टाइगर हिल

टाइगर हिल

जानी-मानी साहित्यकार। सात कहानी-संग्रह, सात उपन्यास, तीन कविता-संग्रह, छह ललित-निबंध और तीन पुस्तकें अंगे्रजी में, तीन अनुवादित पुस्तकें तथा कई उपन्यास, कहानी, कविता आदि पाठ्यक्रमों में शामिल। ‘सर्जना पुरस्कार’, ‘यशपाल पुरस्कार’, ‘भारतेंदु प्रभा’ सहित कई अन्य सम्मान। संप्रति कार्यक्रम ‘अधिशासी’, आकाशवाणी दूरदर्शन।

 

आज की रात लद्दाख में उन्हें रुकना था। कारगिल की सुरक्षा में महादेव यादव की ड्यूटी एक बार फिर लगी थी। शाम हो गई थी, इसलिए उसकी सैन्य टुकड़ी आगे की दुर्गम यात्रा नहीं कर सकती थी। सुबह होते ही फिर से प्रस्थान करना है। कुछ ऐसे भी सैनिक थे, जिनकी कारगिल में यह पहली ड्यूटी थी। सभी रोमांच से भरे हुए। अपनी टुकड़ी के वरिष्ठ सैन्य अधिकारी से आदेश ले वे ‘कारगिल वार मेमोरियल’ देखने निकल पड़े थे।

दिन के उजाले में भूरी दिखाई पड़नेवाली पहाड़ियाँ शाम के धुँधलके मेें साँवली नजर आने लगी थीं। पहाड़ियों के ऊपर झुका आसमान उनके सौंदर्य पर अपना संपूर्ण प्यार उड़ेल देने के लिए आतुर दिखाई दे रहा था। चारों ओर से पहाड़ियों से घिरे इस स्थान पर कारगिल वार मेमोरियल बनाया गया था। सामने की पहाड़ी की ढलान पर छोटे-छोटे गोल अनगढ़ पत्थरों से एक ऊँचा चबूतरा बनाकर उस पर दो सैनिकों की अष्टधातु की मूर्तियाँ खड़ी थीं, जिनके हाथों में भारत का तिरंगा था और उनके दोनों ओर भारतीय सेना के कई ध्वज लहरा रहे थे। चबूतरे के सामने एक बड़े समतल भू-भाग में हलके गुलाबी रंग के मेहराब की आकृति वाले सैकड़ों छोटे-छोटे पत्थर कई पंक्ति में जमीन पर गड़े हुए थे, जिन पर शहीद हुए सैनिकों के नाम, नंबर और रेजिमेंट का विवरण काले रंग में खुदा हुआ था। ये पत्थर उन सैनिकों की स्मृति में वहाँ लगाए गए थे, जो कारगिल युद्ध में अपना जीवन बलिदान कर चुके थे। पत्थर की प्रत्येक पंक्ति के सामने से लाल ईंटों का एक ‘पाथ-वे’ बना हुआ था, ताकि उस पर से चलते हुए पत्थर पर खुदे नंबर और नाम को आसानी से पढ़ा जा सके। कुछ सैनिक उन पाथ-वे पर पहले से टहल रहे थे। वहाँ पहुँचते ही महादेव के भीतर एक रोमांचकारी जोश की भावना उठी थी और वह जोर से बोल उठा था—‘भारत माता की...’

‘जयऽऽ’। प्रत्युत्तर में सैनिकों के जयघोष से पहाड़ियाँ गूँज उठीं। एक अनुगूँज पूरे वातावरण में भर गई। वार मेमोरियल देखने पहुचे कुछ सामान्य युवक और युवतियाँ भी मंत्रमुग्ध से अपने हाथ उठाकर जय का नारा लगाने लगे थे। दो स्त्रियाँ एक शहीद के स्मृति पत्थर के सामने रखे शीशे के लैंप की बाती प्रदीप्त कर रही थीं। वे चौंककर सैनिकों की इस टुकड़ी को देखने लगी थीं।

महादेव ने एक सरसरी निगाह सभी स्मृति प्रतीकों की ओर दौड़ाई थी। प्रत्येक पत्थर के सामने बने पक्के चबूतरे पर शीशे का एक लैंप और बगल में एक तिरंगा स्थायी रूप से लगा था। पहले से उपस्थित कुछ सैनिक उन लैंपों को प्रज्वलित कर रहे थे।

