वास का संसार है। यहाँ जीवन-मूल्य ही दूसरे हैं। सामाजिकता, आत्मीयता, गार्हस्थ्य जैसी सुंदर भावनाओं का कोई स्थान नहीं। यहाँ एक बार रास्ते अलग हुए नहीं कि कोई किसी का नहीं रह जाता। यह इतना संवेदनहीन नगर है कि नीचे गिरे हुए व्यक्ति के शरीर पर पैर रखकर आगे बढ़ने को प्रगति, उन्नति कहा जाता है। मन में घृणा, ईर्ष्या, द्वेष का विष उबलता है और चेहरे पर कृत्रिम हास्य का मुखौटा चढ़ा लिया जाता है।

ऐसी दुनिया में उनके जैसा पारदर्शी व्यक्तित्व मिलना असंभव है।

४८, स्वस्तिक कुंज, सेक्टर-१३, रोहिणी,
दिल्ली-११००८५
दूरभाष : ९८१०३५३५६०

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