'अमृत महोत्सव' से 'अमृत काल' की ओर

एक विराट् देश की स्वतंत्रता की ७५वीं वर्षगाँठ, इससे बड़े गौरव और प्रसन्नता की बात क्या हो सकती है! वह स्वतंत्रता, जिसे पाने के लिए दुनिया के इतिहास का सबसे लंबा संग्राम लड़ा गया। लाखों लोगों ने प्राणों की आहुति दी, जेलों में यातनाएँ सहीं, अनगिनत कष्ट सहे। प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह स्वतंत्रता संग्राम को विस्तार से जाने, बलिदानों से प्रेरणा ले, देशभक्ति का सही रूप समझे। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की प्रेरक कहानियाँ स्वयं भी पढ़े तथा अपने बच्चों को भी पढ़ाए। निश्चय ही स्वतंत्रता संग्राम को जानने-समझने से हमें एक ‘राष्ट्रीय चरित्र’ का निर्माण करने की प्रेरणा मिलेगी। बिना राष्ट्रीय चरित्र के किसी देश के लिए न भौतिक उन्नति संभव है और न ही बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति। स्वतंत्रता संग्राम को सूत्र रूप में समझाना हो तो कुछ धाराएँ स्पष्ट रूप से सामने आती हैं। एक ओर तिलका माँझी और बिरसा मुंडा जैसे जननायकों का विद्रोह है, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न रूपों में सामने आता है, वे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से भी पहले अंग्रेजों के शोषण, दमन और अत्याचारों को चुनौती देते हैं, फिर १८५७ की जनक्रांति सामने आती है, जो ‘सिपाही विद्रोह’ से शुरू होती है और एक विशाल सशस्त्र विद्रोह में बदल जाती है। सिपाहियों के साथ-साथ आम लोग ही नहीं, राजा नाहर सिंह जैसे महाराजा तथा झज्जर के नवाब भी फाँसी पर चढ़ते हैं। बहादुरशाह जफर, रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब पेशवा, कुँवर सिंह, तात्या टोपे के साथ बेगम हजरत महल, झलकारी बाई जैसी महिलाओं का बलिदान भी जनमानस में चिरस्थायी रूप ले लेता है। १८५७ के विद्रोह को ब्रिटिश सरकार बेहद निर्दयता से कुचल देती है। घर-घर से नौजवानों को पकड़कर पेड़ों पर लटका दिया जाता है, फिर गूँजता है ‘स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का उद्घोष। लोकमान्य तिलक स्वतंत्रता की चेतना जगाते हैं। तब की कांग्रेस प्रस्ताव पास करने तक सीमित रहती है। क्रांतिकारियों की वीरतापूर्ण विद्रोही गतिविधियाँ और उनकी फाँसी भी देशप्रेम की मशाल जलाए रखती हैं, फिर पूरा संसार दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के सत्याग्रह के चमत्कार से परिचित होता है, जिसके शासन में सूर्य नहीं डूबता, वही ब्रिटिश साम्राज्य अपने कानून बदलने को विवश हो जाता है। दक्षिण अफ्रीका में पशुओं से बदतर जीवन जीने को विवश करोड़ों भारतीयों तथा अश्वेतों का जीवन एक नए उजाले से भर जाता है। यह जनशक्ति, जनचेतना, जनविद्रोह के समक्ष एक शक्तिशाली साम्राज्य का घुटने टेक देना, समूचे विश्व के लिए अकल्पनीय घटना थी।