“क्या प्रतिदिन?” महादेव ने थोड़ा चकित होते हुए एक सैनिक से पूछा।

“हाँ, बिल्कुल। हमारे वीर सैनिक अँधेरे में क्यों रहेंगे?” कहते हुए सैनिक ने लैंप प्रज्वलित कर उस पत्थर को सैल्यूट किया। महादेव ने नाम और नंबर पढ़ने की कोशिश की, शायद अपने किसी परिचित को निकल आए, क्योंकि वह तो कारगिल युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी था और उस युद्ध में उसने भाग भी लिया था। यहाँ वह इतने वर्षों के अंतराल पर आया था। पत्थर पर लिखा था—इन मेमोरी आॅफ नं. १५२११७३८ एन और उस नंबर के आगे उस शहीद सैनिक का नाम।

महादेव अपने साथी सैनिक चंद्रदेव सिंह थापा के साथ एक-एक पत्थर पर लिखे नाम और नंबर तथा दूसरे विवरण पढ़ता जा रहा था। चंद्रदेव सिंह थापा उसकी बगल में चलते हुए उसके चेहरे के एक-एक भाव को पढ़ने की कोशिश कर रहा था। अधिकांश स्मृति-पत्थरों के सम्मुख रखे लैंप अब तक जल चुके थे। एक अलौकिक सी सुनहरी आभा से पहाड़ियों के बीच बना वह कारगिल वार मेमोरियल क्षेत्र दमक उठा। लग रहा था आसमान से सैकड़ों सूरज शहीद सैनिकों की अभ्यर्थना में जमीन पर आकर खड़े हो गए हों।

“आप तो कारगिल युद्ध में शामिल थे न, सर?”

चंद्रदेव सिंह थापा अभी पिछले वर्ष ही ट्रेनिंग पूरी करके यहाँ आया था। महादेव यादव के साथ उसकी अच्छी मित्रता हो गई थी। उसके पीछे एक कारण यह भी था कि महादेव यादव उत्तर प्रदेश के गाजीपुर का था और चंद्रदेव सिंह थापा का परिवार नेपाल छोड़ कई पीढ़ियों से गोरखपुर में बस गया था।

“हाँ, मैं था उस समय। यहीं कारगिल में पोस्टिंग थी।”

महादेव ने विचारों में डूबते हुए उत्तर दिया। उसके बूटों की खट-खट से सन्नाटा भंग हो रहा था।

“४ जुलाई को सुबह-सुबह मैंने और देवपत ने ही टाइगर हिल पर तिरंगा फहराया था। हमने वहाँ से पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़कर फिर से अपना कब्जा कर लिया था। बहुत मुश्किल चढ़ाई थी। चोटी पर बस किसी तरह दो लोग खड़े हो सकते थे। शेष साथी पूरी पहाड़ी पर नीचे से ऊपर तक जगह-जगह बैठे थे हाई जोश में।”

कहते हुए महादेव एक पत्थर के सामने खड़ा हो गया था। उसके चेहरे पर लैंप की रोशनी पड़ रही थी। फौजी वर्दी में उसका गोरा चेहरा तमतमाया लग रहा था। कैंप की छाया में आँखें जुगनुओं की तरह चमक रही थीं। अँधेरा गाढ़ा हो रहा था और लैंप की रोशनी और प्रखर लग रही थी। शहीदों की सूक्ष्म उपस्थिति को वह महसूस कर रहा था। एक सकारात्मक ऊर्जा से भरा-भरा वातावरण, जहाँ कोई भी व्यक्ति लैंप प्रज्वलित करने में अपना सहयोग कर गौरवान्वित महसूस कर रहा था। देखते-ही-देखते चिरागों का एक मेला लग गया था वहाँ। दीपावली सी एक छटा। यह कारगिल के शहीदों के बीच प्रतिदिन की दीपावली थी। लोग इस मेमोरियल को देखने आते थे। नमन करते थे। आँखें नम होती थीं। मौन खड़ी पहाड़ियों से लोग हालचाल लेते थे और एक विचित्र सी मनःस्थिति में वापस लौटते थे।

विचित्र सी मनःस्थिति में ही महादेव भी अपने साथियों के साथ लौटा था, क्योंकि पत्थर के स्मृति-प्रतीकों के बीच ही उसने देखा था, अपने शहीद मित्र हवलदार तुलाराम के नाम का वह पत्थर और अनगिनत यादें ताजा हो आई थीं।

पाकिस्तान के साथ वह लड़ाई इतनी भयानक थी कि शत्रु के स्नाइपर फायर की आवाज तक नहीं होती थी। उनके साथ एक दूसरा हवलदार वीरेंद्र था, जो लगातार उधर की ओर देखकर सभी को सचेत करता था कि पाकिस्तान का फायर सामने से आ रहा है। एकाएक स्नाइपर का एक फायर आया था और साथ ही मोर्चा सँभाले हवलदार तुलाराम के माथे पर आकर लगा था। वह वहीं गिर गया था। परिस्थितियाँ प्रतिकूल थीं। ऊँची चोटियों पर दुश्मन पहले से मोर्चाबंदी कर चुके थे। भारतीय सैनिकों को नीचे से युद्ध करते हुए उन्हें खदेड़ना था। खतरे बहुत थे। पर भारतीय सेना को यह पता था कि कोई भी युद्ध हथियारों के बल पर नहीं लड़ा जाता है, बल्कि साहस, राष्ट्रप्रेम और कर्तव्य की भावना के साथ लड़ा जाता है। इस भावना की कोई कमी नहीं थी भारतीय सैनिकों में। साथी को पीछे न छोड़ने की परंपरा निभाते हुए महादेव गिरे हुए तुलाराम को अपनी बाँहों में सँभालते हुए एक पत्थर की ओट में ले गया था। उसकी साँसें धीमी चल रही थीं। यह टाइगर हिल्स सेक्टर की एक महत्त्ववूर्ण चोटी ‘वन पिंपल’ थी, जहाँ महादेव अपने साथियों के साथ मोर्चा सँभाले था। पहाड़ी की ऊँचाई पर से शत्रु द्वारा आक्रमण करने के कारण छह सैनिक शहीद हो चुके थे। इस सैन्य टुकड़ी के प्रमुख ने कुछ और फौजी दस्ता भेजने का अनुरोध कर लिया था, परंतु कुमुक आने तक उन्हें दुश्मनों से मोर्चा सँभालना था। भारतीय सेना उनके आसान निशाने पर थी, परंतु इस चुनौती को भी स्वीकार किया गया और अंततः भारतीय सैनिकों के शौर्य के आगे हारकर पाकिस्तान को सामरिक महत्त्व वाली अन्य चोटियाँ भी खाली करनी पड़ी थीं।

“तुलाराम, तुलाराम?” वह धीरे से तुलाराम के कानों के पास मुँह सटाकर फुसफुसाया था।

तुलाराम का खून बह रहा था, जिसकी गरमी और नमी वह अपनी हथेलियों पर महसूस कर पा रहा था, परंतु रात होने के कारण उसे देख नहीं पा रहा था। रोशनी की कोई व्यवस्था भी नहीं थी और न ही रोशनी कर सकते थे। शत्रु अपने मशीनगन से ऊपर से हमला कर रहा था। सामने से गोलियों की बौछार होने के कारण भी तुलाराम को प्राथमिक उपचार नहीं दिया जा सका था। महादेव की गोद में ही तुलाराम ने अंतिम साँस ली थी। छिपने के लिए खाली और सूखी पहाड़ियों के अलावा वहाँ तिनका भी न था।

कुछ ही घंटों में अतिरिक्त भारतीय सैन्य बल अत्याधुनिक हथियारों के साथ वहाँ पहुँचा था और पहले तोलोलिंग और फिर सबसे ऊँची चोटी ‘टाइगर हिल’ पर विजय हासिल कर ली गई थी।