महात्मा गांधी जब इतनी बड़ी सफलता के बाद भारत लौटते हैं तो पूरे देश का भ्रमण करते हैं; भारत की गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, छुआछूत जैसी अनेक गंभीर चुनौतियों को समझते हैं। गांधीजी भारत की तत्कालीन परिस्थितियों को भी समझते हैं, गाँवों में ९० प्रतिशत आबादी, ९० प्रतिशत निरक्षरता, ब्रिटिश सरकार द्वारा कुटीर-उद्योगों का विनाश, भारत से कच्चे माल का दोहन, राजा-महाराजाओं का ब्रिटिश समर्थक होना, बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का अंग्रेजों का प्रशंसक होना, क्योंकि वे भारत में रेल और डाक व्यवस्था लाए, ऐसे भयावह परिदृश्य में ही उन्हें राजकुमार शुक्ल चंपारण ले जाते हैं और एक बार फिर दक्षिण अफ्रीका की तरह जनशक्ति के आधार पर सत्याग्रह से ब्रिटिश सरकार को झुकने और नील की खेती संबंधी कानून बदलने को मजबूर करते हैं तथा करोड़ों शोषित किसानों को असीमित कष्टों से मुक्ति दिलाते हैं। गांधीजी को चंपारण से ही एक उम्मीद की किरण मिल जाती है और वे स्वतंत्रता संग्राम के लिए ‘अहिंसा’, ‘सत्याग्रह’ तथा ब्रिटिश सरकार से ‘असहयोग’ को अपनाकर करोड़ों आम भारतीयों को स्वाधीनता सेनानी बना देते हैं; परदे में रहनेवाली महिलाएँ भी सड़कों पर आ जाती हैं। सिर्फ प्रस्ताव पास करनेवाली ब्रिटिश सरकार के लिए ‘सेफ्टी वाॅल्व’ बनी कांग्रेस भी आमूलचूल बदल जाती है और एक नया इतिहास बन जाता है।

क्रांतिकारी धारा अपना प्रवाह जारी रखती है। चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी ब्रिटिश सरकार को भयग्रस्त बनाए रखते हैं तथा जनचेतना जगाने में अभूतपूर्व भूमिका निभाते हैं। ब्रिटिश सरकार भगतसिंह को बेहद अनुचित ढंग से रात में फाँसी लगा देती है और जिस समय न रेडियो था, न टेलीविजन, न सोशल मीडिया, किंतु कुछ ही घंटों में लाखों लोग भगतसिंह की चिता के पास जमा हो जाते हैं।

फिर ‘आजाद हिंद फौज’ का गौरवशाली अध्याय जुड़ता है। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ ने पहले ही देश भर में स्वाधीनता की तड़प अपने उत्कर्ष पर पहुँचा दी थी। ‘आजाद हिंद फौज’ की वीरता और सफलताएँ एक नया अध्याय जोड़ देती हैं।

लाल किले में ब्रिटिश सरकार द्वारा मुकदमा चलाने पर आजाद हिंद फौज के तीन नायक ‘सहगल’, ‘ढिल्लन’ ‘शाहनवाज’ कहते हैं—हाँ, हमने बगावत की, हमें आजादी चाहिए...! इसके बाद नौसेना का विद्रोह, वह ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील ठोंक देता है।

धाराएँ चाहे अलग-अलग थीं किंतु लक्ष्य एक ही था। सभी धाराओं का अपना-अपना ऐतिहासिक महत्त्व है। सभी धाराएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। सभी के बलिदानों का बराबर सम्मान होना चाहिए। शहीदों के बलिदानों की गाथा हमारी आनेवाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा की स्रोत बननी चाहिए।

जहाँ सुई नहीं बनती थी...