महादेव को याद आया था। वह १३ जून का दिन था, जब १८ ग्रेनेडियर्ज ने दो राजपूताना राइफल्स के साथ मिलकर तोलोलिंग पर कब्जा किया, जिसमें लेफ्टिनेंट कर्नल करुणाकरन को अपना सर्वोच्च बलिदान देना प़डा था। महादेव अपने अन्य साथियों के साथ धीरे-धीरे आगे सरक रहा था। रेडियो आॅपरेटर हवलदार दिलीप राठौर का हैंडसेट महादेव के हाथ में था। कुछ ही देर में उसे महसूस हुआ कि हैंडसेट उसे पीछे की ओर खींच रहा है। आगे नहीं बढ़ रहा है। महादेव ने पीछे मुड़कर देखा तो दिलीप राठौर भी शहीद हो चुका था।

“कुछ सोच रहे हैं, सर?” शिविर में बगल की फोल्डिंग पर लेटे चंद्रदेव सिंह थापा ने एक हाथ बढ़ाकर धीरे से महादेव को हिलाया। महादेव वार मेमोरियल से आकर सीधे अपनी चारपाई पर लेट गया था।

“ऊँ हूँ। हाँ, तुलाराम के बारे में सोच रहा था, चंद्रदेव।”

“वही, जो शहीद हो गए थे? जिनका स्मृति-प्रतीक देखकर आप भावुक हो उठे थे?” चंद्रदेव ने उसे कुरेदा।

“हाँ, चंद्रदेव। एक तरह से वह मुझे बचाने के लिए शहीद हो गया।” महादेव की आवाज थोड़ी रुँधी हुई थी।

“क्या?”

“हाँ, मैं आगे निकल रहा था, लेकिन तुलाराम ने मुझे रोकते हुए कहा था कि मुझे आगे निकलने दो। तुम्हारी अभी नई-नई शादी हुई है। मेरे तो बाल-बच्चे हैं। कुछ होगा तो सँभाल लेंगे अपनी माँ को।”

“ओह! कब हुई थी आपकी शादी?” चंद्रदेव की उत्सुकता बढ़ रही थी।

“३० अप्रैल को शादी थी और दो ही दिन बाद सूचना मिली कि छुट्टियाँ निरस्त की जाती हैं और तुरंत आकर ड्यूटी ज्वाइन करें।”

“भाभी को कितना अजीब लगा होगा न?”

“उन्हें पता था कि उनकी शादी किससे हो रही है?” महादेव की मुसकराहट में गर्व की झलक थी।

“फिर भी, किसी नई-नई ब्याहता के लिए यह एक सदमा जैसा था।” चंद्रदेव ने करवट बदलते हुए महादेव की ओर मुँह घुमा लिया था।

“इस तरह के तमाम किस्से सभी ने सुने और सुनाए हैं। फिल्में बन चुकी हैं। इसमें नया क्या है? फौजी से शादी करनेवाली हर लड़की जानती है कि कभी भी उसकी चूड़ियाँ टूट सकती हैं।” महादेव निस्पृह भाव से बता रहा था।

“यह कठोर मन मिलिट्री में आने के बाद हुआ सर या पहले से ही कठोर थे आप?” चंद्रदेव के चेहरे पर उत्सुकता थी।

महादेव हँसा था।

“तुम्हारे इस प्रश्न का जवाब नहीं दे सकता। हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि फौज में भेजते हुए जब माँ अपना दिल कठोर कर लेती है तो फौजी को कमजोर नहीं होना चाहिए। सभी माँएँ और पत्नियाँ डरने लगें तो देश की रक्षा करने के लिए कौन आगे आएगा? दरअसल, हम फौजी तो केवल अपना मन और तन न्योछावर करते हैं देश पर, लेकिन वास्तविक मन और भावना तो भारत की स्त्रियाँ न्योछावर करती हैं, जो अपने बेटे और पति को सेना में भेजती हैं।”

महादेव ने घूमकर चंद्रदेव की ओर मुँह कर लिया था।

“हाँ, बिल्कुल सही कह रहे हैं आप। हमारे भीतर सैनिक होने का गौरव भाव तो उन्हीं की देन है। उनकी शक्ति के बदौलत ही हममें वह शक्ति भरती है, जिससे हम दुश्मनों पर टूट पड़ते हैं।” चंद्रदेव ने कुछ सोचते हुए कहा।

“कारगिल में लड़ते हुए डर नहीं लगा परिवार को लेकर? भाभी की याद कभी आई?” वह पुनः पूछ रहा था।

“हाँ, जब-जब मोर्टार और रॉकेट लाॅञ्चर से बम फायर करने के लिए हाथ आगे बढ़ाता, तब-तब मेरी कलाई पर मेहँदी से लिखा जमुना नाम दिखाई पड़ जाता और मैं दुगुने वेग से युद्ध करने लगता।” महादेव की आँखों में जमुना के लिए प्यार की गंगा उमड़ती दिखाई पड़ी थी। वह मुसकरा रहा था।     

“दरअसल मेरी छोटी बहनों ने जिद करके शादी के एक दिन पहले शुभ करने के लिए मेहँदी से मेरी दोनों कलाइयों पर जमुना का नाम लिख दिया था। वे तो दोनों हथेलियों में मेहँदी लगाना चाह रही थीं। कह रही थीं आजकल सभी लड़के लगवाते हैं, पर मैंने ही डाँटकर मना कर दिया कि सैनिक के हाथ में मेहँदी कैसी लगेगी? ठीक ही किया था। लगवा लेता तो कितना भद्दा लगता युद्ध लड़ते हुए।”

महादेव पूरी बात बता देना चाहता था।

“कितना रूखा-सूखा बदरंग होता है न हम फौजियों का जीवन?” चंद्रदेव ने लंबी साँस भरते हुए कहा तो महादेव ने तुरंत टोक दिया—

“अरे, बदरंग कह रहे हो, अभी नए हो, शायद इसलिए। हम फौजियों से सुंदर रंगवाली जिंदगी कहाँ है किसी की? हमेशा लाल रंग की होली के लिए तैयार। भारत माँ के लिए मरें तो लाल, शत्रुओं को मारें तो लाल फौआरा। कहाँ बदरंग है हमारी जिंदगी?”

चंद्रदेव अपनी ही बात के उत्तर पर कटकर रह गया था। अपनी झेंप मिटाते हुए बोला, “मैं तो भाभी के बारे में सोचकर कह रहा था। कहाँ तो आपके साथ घूमने-फिरने का मन बनाई रही होंगी और कहाँ शादी के चंद दिनों बाद ही आपकी ड्यूटी कारगिल की पहाड़ियों में लगा दी गई।”

“यह सौभाग्य भी तो कभी-कभी ही मिलता है कि दुश्मनों से खुलकर लड़ा जाए। पता है तुम्हें कि भारतीय सैनिकों ने कारगिल की लड़ाई में कितने पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया था?” वह प्रश्नवाचक निगाह से चंद्रदेव को देख रहा था।

“नहीं।” उसके नहीं में अनगिनत उत्सुकताएँ थीं।

“तो सुनो, आर्टिलरी तोप से लगभग दो-ढाई लाख गोले, कई हजार राॅकेट, तीन सौ से ज्यादा तोपों, मोर्टार और राॅकेट लॉञ्चर से प्रतिदिन लगभग पाँच हजार बम फायर होते थे पाकिस्तानी सेना पर। शायद दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कारगिल ही वह युद्ध था, जिसमें दुश्मन पर इतनी बमबारी हुई थी। मिग २७ और मिग २९ का भी प्रयोग किया गया था इस युद्ध में। पाकिस्तान के लगभग ढाई हजार से भी अधिक सैनिक मारे गए थे। पाकिस्तान की मीडिया से यह बात छनकर आई कि पाकिस्तान को १९६५ और १९७१ की लड़ाई से कहीं ज्यादा सैन्य नुकसान हुआ था। पर स्साला, ये पाकिस्तान है कि मानता ही नहीं और हम हैं कि ‘ये दिल माँगे मोर’। जानते हो, यह पंक्ति हमारे वरिष्ठ अधिकारी ने ‘टाइगर हिल’ पर विजय हासिल कर लेने के बाद कही थी। ये दिल माँगे मोर।”

महादेव ने दुहराते हुए एक छोटा सा ठहाका लगाया था।

“कैसे शुरू हुआ था यह युद्ध?” चंद्रदेव अपनी चारपाई से उठकर उसे पास खींचते हुए पूछा।