स्वतंत्रता-प्राप्ति के इन ७५ वर्षों में भारत ने जो उपलब्धियाँ हासिल की हैं, उन पर भी विचार करना आवश्यक है। लेकिन उपलब्धियों पर विचार करते समय एक बार फिर हमें अतीत की ओर मुड़ना पड़ेगा। अंग्रेज भारत को किस दुर्दशा में छोड़ गए थे। अंग्रेजों के द्वारा बोया गया विषवृक्ष देश के बँटवारे के रूप में सामने आया था। भयानक गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, कुटीर-उद्योगों एवं लघु उद्योगों का क्षरण, कक्षा ५ तक शिक्षा के लिए मीलों दूर, फिर आठवीं के लिए और दूर...और स्नातक के लिए शहर...। एक विश्वविद्यालय का पूरे प्रांत में होना भी बड़ी बात थी। स्वास्थ्य के लिए झाड़फूँक ही मुख्य साधन होता था। अस्पतालों में भी सीमित साधन थे। ऐसे परिदृश्य में भारत के नवनिर्माण के लिए प्रयास हुए। भाखड़ा नागल जैसे बाँध, आई.आई.टी., भारतीय विज्ञान संस्थान जैसी शिक्षण एवं शोध संस्थाएँ, एम्स जैसे अस्पताल, बी.एच.ई.एल., स्टील अथॉरिटी जैसे भारी उद्योग, रेडियो स्टेशनों की शृंखला, विश्वविद्यालयों की स्थापना...और धीरे-धीरे पूरे विश्व में अपनी नई छवि गढ़नेवाला भारत बनने लगा। हम कैसे भूल सकते हैं कि हरित क्रांति से पहले खाद्यान्नों के लिए विदेशों पर निर्भर थे। महामारियों में लाखों लोग मारे जाते थे। हैजा, टी.बी., पोलियो जैसे रोग कितने घातक थे। भारत में दुनिया भर से अच्छे बिंदु लेकर उत्कृष्ट संविधान बना। अमेरिका में १५० वर्ष बाद सबको मताधिकार मिला, किंतु भारत में प्रारंभ से ही सभी को समान मताधिकार मिला—चाहे कोई अरबपति हो अथवा गरीब मजदूर। महिलाओं को समान अध‌िकार मिले। महिलाएँ हर क्षेत्र में पुरुषों के कंधे-से-कंधा मिलाकर उच्चतम पदों को सुशोभित करने लगीं। अमेरिका में इतने वर्षों में कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बनी, किंतु भारत में बनी।

मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग, बाल अधिकार आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएँ बनीं। भारत में लोकतंत्र निरंतर गति एवं शक्ति पाता रहा। जिसने भी लोकतंत्र की मर्यादा से छेड़छाड़ की, जनता ने उसे सत्ता से बाहर कर दिया। प्राकृतिक आपदाओं में हजारों लोग मारे जाते थे, किंतु २००५ में भारतीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण तथा बाद में आपदा राहत बल (एन.डी.आर.एफ.) के गठन के बाद अब प्राकृतिक आपदाओं से जनधन की हानि नगण्य सी हो गई है। आजादी के समय प्रत्येक भारतवासी की औसत करीब आयु ३०-३१ वर्ष थी, जो अब बढ़कर ६५ के आसपास पहुँच गई है। साक्षरता १२ प्रतिशत से ८० प्रतिशत के आसपास हो गई है। भारतवंशी तथा प्रवासी भारतीय विश्व भर में अपनी धाक जमा रहे हैं। खेलों में भी निरंतर सफलताएँ मिल रही हैं। क्रिकेट में तो हम शीर्ष पर हैं ही। भारत अब विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। मंगल मिशन हो या एक साथ १०६ उपग्रहों का प्रक्षेपण—हम विज्ञान प्रौद्योगिकी में दुनिया के शीर्ष देशों में हैं। कंप्यूटर के क्षेत्र में भारत एक महाशक्ति बन चुका है। ड्रोन तथा कृत्रिम बुद्धि का क्षेत्र हो अथवा गैर-पारंपरिक ऊर्जा का क्षेत्र—भारत सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है। भारत ने अनेक ऐसी उपलब्धियाँ हासिल की हैं, जिनसे पूरे विश्व में भारत का मान बढ़ा है। चाहे वह ९३ हजार पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण हो या एक करोड़ शरणार्थियों को शरण देना हो या कुवैत से एक लाख ७५ हजार भारतीयों को ‘एयरल‌िफ्ट’ करके सुरक्षित लाना हो या संयुक्त राष्ट्र में भारतीय सैनिकों की शांति सेना में शानदार सेवाएँ हों—बहुत कुछ है, जिस पर गर्व किया जाना चाहिए।

इस अंक के संयोजन में श्री आशुतोष भटनागर से प्राप्त सहयोग के लिए हम उनका आभार व्यक्त करते हैं।

स्वाधीनता की ७५वीं वर्षगाँठ के पावन अवसर पर ‘साहित्य अमृत’ के सुधी पाठकों एवं देशवासियों को शुभकामनाएँ। भारत की स्वतंत्रता अमर रहे, लोकतंत्र अमर रहे, भारतीय संस्कृति अमर रहे!

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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