“दरअसल थोड़ी चूक तो कह सकते हैं इसे हमारी कि हम अत्यंत विश्वास में धोखा खा गए और शत्रु सैनिकों को यह अवसर मिला कि वे हमारी कुछ पोस्टों को खाली देख उस पर कब्जा करने की नीयत से आ पहुँचे। टाइगर हिल पर पाकिस्तानी सेना ने कब्जा कर लिया। यह बात भारतीय सैनिकों को एक ग्वाले ने आकर बताई, जब उसने भारतीय क्षेत्र में शत्रु देश के सैनिकों की हलचल देखी। भारतीय जवान वहाँ जाँच के लिए गए तो पाकिस्तानी सेना ने उन पर हमला कर दिया। ३ मई, १९९९ से शुरू हुआ यह युद्ध २६ जुलाई, १९९९ तक चला था।’”

“बड़ा रोमांचक युद्ध था, सर।” चंद्रदेव को सुनकर जोश आ रहा था।

“हमारे एक कमांडो थे दिगेंद्र सिंह। उनके पूरे शरीर में पाँच गोलियाँ लगी थीं, फिर भी उन्होंने ४८ पाकिस्तानियों को अकेले मार गिराया था और मेजर की गरदन काटकर अपना तिरंगा वहाँ फहराया था। अपने मारे गए सैनिकों को पाकिस्तान ने लेने से मना कर दिया था। हम लोगों को ब्रिगेडियर की ओर से आदेश दिया गया कि इसलामिक रीति-रिवाज के अनुसार उनको दफना दिया जाए। हम लोगों ने प्वाॅइंट ४८७५ पर ही उन पाकिस्तानी सैनिकों को उनके हरे झंडे में लपेटकर सैनिक सम्मान के साथ दफनाया था।”

महादेव की आँखों में वह दृश्य मूर्तिमान हो उठा था, जब वह एक पाकिस्तानी सैनिक के शव पर डालने के लिए इसलामिक ध्वज फैला रहा था। सैनिक की हथेली आसमान की ओर खुली हुई थी। उसकी हथेली में भी मेहँदी रची हुई थी, पर एकदम फकी हो चुकी थी। उसका मन कचोट उठा था। जमुना की तरह ही कोई स्त्री होगी, जो उसकी राह देख रही होगी। उसे नहीं पता होगा कि उसका पति भारत माँ की गोद में हमेशा के लिए सोने चला गया है। उसके देश का सेना प्रमुख ऐसा गद्दार है कि अपने सैनिकों के शव तक लेने से मना कर चुका है, ताकि विश्व को यह न पता चलने पाए कि इस कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी सेना का हाथ है।

“बेचारा, भारत से अलग होकर पाकिस्तान बना और उसे फिर से भारत की धरती ने ही शरण दी।” चंद्रदेव बोल पड़ा।

महादेव ने उस दृश्य को याद करते हुए बताया, “भारत के लोगों की महानता देखो, चंद्रदेव। पाकिस्तान ने हमारे साथ धोखा किया। युद्ध छेड़ा और जब हमने उसे मार गिराया तो उसने अपने सैनिकों को पहचानने से भी इनकार कर दिया, परंतु हमारे ब्रिगेडियर ने हमसे कहा था—पूरे सैनिक सम्मान के साथ उन्हें दफनाया जाए, क्योंकि अब वे हमारे शत्रु नहीं, बल्कि केवल सैनिक हैं और हर सैनिक की शहादत को हम सैल्यूट करते हैं।”

चंद्रदेव के मुख से एकाएक निकला था—“वाह, क्या बात है सर! भारतीय सैनिक जंग ही नहीं जीत लेते हैं, बल्कि दिल भी जीत लेते हैं।”

दोनों अपनी-अपनी चारपाई पर उठकर बैठ गए थे। शिविर में एक सुनहरी रोशनी फैली थी, जिसमें उन दोनों के होंठों पर विजयी मुसकान थी, शायद आॅपरेशन विजय की मुसकान।

मधुवन, सा. १४/९६ छ ५
सारंगनाथ कॉलोनी 
सारनाथ, वाराणसी-२२१००७
दूरभाष :9792411451

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